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इक्कीसवीं शताब्दी के हिंदी सिनेमा को किन मापदंडों पर खरा उतरना चाहिए ! अगर ये सवाल आपसे पूछा जाए तो मेरे ख्याल से इसका जवाब होगा – आज के सिनेमा में तेज़ी से बदलने वाला घटनाक्रम होना चाहिए, समकालीन सामाजिक ज़रूरतों के मुताबिक पटकथा होनी चाहिए, आज के युवा की सोच का प्रतिफलन होना चाहिए और एक यूथ आइकॉन हीरो या हीरोइन होनी चाहिए। सौभाग्य से नीरज पाण्डेय की फ़िल्म बेबी इन सभी मापदंडों पर खरी उतरती है। आतंकवाद से लड़ने के लिए बेबी नामक ख़ुफ़िया टीम का गठन और विश्वसनीय किन्तु अनपेक्षित ढंग से तेज़ी से घटनाओं का घटित होना तथा धर्मान्धता का सामना बेहद होशियारी से करते हुए अपने अंजाम तक पहुंचना इस फ़िल्म की यू एस पी हैं। राष्ट्रीयता से ओतप्रोत मुस्लिम फ़िरोज़ के नेतृत्व में हिन्दू अफसरों का जेहादी आतंकवादियों से टकराना इस फ़िल्म को अनावश्यक धार्मिक विवादों से बचाता है फिर भी पाकिस्तान में इस फ़िल्म पर पाबंदी लगाना समझ से परे है। फ़िल्म में आश्चर्यजनक ढंग से राजनैतिक नेतृत्व का इस ख़ुफ़िया टीम को खुली छूट देना विस्मयकारी भले प्रतीत होता हो किन्तु यह हमारे सिस्टम में हमारे विश्वास को पुख्ता करने का काम करता है। फ़िल्म में गानों की ज़रूरत नहीं थी। गानों से फ़िल्म की तेज़ गति पर एकाएक ब्रेक लग जाता है। अतः इसमें गाने न होते तो फ़िल्म की 159 मिनट की अवधि भी कम की जा सकती थी और इसे और तेज़ तथा सस्पेंस के मसाले वसे लैस किया जा सकता था। फ़िल्म के एक्शन दृश्य वीभत्स हैं किन्तु जुगुप्सा नहीं जगाते और वास्तविक प्रतीत होते हैं। फ़िल्म के कई दृश्य समकालीन घटनाओं एवम् आतंकवादी घटनाओं से जुड़ने से इसके प्रभाव में बढ़ोत्तरी ही हुई है। कुल मिलाकर यह फ़िल्म अक्षय कुमार के अभिनय इतिहास का मील का पत्थर है। फ़िल्म के अन्य कलाकारों को अपेक्षाकृत कम फुटेज मिला है लेकिन प्रत्येक कलाकार ने परदे पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्शाई है। कुल मिलाकर एक बेहद शानदार फ़िल्म जिसे न देखने का कोई कारण नज़र नहीं आता। मेरी ओर से इस फ़िल्म को 5 में से 4.5 स्टार।
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