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किन्नर विमर्श : समाज के परित्यक्त वर्ग की व्यथा कथा

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किन्नर विमर्श : समाज के परित्यक्त वर्ग की व्यथा कथा
डॉ पुनीत बिसारिया
जब कभी किसी के परिवार में कोई खुशी का अवसर होता है, तो हम देखते हैं कि एक लैंगिक दृष्टि से विवादित समाज के लोग जो प्रायः हिजड़े (अथवा वर्तमान में प्रचलित नाम किन्नर; हालाँकि किन्नर शब्द हिमाचल प्रदेश के किन्नौर निवासियों हेतु प्रयुक्त होता था, जिसे अब हिजड़ों के सन्दर्भ में व्यवहृत किया जाने लगा है) होते हैं, आ जाते हैं और बधाइयाँ गाकर, आशीर्वाद देकर कुछ रुपए लेकर विदा हो जाते हैं. इसके बाद हम भी अपनी सामान्य गतिविधियों में व्यस्त हो जाते हैं और दोबारा कभी इनके बारे में नहीं सोचते. हम कभी यह जानने का प्रयास नहीं करते कि ये किन्नर कौन हैं, कहाँ से आये हैं, इनकी समस्याएँ क्या हैं और वे कौन से कारण हैं, जिनकी वजह से इन्हें किन्नर बनकर एक प्रकार की भिक्षावृत्ति से जीवन-यापन करने को विवश होना पड़ता है.
किन्नर या हिजड़ों से अभिप्राय उन लोगों से है, जिनके जननांग पूरी तरह विकसित न हो पाए हों अथवा पुरुष होकर भी स्त्रैण स्वभाव के लोग, जिन्हें पुरुषों की जगह स्त्रियों के बीच रहने में सहजता महसूस होती है. वैसे हिजड़ों को चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है,- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा. वास्तविक हिजड़े तो बुचरा ही होते हैं क्योंकि ये जन्मजात ‘न पुरुष न स्त्री’ होते हैं, नीलिमा किसी कारणवश स्वयं को हिजड़ा बनने के लिए समर्पित कर देते हैं, मनसा तन के स्थान पर मानसिक तौर पर स्वयं को विपरीत लिंग अथवा अक्सर स्त्रीलिंग के अधिक निकट महसूस करते हैं और हंसा शारीरिक कमी यथा नपुंसकता आदि यौन न्यूनताओं के कारण बने हिजड़े होते हैं. नकली हिजड़ों को अबुआ कहा जाता है जो वास्तव में पुरुष होते हैं किन्तु धन के लोभ में हिजड़े का स्वांग रख लेते हैं. जबरन बनाए गए हिजड़े छिबरा कहलाते हैं, परिवार से रंजिश के कारण इनका लिंगोच्छेदन कर इन्हें हिजड़ा बनाया जाता है. भारत की सन 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे भारत में लगभग 4.9 लाख किन्नर हैं, जिनमें से एक लाख 37 हजार उत्तर प्रदेश में हैं। इसी जनगणना के मुताबिक सामान्य जनसंख्या में शिक्षित लोगों की संख्या 74 फीसदी है जबकि यही संख्या किन्नरों में महज़ 46 फीसदी ही है। इनमें आधे से अधिक नकली स्वांग करने वाले हिजड़े हैं. आश्चर्य की बात यह है कि शेष दो लाख असली हिजड़ों में से भी सिर्फ ४०० जन्मजात हिजड़े या बुचरा हैं, शेष हिजड़े स्त्रैण स्वभाव के कारण हिजड़ों में परिगणित किए जाने वाले मनसा या हंसा हिजड़े हैं, और इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह कि इन दो लाख हिजड़ों में से लगभग सत्तर हजार हिजड़े ऐसे हैं, जिन्हें एक छोटे से ऑपरेशन के बाद लिंग परिवर्तन करने के पश्चात् पुरुष या स्त्री बनाया जा सकता है लेकिन दुःख की बात है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं है.
सम्पूर्ण हिजड़े समुदाय को सामाजिक संरचना की दृष्टि से सात समाज या घरानों में बांटा जा सकता है , हर घराने के मुखिया को नायक कहा जाता है. ये नायक ही अपने डेरे या आश्रम के लिए गुरु का चयन करते हैं हिजड़े जिनसे शादी करते हैं या कहें जिन्हेंं अपना पति मानते हैं उन्हें गिरिया कहते हैं. उनके नाम का करवाचौथ भी रखते हैं.
जब किसी परिवार में बुचरा अर्थात जन्मजात हिजड़े का जन्म होता है, तो परिवार के सदस्य जल्द से जल्द उसे अपने परिवार से दूर करने का प्रयास करते हैं क्योंकि पारिवारिक जन विशेषकर परिवार के मर्द अथवा हिजड़े का पिता यह सोचता है कि इसे जाने के बाद लोग उसके पुरुषत्व पर संदेह करेंगे और बड़ा होकर यह बच्चा परिवार की प्रतिष्ठा धूल धूसरित करेगा. अतः वे जल्द से जल्द उस बालक को या तो ‘ठिकाने लगाने’ का प्रयास करते हैं या फिर उसे हिजड़ों के बीच छोड़ देते हैं. ऐसा करते समय अक्सर वे यह नहीं सोचते कि अपनी ही सन्तान को अपने से दूर करने से पहले एक बार डॉक्टर की सलाह तो ले लें कि इस शिशु को पुरुष अथवा महिला के लिंग में बदला जा सकता है या नहीं!
नीलिमा कोटि के हिजड़े किसी कारणवश स्वयं हिजड़े बन जाते हैं, मनसा मानसिक तौर पर स्वयं को हिजड़ों के निकट समझते हैं इन्हें सामान्य मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग के द्वारा वापस इनके वास्तविक लिंग में भेजा जा सकता है. और हंसा कोटि के किन्नर किसी यौन अक्षमता के कारण स्वयं की नियति को हिजड़ों के साथ जोड़ लेते हैं. इनका इलाज करने के बाद इनमें से अधिकांश को सामान्य पुरुष अथवा स्त्री बनाया जा सकता है और ये भी सामान्य जीवन जी सकते हैं.
अबुआ वास्तव में धन के लोभ में किन्नर बनकर किन्नरों को न्यौछावर के रूप में मिलने वाली धनराशि को लूटने का काम करते हैं. ये प्रायः सामान्य पुरुष होते हैं और आवश्यकता पड़ने पर साड़ी पहनकर किन्नर बनने का नाटक करके हिजड़ों के अधिकारों पर कुठाराघात करते हैं. ये रात में सडकों पर घूमकर ट्रक ड्राइवरों के साथ अप्राकृतिक संसर्ग कर उनकी यौन क्षुधा शांत करते हैं. असली और नकली किन्नर में फर्क यह है कि असली किन्नर स्वभावतः स्त्री होते हैं और पुरुष के प्रति इनमें नैसर्गिक आकर्षण होता है, जबकि नकली किन्नर वास्तव में पुरुष होते हैं और इनका आकर्षण स्त्रियों के प्रति होता है.
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण और भयावह यंत्रणा से गुजरते हैं छिबरा. पारिवारिक रंजिश के कारण कुछ लोग शत्रु के परिवार के लड़के-लड़कियों को उठाकर ले जाते हैं और उनके लिंग हटवाकर उन्हें किन्नर बना देते हैं. यह जघन्य कृत्य करने वाले पिशाच एक व्यक्ति के जीवन को नरक बना देते हैं और पीड़ित बच्चे को बिना किसी अपराध के आजन्म इस यंत्रणा से गुजरना पड़ता है. इनमें से भी कुछ को वापस उनके लिंग में लाया जा सकता है लेकिन यह बड़ी ही जटिल और खर्चीली प्रक्रिया है.
किन्नरों के उद्भव और अतीत के सम्बन्ध में अनेक अंतर्कथाएं प्रचलित हैं. इनमें सर्वाधिक प्रचलित कथा भगवान राम के वनगमन से सम्बन्धित है. कहते हैं कि जब पिता की अग्यका पालन करते हुए राम सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट आ गए तो उन्हें मनाकर वापस अयोध्या लाने हेतु भरत अयोध्यावासियों के साथ चित्रकूट आये थे लेकिन प्रभु राम ने भरत तथा अयोध्यावासियों की अनुनय विनय अस्वीकार करते हुए सभी नर–नारियों को वापस जाने को कहा परन्तु उन्होंने हिजड़ों के लिए कुछ नहीं कहा, जबकि वे भी उन्हें मनाने हेतु वहां उपस्थित हुए थे, कहा जाता है कि उनके लिए प्रभु का कोई स्पष्ट आदेश न होने के कारण उन हिजड़ों ने 14वर्षों तक वहीं रूककर प्रभु राम के वापस आने की प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया. जब वनवास पूर्ण कर भगवन राम वापस अयोध्या जा रहे थे तो उन्होंने इन हिजड़ों को मार्ग में चित्रकूट में अपनी प्रतीक्षा करते पाया. प्रभु द्वारा उनके वहाँ रुकने का कारण पूछने पर इन निर्मल किन्नरों ने बताया कि जब हम भरत के साथ यहाँ आपको मनाने हेतु आये थे तो आपने कहा था-
‘जथा जोगु करि विनय प्रनामा, बिदा किए सब सानुज रामा 1
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे, सब सनमानि कृपानिधि फेरे 11
-रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड 398 /4
कहते हैं कि प्रभु राम हिजड़ों की इस निश्छल और निःस्वार्थ भावना से अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने प्रसन्न होकर स्त्रियों को वरदान दिया कि कलयुग में तुम लोग राज करोगे. कहते हैं कि भगवान राम ने इन्हें यह भी वरदान दिया कि तुम जिन्हें अपना आशीर्वाद दोगे, उसका कभी अनिष्ट नहीं होगा. इसीलिए शुभ अवसरों पर गृहस्थ इनका स्वागत करते हैं और इन्हें मुंहमांगी रकम देकर विदा करते हैं.
अनेक ऐसे दृष्टान्त हैं जिनसे प्राचीन काल में हिजड़ों का अस्तित्व प्रमाणित होता है. महाभारत में शिखन्डी का उल्लेख आता है, जिसके कारण भीष्म का वध हुआ था. अर्जुन ने बृहन्नला नामक हिजड़े का भेष धरकर विराटनगर में अज्ञातवास का अंतिम वर्ष पूर्ण किया था. गुजरात के किन्नर अर्जुन के बृहन्नला रूप की पूजा करते हैं और यहाँ के बहुचर देवी के मन्दिर में किन्नर बनने के इच्छुक लोग आते रहते हैं. बहुचर देवी किन्नरों की इष्ट हैं, जिनका वाहन मुर्गी है. ये लोग खप्परधारी देवी और शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की भी उपासना करते हैं.
महाभारत की एक अन्य कथा के अनुसार एक बार अर्जुन को, द्रौपदी से विवाह की एक शर्त के उल्लंघन के कारण इंद्रप्रस्थ से निष्कासित करके एक साल की तीर्थयात्रा पर भेजा जाता है। तीर्थाटन करते हुए अर्जुन उत्तर-पूर्व भारत में जाते है जहाँ उनकी मुलाक़ात एक विधवा नाग राजकुमारी उलूपी से होती है। दोनों को एक दूसरे से प्यार में पड़कर विवाह कर लेते है। कुछ समय पश्चात, उलूपी एक पुत्र को जन्म देती है जिसका नाम अरावन रखा जाता है। कुछ समय पश्चात अर्जुन उन दोनों को वही छोड़कर अपनी आगे की यात्रा पर निकल जाता है। अरावन नागलोक में अपनी माँ के साथ ही रहता है। युवा होने पर वह नागलोक छोड़कर अपने पिता के पास आता है। उस समय कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध चल रहा होता है, इसलिए अर्जुन उसे युद्ध करने के लिए रणभूमि में भेज देता है।
महाभारत युद्ध में एक समय ऐसा आता है जब पांडवों को अपनी जीत के लिए माँ काली के चरणो में नरबलि हेतु एक राजकुमार की जरुरत पड़ती है। जब कोई भी राजकुमार आगे नहीं आता है तो अरावन खुद को नरबलि हेतु प्रस्तुत करता है. अरावन ने बलि से पहले शर्त रखी कि वह स्वयं को बलि के लिए प्रस्तुत करने से पूर्व की रात एक सुंदर स्त्री से विवाह करेगा. इस शर्त के कारण बड़ा संकट उत्पन्न हो जाता है क्योकि कोई भी राजा, यह जानते हुए कि अगले दिन उसकी बेटी विधवा हो जायेगी, अरावन से अपनी बेटी की शादी के लिए तैयार नहीं होता है। जब कोई रास्ता नहीं बचता है तो भगवान श्रीकृष्ण स्वंय मोहिनी रूप में आकर अरावन से शादी करते है। अगले दिन अरावन स्वयं अपने हाथो से अपना शीश माँ काली के चरणो में अर्पित करता है। अरावन की मृत्यु के पश्चात श्रीकृष्ण उसी मोहिनी रूप में काफी देर तक उसकी मृत्यु का विलाप भी करते है। चूंकि श्रीकृष्ण पुरुष होते हुए स्त्री रूप में अरावन से शादी रचाते है इसलिए किन्नर, जो स्त्री रूप में पुरुष माने जाते है, भी अरावन से एक रात की शादी रचाते है और उन्हें अपना आराध्य देव मानते हैं. परन्तु इनअंतर्कथाओं का उल्लेख किसी धार्मिक अथवा पौराणिक ग्रन्थ में नहीं मिलता.
तमिलनाडु के किन्नर अरावन की पूजा करते हैं और स्वयं को तिरुनन्गाई कहलाना पसंद करते हैं, जिसका हिन्दी में अर्थ है- ईश्वर की पुत्रियाँ. वैसे तो अब तमिलनाडु के कई हिस्सों में भगवान अरावन के मंदिर बन चुके है पर इनका सबसे प्राचीन और मुख्य मंदिर विल्लुपुरम जिले के कूवगम गाँव में है जो कूतान्दवर मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में भगवान अरावन के शीश की पूजा की जाती है. इस गाँव में हर साल तमिल नववर्ष की पहली पूर्णिमा को 18 दिनों तक चलने वाले उत्सव की शुरुआत होती है। इस उत्सव में सम्पूर्ण भारत वर्ष और आस पास के देशों के किन्नर एकत्र होते है। पहले 16 दिन मधुर गीतों पर खूब नाच गाना होता है। किन्नर गोल घेरे बनाकर नाचते गाते है, बीच बीच में ताली बजाते है और हंसी-खुशी अरावन के विवाह की तैयारी करते हैं। 17 वे दिन पुरोहित दवारा विशेष पूजा होती है और अरावन देवता को नारियल चढाया जाता है । उसके बाद आरावन देवता के सामने मंदिर के पुराहित के दवारा किन्नरों के गले में मंगलसूत्र पहनाया जाता है, जिसे थाली कहा जाता है। फिर अरावन मंदिर में किन्नर अरावन की मूर्ति से शादी रचाते है । 18 वे दिन सारे कूवगम गांव में अरावन की प्रतिमा को घुमाया जाता है और फिर उसे तोड़ दिया जाता है । उसके बाद दुल्हन बने किन्नर अपना मंगलसूत्र तोड़ देते है साथ ही चेहरे पर किए सारे श्रृंगार को भी मिटा देते हैं और सफेद वस्त्र पहनकर विधवाओं की भांति जोर-जोर से छाती पीटते है और खूब रोते है, जिसे देखकर वहां मौजूद लोगों की आंखे भी नम हो जाती है और उसके बाद अरावन उत्सव खत्म हो जाता है। तमिल संगम साहित्य में इनके लिए ‘पेडि’ शब्द आया है. बंगाल की सखीबेकी समुदाय के किन्नर भगवन श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं, गुजरात तथा कर्णाटक के जोगप्पा समुदाय के किन्नर बहुचर देवी के उपासक हैं.
सम्पूर्ण हिजड़े समुदाय को सामाजिक संरचना की दृष्टि से सात समाज या घरानों में बांटा जा सकता है, हर घराने के मुखिया को नायक कहा जाता है. ये नायक ही अपने डेरे या आश्रम के लिए गुरु का चयन करते हैं हिजड़े जिनसे शादी करते हैं या कहें जिन्हेंे अपना पति मानते हैं उन्हें गिरिया कहते हैं. उनके नाम का करवाचौथ भी रखते हैं. सन 1871 तक हिजड़ों को समाज में स्वीकार्यता प्राप्त थी. महाभारत काल से लेकर मुगल काल तक इनका राजमहलों में विशिष्ट स्थान हुआ करता था और ये यौन अक्षम होने के कारण मध्य काल में हरमों की सुरक्षा हेतु सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे. किन्तु सन 1871 में तत्कालीन अँगरेज़ सरकार क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट या जरायमपेशा अपराध अधिनियम लेकर आई जिसमें इन पर कई प्रतिबन्ध लगाए गए और सन 1897 में इसमें संशोधन करते हुए इन्हें अपराधियों की कोटि में रखते हुए इनकी गतिविधियों पर नजर रखने हेतु एक अलग रजिस्टर तैयार करने को कहा गया. धारा 377 के अंतर्गत इनके कृत्यों को गैर जमानती अपराध घोषित किया गया. आज़ादी मिलने पर इन्हें जरायमपेशा जातियों की सूची से हटा दिया गया किन्तु धारा 377 की तलवार तब भी इनके ऊपर लटकती रही, नवम्बर 2009 में भारत सरकार ने इनकी पुरुषों एवं महिलाओं से अलग पहचान को स्वीकृति प्रदान की तथा निर्वाचन सूची एवं मतदाता पहचान पत्रों पर इनका ‘अन्य’ के तौर पर उल्लेख किया. 15 अप्रैल सन 2015 को उच्चतम न्यायालय ने तीसरे लिंग के रूप में इनके अधिकारों को मान्यता दी है और सभी आवेदनों में तीसरे लिंग का उल्लेख अनिवार्य कर दिया. इतना ही नहीं उच्चतम न्यायालय ने इन्हें बच्चा गोद लेने का अधिकार भी दिया और इन्हें चिकित्सा के माध्यम से पुरुष या स्त्री बनने का भी अधिकार दिया.
लेकिन आज भी समाज में इन्हें अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता. कोई इन्हें न तो अपने घर पर बुलाना पसंद करता है और न ही कोई इनसे सामाजिक सम्पर्क रखना चाहता है. उलटे जिस दिन किसी शुभ अवसर पर ये किसी परिवार में बधाई देने आते हैं, तो गृहस्वामी जल्द से जल्द इन्हें मुंहमांगी रकम देकर इनसे पिंड छुडाना चाहता है.
साहित्यिक दृष्टिकोण सी आज अनेक विमर्शों की चर्चा की जा रही है और समाज के अनेक उपेक्षित वर्गों पर साहित्य में चिन्तन हो रहा है किन्तु लिंग निरपेक्ष, समाज बहिष्कृत किन्नर समुदाय के विषय में कोई बड़ी चर्चा नहीं दिख रही है. साहित्य के अतीत पर नजर दौडाएं तो पाते हैं कि पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की कुछ कहानियों में जिन लौंडेबाजों का ज़िक्र आता है, वे यही किन्नर हैं. इसके बाद लम्बे समय तक साहित्य क्षेत्र में किन्नरों की दशा के बारे में चुप्पी छाई रहती है, जिसे सन 1999 नीरजा माधव अपने उपन्यास यमदीप से तोड़ती हैं, तत्पश्चात सन 2011 में प्रदीप सौरभ अपने उपन्यास तीसरी ताली की कथा का प्रारंभ दिल्ली की सिद्धार्थ हाउसिंग इन्क्लेव सोसाइटी से कर इसकी परिणति किन्नरों के तीर्थस्थल कूवगम में करते हैं और इस बहाने वे तथाकथित सभ्य समाज के साथ-साथ लेस्बियंस आदि की भी चर्चा करते हैं. यह पुस्तक ऐसे अवांछित प्रसंग उठाती है, जिन पर बात करना भी तथाकथित सभ्य समाज को गवारा नहीं है. दूसरा महत्त्वपूर्ण उपन्यास है महेंद्र भीष्म का’ किन्नर कथा’. सन 20१४ में प्रकाशित इस उपन्यास में लेखक ने एक राजवंश में पैदा हुई किन्नर लड़की सोना के संघर्ष का वर्णन किया है किन्तु यह उपन्यास फिल्मी मोड़ लेता हुआ अत्यधिक अविश्वसनीय ढंग से सुखद मोड़ लेकर समाप्त होता है. इस उपन्यास ने भी किन्नरों की समस्याओं, उनके अधिकारों की उपेक्षा तथा झूठी शान के नाम पर पारिवारिक जनों द्वारा सोना उर्फ़ चंदा तथा तारा से किये गए अन्याय को सामने लाती है. किन्नर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की अंग्रेजी में आत्मकथा ‘मी हिजड़ा मी लक्ष्मी’ शीर्षक से आई है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन के संघर्षों का खाका खींचा है. इसका हिन्दी अनुवाद ‘मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी’ नाम से हाल ही में प्रकाशित हुआ है. किन्नर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी के संघर्ष और जद्दोजहद के परिणामस्वरूप ही विगत अप्रैल 2015 में उच्चतम न्यायालय ने किन्नरों को तीसरे लिंग की मान्यता प्रदान की.
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य और समाज की मानसिकता में अभी किन्नर विमर्श बेहद अपरिपक्व तथा पूर्वाग्रहपूर्ण अवस्था में है, समाज की वैचारिकी अभी इन्हें स्वीकार करने में हिचक रही है फिर भी यह तो मानना ही होगा कि दिन प्रतिदिन खुल रहे और विकसित हो रहे समाज ने अब इन्हें भी थोड़ा सा ही सही स्पेस देना शुरू कर दिया है और शीघ्र ही हम वह दिन भी देखेंगे, जब ये भी समाज में सामान्य लोगों की भांति अपने मानवाधिकारों के साथ जीवन-यापन कर सकेंगे.

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