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हा…हा….संस्कृत दुर्दशा देखी न जाई !

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हां…हा….संस्कृत दुर्दशा देखी न जाई!
संस्कृत के विद्वान संस्कृत भाषा की खूबियों की चर्चा करते नहीं अघाते। संस्कृत देववाणी है,यह विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है, कंप्यूटर के लिए यह सबसे मुफीद है वगैरह वगैरह। फिर भी संस्कृत के महापंडितों ने क्या कभी यह जानने का प्रयास किया कि संस्कृत भाषा धीरे-धीरे ख़त्म क्यों हो रही है? प्रायः कक्षा 8 से कक्षा 12 तक हिन्दी विषय में ही जबरन संस्कृत पढवाने और देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में संस्कृत की शिक्षा की सुविधा होने के बाद भी यदि संस्कृत मर रही है तो इसके कर्णधारों को विचार करना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है। शुरूआत में देवभाषा के नाम पर सिर्फ ब्राह्मणों को ही संस्कृत पढने का अधिकार दिए जाने से यह एक वर्ग विशेष की भाषा बनकर रह गयी, फिर इसे पौरोहित्य कर्म से जोड़ दिए जाने पर यह कर्मकांड की भाषा के दायरे में कैद हो गई। जहाँ तक संस्कृत में साहित्य सृजन की बात है तो आज भी संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण नाम कालिदास, वाल्मीकि, बाणभट्ट, माघ, श्रीहर्ष आदि लगभग 25-30 नामों में आकर सिमट जाता है। उन्हीं में संस्कृत का सार अध्ययन अध्यापन सीमित है। पंडित राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे एकाध विद्वानों को यदि छोड़ दिया जाए तो संस्कृत में मौलिक लेखन करने वालों के नाम आपको ढूँढने से नहीं मिलेंगे। ऐसे में संस्कृत भला कैसे सर्वाइव कर सकती है। इतिहास गवाह है कि जनमानस में स्वीकृति से ही कोई भाषा पुष्पित पल्लवित होती है और साहित्याश्रय उसे दीर्घजीवी बनाता है। दुर्भाग्य से आज संस्कृत के पास ये दोनों नहीं हैं।
अब आइये, संस्कृत अध्यापन की भी चर्चा कर ली जार। कुछ दिनों पहले बुंदेलखंड विश्वविद्यालय ने एक आदेश जारी किया था, जिसमें भारत सरकार की मंशा के अनुसार महाविद्यालयों में संस्कृत की शिक्षा संस्कृत माध्यम से देने को कहा गया था। कहने को सभी जगह तथाकथित रूप से संस्कृत के महाविद्वान कार्यरत हैं लेकिन आज तक एक भी महाविद्यालय ने इसका पालन नहीं किया है। और तो और पी-एच.डी. में भी हिन्दी में ही शोध प्रबंध लिखे जा रहे हैं। ऐसे में संस्कृत की दुर्दशा नहीं होगी तो क्या होगा। ऐसा ही हाल सभी विश्वविद्यालयों महाविद्यालयों का है और ऐसे ही लोग संस्कृत की प्रशंसा में जब कसीदे पढ़ते हैं तो उनकी विद्वता पर सिर्फ सिर धुना जा सकता है।

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