तेलंगाना मुद्दे पर केंद्र सरकार जिस प्रकार की जल्दबाज़ी दिखा रही है, वह अनावश्यक है और राजनैतिक हाराकीरी भी है। जबरन तेलंगाना बिल लाकर सरकार सिर्फ और सिर्फ चुनाव से पहले तेलंगाना के लोगों को यह दिखाना चाहती है कि हम तो तेलंगाना राज्य बनाने को तैयार थे लेकिन विपक्ष के असहयोग के कारण ऐसा नहीं कर सके। अगर सरकार इस मुद्दे पर वाकई गम्भीर होती तो न तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री अलग अलग सुर अलाप रहे होते और न ही समूचा आंध्र आंदोलित होता। बेहतर तरीका यह था कि दोनों पक्षों को बैठाकर एक सर्वमान्य हल ढूँढने के बाद ही यह बिल सदन में रक्खा जाता लेकिन पौने पांच साल सोने के बाद अगर इस बिल के लिए सरकार इतनी हड़बड़ी दिखा रही है तो यह उसकी इच्छाशक्ति नहीं बल्कि उसकी अवसरवादिता का परिचायक है।
संसद में जिस प्रकार सीमांध्र के मंत्रियों और सांसदों ने हंगामा किया और सांसद वेणुगोपाल ने काली मिर्च स्प्रे छिड़ककर समूची संसद को एक प्रकार से बीमार बनाकर स्थगित करने पर बाध्य किया उससे ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी में अनुशासन नाम की चीज़ ख़त्म हो चुकी है और वह अपने सांसदों से संसदीय आचरण करवा पाने में भी नाकाम होती जा रही है। देश की सबसे पुरानी पार्टी में घर कर गयी यह बीमारी लोकतंत्र के लिहाज से खतरनाक है और इससे हमारे लोकतंत्र के स्तम्भ पर गहरा आघात पहुंचा है। जहाँ तक तेलंगाना का सवाल है तो सरकार को चाहिए कि वह अपनी जिद छोड़कर अविलम्ब सीमांध्र, तेलंगाना और रॉयलसीमाँ के जनप्रतिनिधियों की बैठक बुलाए और उनसे गहन विचार मंथन करने के बाद वहाँ के लोगों की आकाँक्षाओं को ध्यान में रखते हुए इस सम्बन्ध में अपना बिल संसद में पेश करे। ऐसा न करके सत्तारूढ़ दल सीमांध्र, तेलंगाना और रॉयलसीमाँ की जनता के मन में परस्पर अविश्वास की दरारें तो चौड़ा कर ही रही है, साथ ही वहाँ कि जनता यह मानने लगी है कि सरकार सिर्फ उसे बेवकूफ बना रही है। यह धारणा किसी भी राजनैतिक दल के लिए उचित नहीं कही जा सकती। जब आम चुनाव सर पर हों तब देश के एक भाग के लोगों के मन में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ ऐसी मान्यता होना उस राजनैतिक दल के लिए भी अच्छा नहीं है। अपने हो दल के सत्रह सांसदों को निष्कासित करने भर से इस समस्या का हल निकलने वाला नहीं है। बेहतर यह हो कि हैदराबाद समेत सभी मुद्दों को आपसी विश्वास से हल करते हुए सर्वमान्य हल निकलने की कोशिश की जाए वर्ना हम एक और भयंकर समस्या को आमंत्रित करते हुए देखने को अभिशप्त रहेंगे। जहां तक संसद में हुई दुखद घटना का प्रश्न हाई तोसरकार को संसद की मर्यादा अक्षुण्ण रखने तथा सांसदों के व्यवहार को संयमित रखने हेतु ऐसे प्रावधान करने ही होंगे, जिनसे ऐसी लोकतंत्र ओअर धब्बा लगाने वाली घटनाएं दोबारा न घटित होने पाएं। यदि चौदहवीं लोकसभा यह महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकी तो सबसे कम कार्य करने वाली इस लोकसभा के लिए इतिहास में दर्ज करने योग्य एक तमगा तो होगा।
तेलंगाना मुद्दे पर केंद्र सरकार जिस प्रकार की जल्दबाज़ी दिखा रही है, वह अनावश्यक है और राजनैतिक हाराकीरी भी है। जबरन तेलंगाना बिल लाकर सरकार सिर्फ और सिर्फ चुनाव से पहले तेलंगाना के लोगों को यह दिखाना चाहती है कि हम तो तेलंगाना राज्य बनाने को तैयार थे लेकिन विपक्ष के असहयोग के कारण ऐसा नहीं कर सके। अगर सरकार इस मुद्दे पर वाकई गम्भीर होती तो न तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री अलग अलग सुर अलाप रहे होते और न ही समूचा आंध्र आंदोलित होता। बेहतर तरीका यह था कि दोनों पक्षों को बैठाकर एक सर्वमान्य हल ढूँढने के बाद ही यह बिल सदन में रक्खा जाता लेकिन पौने पांच साल सोने के बाद अगर इस बिल के लिए सरकार इतनी हड़बड़ी दिखा रही है तो यह उसकी इच्छाशक्ति नहीं बल्कि उसकी अवसरवादिता का परिचायक है।
संसद में जिस प्रकार सीमांध्र के मंत्रियों और सांसदों ने हंगामा किया और सांसद वेणुगोपाल ने काली मिर्च स्प्रे छिड़ककर समूची संसद को एक प्रकार से बीमार बनाकर स्थगित करने पर बाध्य किया उससे ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी में अनुशासन नाम की चीज़ ख़त्म हो चुकी है और वह अपने सांसदों से संसदीय आचरण करवा पाने में भी नाकाम होती जा रही है। देश की सबसे पुरानी पार्टी में घर कर गयी यह बीमारी लोकतंत्र के लिहाज से खतरनाक है और इससे हमारे लोकतंत्र के स्तम्भ पर गहरा आघात पहुंचा है। जहाँ तक तेलंगाना का सवाल है तो सरकार को चाहिए कि वह अपनी जिद छोड़कर अविलम्ब सीमांध्र, तेलंगाना और रॉयलसीमाँ के जनप्रतिनिधियों की बैठक बुलाए और उनसे गहन विचार मंथन करने के बाद वहाँ के लोगों की आकाँक्षाओं को ध्यान में रखते हुए इस सम्बन्ध में अपना बिल संसद में पेश करे। ऐसा न करके सत्तारूढ़ दल सीमांध्र, तेलंगाना और रॉयलसीमाँ की जनता के मन में परस्पर अविश्वास की दरारें तो चौड़ा कर ही रही है, साथ ही वहाँ कि जनता यह मानने लगी है कि सरकार सिर्फ उसे बेवकूफ बना रही है। यह धारणा किसी भी राजनैतिक दल के लिए उचित नहीं कही जा सकती। जब आम चुनाव सर पर हों तब देश के एक भाग के लोगों के मन में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ ऐसी मान्यता होना उस राजनैतिक दल के लिए भी अच्छा नहीं है। अपने हो दल के सत्रह सांसदों को निष्कासित करने भर से इस समस्या का हल निकलने वाला नहीं है। बेहतर यह हो कि हैदराबाद समेत सभी मुद्दों को आपसी विश्वास से हल करते हुए सर्वमान्य हल निकलने की कोशिश की जाए वर्ना हम एक और भयंकर समस्या को आमंत्रित करते हुए देखने को अभिशप्त रहेंगे। जहां तक संसद में हुई दुखद घटना का प्रश्न हाई तोसरकार को संसद की मर्यादा अक्षुण्ण रखने तथा सांसदों के व्यवहार को संयमित रखने हेतु ऐसे प्रावधान करने ही होंगे, जिनसे ऐसी लोकतंत्र ओअर धब्बा लगाने वाली घटनाएं दोबारा न घटित होने पाएं। यदि चौदहवीं लोकसभा यह महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकी तो सबसे कम कार्य करने वाली इस लोकसभा के लिए इतिहास में दर्ज करने योग्य एक तमगा तो होगा।
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