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हिंदी की पहली और अनूठी फ़िल्म आलमआरा की कहानी

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मित्रों, आज बात करते हैं देश की पहली सवाक फ़िल्म आलमआरा की. हिन्दी फ़िल्मों में चरित्र अभिनेता के तौर पर अपनी अलग जगह बनाने वाले वरिष्ठ अभिनेता ए. के. हंगल ने एक समाचार एजेंसी से कहा था, “आज की तुलना में उस फ़िल्म की आवाज़ और एडिटिंग बहुत ख़राब थी लेकिन फिर भी उस ज़माने में हम लोग इस फ़िल्म को देख कर दंग रह गए थे।”


आलम आरा का प्रदर्शन 14 मार्च 1931 को हुआ। इसका निर्देशन किया था अर्देशिर ईरानी ने, फ़िल्म के नायक की भूमिका निभाई मास्टर विट्ठल ने और नायिका थीं ज़ुबैदा।आलम आरा का हिंदी अर्थ है विश्व की रौशनी। फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर की भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। राजकुमार और बंजारिन की प्रेम कहानी पर आधारित यह फ़िल्म एक पारसी नाटक से प्रेरित थी। आलम आरा में काम करने के लिए मास्टर विट्ठल ने शारदा स्टूडियोज के साथ अपना क़रार भी तोड़ दिया था। स्टूडियो ने बाद में अभिनेता को अदालत में भी घसीटा और जिस शख़्स ने मास्टर विट्ठल की पैरोकारी की वो कोई और नहीं खुद मुहम्मद अली जिन्ना थे।वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने इस फ़िल्म में फ़क़ीर की भूमिका की थी। फ़िल्म में एक राजा और उसकी दो झगड़ालू पत्नियां दिलबहार और नवबहार है। दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फ़कीर भविष्यवाणी करता है कि राजा के उत्तराधिकारी को नवबहार जन्म देगी। ग़ुस्साई दिलबहार बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख मंत्री आदिल से प्यार की गुहार करती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। ग़ुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलम आरा को देशनिकाला दे देती है। आलम आरा को बंजारे पालते हैं। युवा होने पर आलम आरा महल में वापस लौटती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। अंत में दिलबहार को उसके किए की सज़ा मिलती है, राजकुमार और आलमआरा की शादी होती है और आदिल की रिहाई।साल 2008 में सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय ने यह बात मानी कि इस फिल्म से संबंधित कोई भी प्रिंट नेशनल आर्काइव में मौजूद नहीं है। पुणे नेशनल फिल्म आर्काइव में रखा आखिरी प्रिंट 2003 में एक आग हादसे की भेंट चढ़ गया। इस बारे में पूरे देश में खोज की गई लेकिन अंत में नाकामयाबी ही हाथ लगी।
फ़िल्म आलम आरा के निर्माता और निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने इस फ़िल्म के बनाने में आई कठिनाईयों का उल्लेख करते हुए एक बार कहा था कि उस ज़माने में कोई साउंड-प्रूफ़ स्टेज नहीं था। उन्होंने कहा हमारा स्टूडियो एक रेलवे लाईन के पास था इस लिए अधिकतर शूटिंग रात में करनी पड़ी थी, जब रेल की आवा-जाही कम होती थी। तब उनके पास एक ही रिकार्डिंग उपकरण ‘तनर रिकॉर्डिंग सिस्टम’ (तनर सिंगल सिस्टम) था जिससे इस फ़िल्म की रिकार्डिंग की गई थी। उनके पास कोई बूम माइक भी नहीं था, इसलिए माइक्रोफ़ोन को कैमरे के रेंज से अलग अजीब-अजीब जगह छुपा कर रखा गया था। इन सारी कठिनाईयों के बीच बनी आलम आरा ने आने वाले ज़माने के लिए एक नए युग का द्वार खोल दिया और फिर भारतीय सिनेमा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
अर्देशिर ईरानी के साझीदार अब्दुल अली यूसुफ़ अली ने फ़िल्म के प्रीमियर की चर्चा करते हुए लिखा था- ‘ज़रा अंदाजा लगाइए, हमें कितनी हैरत हुई होगी यह देखकर कि फ़िल्म प्रदर्शित होने के दिन सुबह सवेरे से ही मैजेस्टिक सिनेमा के पास बेशुमार भीड़ जुटना शुरू हो गई थी और हालात यहाँ तक पहुँचे कि हमें ख़ुद को भी थिएटर में दाख़िल होने के लिए काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी। उस ज़माने के दर्शक क़तार में लगना नहीं जानते थे और धक्कम-धक्का करती बेलगाम भीड़ ने टिकट खिड़की पर सही मायनों में धावा बोल दिया था। हर कोई चाह रहा था कि जिस ज़बान को वे समझते हैं उसमें बोलने वाली फ़िल्म देखने का टिकट किसी तरह हथिया लिया जाए। चारों तरफ यातायात ठप हो गया था और भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी थी। बाद में नानू भाई वकील ने 1956 और 1973 में, दो बार इस फ़िल्म का पुनर्निर्माण किया।

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