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हिंदी अदब की शान थे डॉ राही मासूम रज़ा

http://puneetbisaria.wordpress.com/
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आज देश की गंगा जमनी तहजीब के अमर स्तम्भ डॉ राही मासूम रज़ा की 11 वीं पुण्यतिथि है। 15 मार्च सन 1992 को इस बेहतरीन शख्सियत ने हमें अलविदा कह दिया। 1 सितम्बर सन 1925 को गाजीपुर के गंगौली में जन्मे रज़ा ने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उर्दू पढ़ाई और साहित्य के साथ फिल्मों एवं टेलीविज़न के लिए भी सर्जनात्मक लेखन किया। नीम का पेड़,आधा गाँव,  टोपी शुक्ला,  सीन 75 तथा हिम्मत जौनपुरी नामक उनके उपन्यास हिंदी साहित्य की विशिष्ट विभूति हैं। नीम का पेड़ में वे साम्प्रदायिकता तथा स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् के ग्रामीण मुसलमानों की समस्याओं  दो चार हुए हैं तो हिम्मत जौनपुरी जीने का हक़ मांगने वाले एक शख्स की व्यथा कथा है।  फिल्म और चाकचिक्य का खोखलापन भी इसमें दिखा है। आधा गाँव वास्तव में उनके पैत्रिक गाँव गंगौली की कथा है। टोपी शुक्ला उपन्यास वास्तव में एक व्यक्ति चित्र है जबकि सीन 75 उपन्यास एक फिल्मनामा है। इनके अतिरिक्त कटरा आरज़ू बी,  मुहब्बत के सिवा, दिल एक सादा कागज़, ओस की बूंद आदि उनके उल्लेखनीय उपन्यास रहे हैं।  उन्होंने लेखन की शुरूआत उर्दू नज़्मों और  ग़ज़लों से की लेकिन थोड़े समय बाद ही उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू कर दिया। उन्होंने रक्से मैं, गरीबे शहर तथा मैं एक फेरी वाला शीर्षक से कविता संग्रह निकाले तथा वीर अब्दुल हमीद की शहादत पर क्रान्ति कथा नाम से एक महाकाव्य लिखा। फिल्म प्राविधि पर उन्होंने हिंदी में सिनेमा और संस्कृति नाम से आलोचनात्मक पुस्तक लिखी। निबन्ध एवं  विधा में भी उन्होंने अपने हाथ आजमाए और लगता है बेकार गए हम एवं खुद हाफिज कहने का मोह नामक निबन्ध संग्रह साहित्य को दिए।किसी समय के सर्वाधिक लोकप्रिय महाभारत टी वी सीरियल में उन्होंने संवाद एवं पटकथा लेखन का काम किया। उनके द्वारा इस धारावाहिक में प्रयुक्त पिताश्री, माताश्री आदि संबोधन लीगों की जुबान पर आज भी चढ़े हुए हैं।  उनके उपन्यास नीम का पेड़ के टी वी रूपान्तर को दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था, इस धारावाहिक को भी अपार लोकप्रियता मिली थी पेश है डॉ राही मासूम राजा के उपन्यास सीन 75 का एक अंश  ———

खिडकी की सलाखों के उधर, ग्रिल के उस पार, नारियलों के झुण्ड तक उतरकर चाँद रुक गया था. और अली अमजद खिड़की की सलाखों से अपना चेहरा लगाये, नारियल के झुण्ड में उतरे हुए चाँद को देख रहा था. यह पता नहीं कि अली अमजद कमरे के अंदर कैद था या चाँद कमरे के बाहर.
शायद दोनों ही गिरफ्तार थे!! एक कमरे के अंदर दूसरा कमरे के बाहर.चाँद में जिंदगी नहीं, और इधर कुछ दिनों से अली अमजद भी अपने आप को जिन्दो में गिनना छोड़ दिया था और सायद इसीलिए इधर कुछ दिनों से उसे चाँद अच्छा लगने लगा था.
कमरे में गयी रात का सन्नाटा था. गयी रात का सन्नाटा कमरे के बाहर भी था…..

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