आज सुप्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद अलाहरक्खा खां का 95 वां जन्मदिवस है। अल्ला रक्खा ख़ाँ का जन्म 29 अप्रैल, 1919 को जम्मू के फगवाल नामक स्थान पर हुआ था। आरंभ से ही अल्ला रक्खा को तबले की ध्वनि आकर्षित करती थी। बारह वर्ष की अल्प आयु में एक बार अपने चाचा के घर गुरदासपुर गये। वहीं से तबला सीखने के लिए घर छोड़ कर भाग गये। इस से यह पता चलता है कि आपके मन में तबला सीखने की कितनी ललक थी।घर छोड़ कर वे उस समय के एक बहुत प्रसिद्ध कलाकार उस्ताद क़ादिर बक्श के पास चले गये। जैसे जौहरी हीरे की परख कर लेता है, वैसे ही उस्ताद क़ादिर बक्श भी आप के अंदर छुपे कलाकार को पहचान गये और आपको अपना शिष्य बना लिया। इस प्रकार आपकी तबले की तालीम विधिवत आरंभ हुई। इसी दौरान आपको गायकी सीखने का भी अवसर मिला। मियां क़ादिर बक्श के कहने पर आपको पटियाला घराने के मशहूर खयाल-गायक आशिक अली ख़ाँ ने रागदारी और आवाज़ लगाने के गुर सिखाये। ऐसा माना जाता था कि बिना गायकी सीखे संगीत की कोई भी शाखा पूर्ण नहीं होती।
वे लगातार उस्ताद क़ादिर बक्श के निर्देशन में रियाज़ करते रहे। गुरु के आशीर्वाद और अपनी मेहनत और लगन से वे शीघ्र ही एक कुशल तबला वादक बन गये। शीघ्र ही उनका नाम सारे भारत में लोकप्रिय हो गया। संगीत जगत में आपका तबला वादन एक चमत्कार से कम नहीं था। गुरु से आज्ञा पाकर वे तबले के प्रचार प्रसार में जुट गये। अपने वादन के चमत्कार से उन्होंने बडी़-बडी़ संगीत की महफिलों में श्रोताओं का मन मोह लिया। सधे हुए हाथों से जब वे तबले पर थाप मारते थे तो श्रोता भाव विभोर हो जाते थे। दायें और बायें दोनों हाथों का संतुलित प्रयोग आपके तबला वादन की विशेषता थी।
पंडित रविशंकर के साथ अल्ला रक्खा ख़ाँ का तबला और निखर कर सामने आया। इस श्रंखला में सन् 1967 ई. का मोन्टेनरि पोप फ़ेस्टिवल तथा सन् 1969 ई. का वुडस्टाक फ़ेस्टिवल बहुत लोकप्रिय हुए। इन प्रदर्शनों से उनकी ख्याति और अधिक फैलने लगी। 1960 ई. तक वे सितार सम्राट पंडित रविशंकर के मुख्य संगतकार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। वास्तव में उनका तबला वादन इतना आकर्षक था कि जिसके साथ भी वे संगत करते, उसकी कला में भी चार चाँद लग जाते थे। वे साथी कलाकार के मूड और शैली के अनुसार उसकी संगत करते थे। सिर्फ़ एक संगतकार के रूप में ही नहीं, अपितु एक स्वतंत्र तबला वादक के रूप में भी उन्होंने बहुत नाम कमाया। भारत में भी और विदेशों में भी उन्होंने तबले को एक स्वतंत्र वाद्य के रूप में प्रतिष्ठित किया।
उनके प्रमुख शिष्यों में उन के तीनों सुपुत्र – उस्ताद ज़ाकिर हुसैन खां, फ़ज़ल कुरैशी और तौफ़ीक कुरैशी के अतिरिक्त योगेश शम्सी, अनुराधा पाल, आदित्य कल्याणपुर, उदय रामदास भी इनके प्रमुख शिष्य रहे। उनके शिष्य प्यार से आपको अब्बा जी कहते थे।वे भी अपने शिष्यों से पुत्रवत प्यार करते थे। उनकी शिष्य-परंपरा उनके ही पद-चिह्नों पर चल कर उनके बाद उनके ही कार्य को आगे बढा़ रही है।संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान को स्वीकार करते हुए भारत सरकार द्वारा सन् 1977 ई. में आपको पद्मश्री के सम्मान से अलंकृत किया गया और सन् 1982 ई. में संगीत नाटक अकादमी ने भी जीवनपर्यंत संगीत सेवा के लिये उन्हें संगीत अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया।
3 फरवरी, सन् 2000 ई. को मुंबई में हृदय गति के रुक जाने से आपका निधन हो गया।उनके निधन से तबले का एक युग समाप्त हो गया। लेकिन उनके द्वारा रिकार्ड की गयी एलबमों और संगीत समारोहों में वे सदा जीवित रहेंगे। जब जब तबले के पटियाला घराने की चर्चा होगी, आपके नाम की चर्चा होगी। उस्ताद अल्लाह रक्खा खां की 95 वीं जयंती पर आज उनकी स्मृति को नमन करते हुए गूगल ने आज उन्हीं का डूडल अपने सर्च इंजन पर लगाया है, जो इस महान कलाकार की वैश्विक स्वीकृति तथा प्रतिष्ठा का परिचायक है। इस महान कलाकार को नमन।
आज सुप्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद अलाहरक्खा खां का 95 वां जन्मदिवस है। अल्ला रक्खा ख़ाँ का जन्म 29 अप्रैल, 1919 को जम्मू के फगवाल नामक स्थान पर हुआ था। आरंभ से ही अल्ला रक्खा को तबले की ध्वनि आकर्षित करती थी। बारह वर्ष की अल्प आयु में एक बार अपने चाचा के घर गुरदासपुर गये। वहीं से तबला सीखने के लिए घर छोड़ कर भाग गये। इस से यह पता चलता है कि आपके मन में तबला सीखने की कितनी ललक थी।घर छोड़ कर वे उस समय के एक बहुत प्रसिद्ध कलाकार उस्ताद क़ादिर बक्श के पास चले गये। जैसे जौहरी हीरे की परख कर लेता है, वैसे ही उस्ताद क़ादिर बक्श भी आप के अंदर छुपे कलाकार को पहचान गये और आपको अपना शिष्य बना लिया। इस प्रकार आपकी तबले की तालीम विधिवत आरंभ हुई। इसी दौरान आपको गायकी सीखने का भी अवसर मिला। मियां क़ादिर बक्श के कहने पर आपको पटियाला घराने के मशहूर खयाल-गायक आशिक अली ख़ाँ ने रागदारी और आवाज़ लगाने के गुर सिखाये। ऐसा माना जाता था कि बिना गायकी सीखे संगीत की कोई भी शाखा पूर्ण नहीं होती।
वे लगातार उस्ताद क़ादिर बक्श के निर्देशन में रियाज़ करते रहे। गुरु के आशीर्वाद और अपनी मेहनत और लगन से वे शीघ्र ही एक कुशल तबला वादक बन गये। शीघ्र ही उनका नाम सारे भारत में लोकप्रिय हो गया। संगीत जगत में आपका तबला वादन एक चमत्कार से कम नहीं था। गुरु से आज्ञा पाकर वे तबले के प्रचार प्रसार में जुट गये। अपने वादन के चमत्कार से उन्होंने बडी़-बडी़ संगीत की महफिलों में श्रोताओं का मन मोह लिया। सधे हुए हाथों से जब वे तबले पर थाप मारते थे तो श्रोता भाव विभोर हो जाते थे। दायें और बायें दोनों हाथों का संतुलित प्रयोग आपके तबला वादन की विशेषता थी।
पंडित रविशंकर के साथ अल्ला रक्खा ख़ाँ का तबला और निखर कर सामने आया। इस श्रंखला में सन् 1967 ई. का मोन्टेनरि पोप फ़ेस्टिवल तथा सन् 1969 ई. का वुडस्टाक फ़ेस्टिवल बहुत लोकप्रिय हुए। इन प्रदर्शनों से उनकी ख्याति और अधिक फैलने लगी। 1960 ई. तक वे सितार सम्राट पंडित रविशंकर के मुख्य संगतकार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। वास्तव में उनका तबला वादन इतना आकर्षक था कि जिसके साथ भी वे संगत करते, उसकी कला में भी चार चाँद लग जाते थे। वे साथी कलाकार के मूड और शैली के अनुसार उसकी संगत करते थे। सिर्फ़ एक संगतकार के रूप में ही नहीं, अपितु एक स्वतंत्र तबला वादक के रूप में भी उन्होंने बहुत नाम कमाया। भारत में भी और विदेशों में भी उन्होंने तबले को एक स्वतंत्र वाद्य के रूप में प्रतिष्ठित किया।
उनके प्रमुख शिष्यों में उन के तीनों सुपुत्र – उस्ताद ज़ाकिर हुसैन खां, फ़ज़ल कुरैशी और तौफ़ीक कुरैशी के अतिरिक्त योगेश शम्सी, अनुराधा पाल, आदित्य कल्याणपुर, उदय रामदास भी इनके प्रमुख शिष्य रहे। उनके शिष्य प्यार से आपको अब्बा जी कहते थे।वे भी अपने शिष्यों से पुत्रवत प्यार करते थे। उनकी शिष्य-परंपरा उनके ही पद-चिह्नों पर चल कर उनके बाद उनके ही कार्य को आगे बढा़ रही है।संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान को स्वीकार करते हुए भारत सरकार द्वारा सन् 1977 ई. में आपको पद्मश्री के सम्मान से अलंकृत किया गया और सन् 1982 ई. में संगीत नाटक अकादमी ने भी जीवनपर्यंत संगीत सेवा के लिये उन्हें संगीत अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया।
3 फरवरी, सन् 2000 ई. को मुंबई में हृदय गति के रुक जाने से आपका निधन हो गया।उनके निधन से तबले का एक युग समाप्त हो गया। लेकिन उनके द्वारा रिकार्ड की गयी एलबमों और संगीत समारोहों में वे सदा जीवित रहेंगे। जब जब तबले के पटियाला घराने की चर्चा होगी, आपके नाम की चर्चा होगी। उस्ताद अल्लाह रक्खा खां की 95 वीं जयंती पर आज उनकी स्मृति को नमन करते हुए गूगल ने आज उन्हीं का डूडल अपने सर्च इंजन पर लगाया है, जो इस महान कलाकार की वैश्विक स्वीकृति तथा प्रतिष्ठा का परिचायक है। इस महान कलाकार को नमन।
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