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सन 1984 के सिक्ख विरोधी दंगे वास्तव में भारत में आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी संगठित एवं सुनियोजित साम्प्रदायिक हिंसा थी, जिसमें पूरे देश के असंख्य निर्दोष सिक्ख मारे गए थे। इन दंगों ने भारत के बहुलतावादी समाज और सद्भावना की सुन्दर परम्परा को गहरा आघात पहुँचाया था। इसमें शक नहीं कि इन दंगों में तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी के नेता भी शामिल थे क्योंकि उस समय वे अपनी नेता श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके ही सिक्ख अंगरक्षकों द्वारा की गयी हत्या से उद्वेलित थे और इसका बदला वे समूची सिक्ख कौम से लेने को उतारू हो गए थे लेकिन वे अपने प्रेरणास्रोत एवं विश्व में शांति के अग्रदूत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कि उस चेतावनी को भी भुला बैठे जिसमें उन्होंने कहा था कि आँख के बदले आँख का कानून मान लेने से समूची मानवता ही कानी हो जाएगी। दुःखद तथ्य यह है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को घटित हुए 30 वर्ष बीत जाने के बाद भी इसके दोषियों को अभी तक जेल की सलाखों के पीछे नहीं भेजा जा सका है और कुछ जाने पहचाने दोषी चेहरे न जाने कितनी बार चुनाव जीतकर सत्ता की मलाई चखते रहे हैं। उस समय के हमारे प्रधानमंत्री के गैर जिम्मेदाराना बयान ने भी हिंसा की आग में घी डालने का काम किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि कोई बड़ा पेड़ गिरने पर धरती हिलती ही है। देश की समूची व्यवस्था की यह बहुत बड़ी कमजोरी औइर नाकामी की एक बानगी है। यदि इस घटना के तीस बरस बाद राहुल गांधी जी यह स्वीकार करते हैं कि इस दुखद घटना में उनकी पार्टी के कई नेता शामिल थे, जिनके नाम जगजाहिर हैं तो उन्हें यह भी कहना चाहिए कि वे ऐसे लोगों को न तो टिकट देंगे और न ही उन्हें संरक्षण देंगे बल्कि वे यह कोशिश करेंगे कि ऐसे मानवता के हत्यारे जल्द से जल्द कानून से सजा पाएंगे।
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