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हिन्दी सिनेमा और लोकजीवन

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सिनेमा अपनी सम्पूर्णता में जितना अधिक जनोन्मुखी माध्यम है, उतना कोई अन्य माध्यम नहीं है, कारण यह कि यह जनभावनाओं तक सीधे अपनी पैठ बना लेता है और मजे की बात यह कि अभिनयकर्त्ता दूर होकर भी दर्षक के बेहद करीब होते हैं, बषर्ते उनका अभिनय सहज और प्रभावषाली हो। दर्षक ऐसे पात्रों को अपने बीच पाता है और उनके द्वारा अभिनीत भावनाओं से एकाकार होकर तदनुरूप आचरण करने लगता है। हमारे पास ऐसे अनेक सकारात्मक एवं नकारात्मक उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे पता चलता है कि एक फिल्म विषेष ने एक व्यक्ति के जीवन को बदलकर रख दिया। महात्मा गाँधी के जीवन पर ‘सत्य हरिष्चन्द्र’ फिल्म का जो असर हुआ था, वह उनके सम्पूर्ण जीवन काल में उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करता रहा था। उन्होंने इस फिल्म से ही प्रभावित होकर सत्य बोलने का संकल्प लिया था, जिसे उन्होंने आजीवन अपने आचरण में उतारा। ‘दो आँखें बारह हाथ’ तथा ‘जिस देष में गंगा बहती है’ फिल्में देखकर कई अपराधियों का हृदय परिवर्तन हो गया था और उन्होंने अपराध से तौबा कर ली थी। ऐसे ही कई फिल्मों के नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिलते हैं कि एक अपराधी ने अमुक फिल्म में दर्षाए गए अपराध से प्रेरित होकर अपराध किया। फिल्मों की पहुँच तथा लोकप्रियता भी रेडियो के बाद सर्वाधिक है। ऐसे में फिल्मों के जनसाधारण पर असर की कल्पना सहज ही की जा सकती है।
लोकाचार या लोकजीवन भारत जैसे ग्राम्य आधारित समाज का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसकी पैठ समाज की अन्तर्षिराओं में रक्त की भाँति है। इस दृष्टि से हिन्दी सिनेमा के सौ साल के इतिहास को यदि खंगाला जाए तो पाएंगे कि अपने गौरवषाली इतिहास में हिन्दी सिनेमा ने कुछ बेहतरीन तथा अविस्मरणीय फिल्में दी हैं। अन्य भाषाओं के सिनेमा की भाँति ही हिन्दी सिनेमा ने भी अपनी शुरूआत धार्मिक फिल्मों से की लेकिन शीघ्र ही उसने यह महसूस कर लिया कि केवल पारसी नाटकों के अनुकरण पर बनने वाली धार्मिक फिल्मों के बल पर सिनेमा को दीर्घजीवी नहीं बनाया जा सकता और नए विषयों तथा जनता से जुड़े सन्देषों-सरोकारों को फिल्मों के माध्यम से प्रस्तुत करना होगा, तभी आम जनता इससे मनोरंजन प्राप्त कर सकेगी।
हिन्दी में लोकजीवन से जुड़ी पहली फिल्म बनाने का श्रेय निर्माता हिमांषु रॉय तथा निर्देषक फ्रेंज ऑस्टिन को दिया जाना चाहिए, जो सन 1936 में अछूत कन्या फिल्म लेकर आए। इस फिल्म में दलित रेलवे चौकीदार दुखिया की पुत्री कस्तूरी (देविका रानी) का ब्राह्मण मोहन के पुत्र प्रताप (अषोक कुमार)से प्रेम को दर्षाया गया है। यह फिल्म इस दृष्टि से विषेष उल्लेखनीय है क्योंकि इस फिल्म में वर्तमान में प्रचलित ‘ऑनर किलिंग’ का प्रारंभिक फिल्मी संस्करण देखा जा सकता है। इस फिल्म में एक प्रगतिषील विचार यह भी है कि शुरूआती शत्रुता के बाद ब्राह्मण मोहन अपने पुत्र का विवाह दलित दुखिया की कन्या से करने को तैयार हो जाता है लेकिन अफवाहों एवं कटुता के वातावरण को सृजित कर समाज इस प्रयास को निष्फल कर देता है। इसी साल यही टीम जीवन नैया फिल्म लेकर आयी, जिसमें तवायफ की बेटी के जीवन के संघर्ष को दिखाया गया है।
सन 1937 में मषहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की कहानी पर आधारित किसान कन्या फिल्म मोती गिडवानी के निर्देषन में आई। यह फिल्म टिपिकल मंटो की फिल्म थी, जिसकी कहानी निर्धन शोषित किसान रामू तथा शोषक जमींदार ग़नी के इर्द-गिर्द घूमती है। इस फिल्म में रामू पर ग़नी की हत्या का आरोप भी लगता है और उसे दर-दर की ठोकरें खाने को विवष होना पड़ता है। इसके दो साल बाद सन 1939 में सोहराब मोदी अपनी बहुचर्चित फ़िल्म पुकार लेकर आए, जिसकी पटकथा कमाल अमरोही ने लिखी थी। इस फिल्म की विषेषता यह थी कि इसमें जहांगीर की न्यायप्रियता को दिखाया गया था और दर्षाया गया था कि पत्नी नूरजहाँ द्वारा धोखे से एक धोबी की हत्या हो जाने पर धोबिन के फरियाद करने पर वह ‘खून का बदला खून’ न्याय के सिद्धांत के आधार पर खुद को मौत की सजा दे देता है परन्तु धोबिन द्वारा उसे माफ कर दिया जाता है।
सन 1939 में आई फिल्म रोटी में निर्देषक ज्ञान मुखर्जी एक औद्योगिक सभ्यता तथा आदिवासी संस्कृति की तुलना अत्यंत प्रभावषाली तरीके से करते हुए यह निष्कर्ष निकालते हैं कि न तो आदिवासी संस्कृति शहर में आकर सुखी हो सकती है और न ही एक तबाह उद्योगपति आदिवासी सभ्यता में खुषियाँ हासिल कर सकता है। दोनों की मुक्ति अपने-अपने खोलों के भीतर ही है। सन 1940 में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण किन्तु वर्तमान समय में अचर्चित फिल्म आयी, जिसका नाम था अछूत, यह फिल्म महात्मा गाँधी के अछूतोद्धार कार्यक्रम से प्रभावित होकर बनाई गई थी। निर्देषक चन्दूलाल शाह ने इस फिल्म में लक्ष्मी नामक एक दलित स्त्री के जीवन की दारुण गाथा का वर्णन किया था, जिसके पिता ब्राह्मणों द्वारा कुएँ से पानी न पीने देने पर ईसाई धर्म अपना लेते हैं, जबकि उसकी माँ हिन्दू बनी रहती है। बाद में लक्ष्मी तथा उसकी सहेली सविता दोनों ही एक धनाढ्य व्यक्ति से प्रेम करने लगती हैं, परन्तु सविता के पिता अपनी बेटी के स्वार्थ में पड़कर लक्ष्मी को उसके गाँव वापस भेज देते हैं। गाँव आकर लक्ष्मी गाँव के दलित लड़के रामू से प्रेम करने लगती है और वे दोनों मिलकर गाँव में व्याप्त जातिवादी ऊँच-नीच तथा शोषण के विरूद्ध संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष में रामू मारा जाता है और लक्ष्मी को जेल जाना पड़ता है लेकिन लक्ष्मी अपनी आवाज़ बुलंद रखती है और अंत में वह गाँव के कुँए को ब्राह्मणों के आधिपत्य से मुक्त कराकर दलितों को भी उसका उपयोग करने देने के अपने लक्ष्य में सफल होती है। यह फिल्म सन 1940 की तीसरी सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म थी लेकिन फिर भी सिने इतिहास में इसे वह मुकाम नहीं मिला, जिसकी यह स्वाभाविक हकदार थी।
सन 1941 में अबला, चरणों की दासी, सर्कस की सुंदरी जैसी स्त्रियों की दुर्दषा को मुखरित करने वाली फिल्में आई, तो सन 1943 में ज्ञान मुखर्जी किस्मत नामक एक सुपरहिट फिल्म लेकर आए, जिसे हिन्दी सिने इतिहास की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में स्थान दिया जाता है। इस फिल्म में अविवाहित लड़की के गर्भवती हो जाने से उपजी सामाजिक परिस्थितियों का अंकन हुआ था। सन 1944 में रतन फिल्म से नौषाद का फिल्म जगत में पदार्पण हुआ। वे अपने साथ ढोलक जैसे ग्राम्यांचल में प्रचलित भारतीय संगीत वाद्यों को फिल्मों में लेकर आए। सन 1946 में दो महत्त्वपूर्ण फिल्में आईं। पहली थी, धरती के लाल, जो कृश्न चंदर की कथा तथा बिजॉय चक्रवर्ती के नाटक पर आधारित थी और पटकथा लेखन एवं निर्देषन ख्वाजा अहमद अब्बास का था। यह फिल्म बंगाल के दुर्भिक्ष पर आधारित थी तथा इप्टा के कलाकारों द्वारा नाटक खेलकर अकाल पीड़ितों हेतु जिस प्रकार चंदा जुटाया गया था, उसका वास्तविक चित्रण इस फिल्म में हुआ था। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस फिल्म को ‘किरकिरे यथार्थ से सराबोर ड्रामा’ कहा था। इस साल की दूसरी महत्त्वपूर्ण फिल्म थी, नीचा नगर जिसकी पटकथा ख्वाजा अहमद अब्बास और हयातुल्लाह अंसारी ने लिखी थी और निर्देषन चेतन आनंद ने किया था। इस फिल्म में धनी तथा निर्धन वर्ग के बीच उपस्थित खाईं का चित्रण किया गया था। चेतन आनंद की इस पहली फिल्म को सन 1946 में पहले केन्स फिल्म अवार्ड में ‘डी ओर’ अवार्ड (सर्वश्रेष्ठ फिल्म) से सम्मानित किया गया था।
इसके बाद के कुछ साल आज़ादी की मस्ती से सराबोर थे, इसलिए सामाजिक समस्याओं एवं लोकजीवन की दुस्सहता पर कोई उल्लेखनीय फिल्म इस दौरान नहीं दिखाई देती। इस परंपरा का बड़ा विस्फोट फिल्म आवारा से होता है। यह फिल्म इस धारणा को झुठलाती है कि अपराधी तथा अच्छे लोग जन्मजात होते हैं और इन्हें अच्छा या बुरा परिस्थितियाँ नहीं वरन इनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि बनाती है। टाइम पत्रिका ने इसे विष्व की 20 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में स्थान दिया तथा सन 1964 में आवारे नाम से तुर्की भाषा में इसका रीमेक बनाया गया।
सन 1953 में बिमल रॉय दो बीघा जमीन लेकर आए, जो वास्तव में कृषक जीवन की कारुणिक गाथा है। हिन्दी में गोदान के बाद यदि किसानों की व्यथा कहीं अपने पूर्ण भयावह स्वरूप में आयी है, तो वह इस फिल्म में देखने को मिलेगी। 65 रूपए के साहूकार के कर्ज को चुकाने के लिए एक किसान को किन अमानुषिक पस्थिितियों से होकर गुजरना पड़ता है, यह देखकर एक साधारण व्यक्ति व्यथित हुए बिना नहीं रहता। बलराज साहनी और निरूपा राय के बेहतरीन अभिनय ने इस फिल्म को और अधिक ऊँचाई दी। इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार, फिल्मफेयर अवार्ड, चेक रिपब्लिक का कार्लोवी इण्टरनेषनल अवार्ड, केन्स इण्टरनेषनल प्राइज़ आदि से सम्मानित किया गया। सन 1954 में आई फिल्म बूटपॉलिष ने समाज में अनाथ बच्चों की नारकीय ज़िन्दगी को परदे पर उकेरने में सफलता पाई। सन 1955 में रित्विक घटक के निर्देषन में आदिवासियों का जीवन óोत फिल्म आई, जिसमें आदिवासी अभावों का चित्रण हुआ था। सन 1955 में आई फिल्म श्री चार सौ बीस के गीत रमइया वस्ता वइया के इन शब्दों को संगीतकार शंकर जयकिषन ने मुंबई की एक निर्माणाधीन इमारत में काम कर रहे तेलुगू मजदूरों के मुख से सुना था, जिसे बाद में उनकी टीम ने संगीत की धुन में पिरोकर यह अमर गीत बना दिया। उल्लेखनीय है कि तेलुगू में रमइया वस्ता वइया का अर्थ है- हे राम! तुुम कब आओगे? लेकिन फिल्म के गीत में यह अर्थ कहीं ध्वनित नहीं है और यह निरर्थक शब्द समुच्चय मात्र बनकर रह गया है।
सन 1956 में आई ढोला मारू फिल्म में राजस्थान में प्रचलित नरवर के युवराज ढोला और पूगल की राजकुमारी मारू की लोककथा का वर्णन है। अनेक विपत्तियों का सामना करने के बाद जब ढोला और मारू का मिलन होता है और वे घर आ रहे होते हैं, तभी मार्ग में मारू को साँप काट लेता है, जिससे व्यथित होकर ढोला आग में कूदकर पुरूष सती होने का प्रयास करता है, किन्तु कुछ योगी और योगिनियाँ उसके प्राण बचा लेते हैं और मारू को भी जीवन दे देते हैं। इसके बाद भी वे उमर सुमर के षडयंत्रों से बचते हुए उड़ने वाले ऊँट पर बैठकर नरवर आने में सफल होते है। इसी साल राज कपूर की बहुचर्चित फिल्म जागते रहो आई, जिसमें शहर के लोगों की संवेदनहीनता के कारुणिक दृष्य हैं।
सन 1957 में आई मदर इण्डिया भारतीय सिने इतिहास का वह नगीना है, जिस पर आज भी हम गर्व करते हैं। निर्देषक महबूब खाँ इस फिल्म को आज़ादी की दसवीं वर्षगाँठ पर 15 अगस्त सन 1957 को रिलीज़ करना चाहते थे परन्तु यह 25 अक्तूबर को प्रदर्षित हो सकी। यह फिल्म वास्तव में दो बीघा जमीन का विस्तार कही जा सकती है। इस फिल्म को भारत की सर्वाधिक प्रषंसित फिल्म होने का गौरव हासिल हुआ है। इस फिल्म में 26 वर्षीया नर्गिस ने युवा से लेकर वृद्धा तक के किरदार को जिस सहजता से निभाया था, वह आज भी अतुलनीय है। साहूकार के शोषण तले कराहते किसान परिवार की वेदना को जिस संवेदनषीलता से उन्होंने परदे पर चित्रित किया, उससे किसान की दमित आवाज़ जन-जन तक पहुँची और सरकार का ध्यान भी किसानों पर गया, जिसकी परिणति हरित क्रांति के रूप में हुई तथा बाद में सन 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से किसानों को साहूकारों के चंगुल से काफी हद तक छुटकारा मिल सका। इण्डिया टाइम्स ने मरने से पहले ज़रूर देखे जाने लायक विष्व की 1001 फिल्मों में हिन्दी से सिर्फ मदर इण्डिया तथा दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे को रखा है। बाद में आई अनेक फिल्मों जैसे गंगा जमना, दीवार, करन अर्जुन, त्रिषूल आदि पर इस फिल्म का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इस फिल्म में लोकधुनों पर आधारित गीत थे, जिन्हें आज भी लोग गुनगुनाते हैं। घूंघट नहीं खोलूंगी सैयां तोरे आगे, पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली, दुख भरे दिन बीते रे भैया जैसे गीत आज भी आम जनता की जबान पर हैं। यूं तो महबूब खाँ ने अनेक यादगार फिल्में दी हैं लेकिन एकमात्र इसी फिल्म से वे विष्व सिने इतिहास में अमर हो गए हैं। सन 1957 में ही व्ही. शांताराम की दो आँखें बारह हाथ फिल्म आई। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने कुख्यात अपराधियों को सुधारने का एक अभिनव तरीका पेष किया। इसी थीम पर सन 1960 में राजकपूर ने जिस देष में गंगा बहती है बनाई। बाद में कमोबेष इसी रास्ते पर चलकर विनोबा भावे, विष्वनाथ प्रताप सिंह तथा अन्य कई समाजसेवियों एवं राजनेताओं ने अनेक डाकुओं का आत्मसमर्पण कराया और किरन बेदी ने तिहाड़ जेल में कैदियों को सुधारने के लिए व्ही शांताराम के मानवतावादी मनोविज्ञान के कई फार्मूले सफलतापूर्वक आजमाए।
सन 1959 में बिमल रॉय सुजाता लेकर आए। इस फिल्म में समाज में व्याप्त जाति प्रथा की जंजीरों को दर्षाया गया था तथा भारतीय समाज में प्रचलित चाण्डालिका के मिथक की निस्सारता भी फिल्म में बखूबी दिखाई गई है। फिल्म का नायक अधीर एक ब्राह्मण परिवार का युवक है, जो दलित युवती सुजाता से प्रेम करने लगता है। अनेक आरोहों-अवरोहों के बाद यह प्रेम सफलता प्राप्त करता है। सन 1960 में आयी फिल्म मधुमती के गीत चढ़ गयो पापी बिछुआ तथा जुल्मी संग आँख लड़ी में लोकजीवन की छेड़छाड़ की मधुर मस्ती है। चढ़ गयो पापी बिछुआ गीत में उत्तर प्रदेष, बिहार एवं ओडिषा के लोकगीतो तथा असम के बिहू लोकनृत्य के सुन्दर सम्मिश्रण का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। सन 1960 में ही के. आसिफ के निर्देषन में मुग़ल-ए-आजम आती है। यूँ तो यह फिल्म शहजादा सलीम और अनारकली के प्रेम पर आधारित थी परन्तु इसके गीतों पर शास्त्रीय संगीत तथा लोक गीतों की स्पष्ट छाप महसूस की जा सकती है। प्यार किया तो डरना क्या गीत पर पूर्वी उत्तर प्रदेष के मषहूर लोकगीत प्रेम किया क्या चोरी करी है का असर महसूस किया जा सकता है। इस लोकगीत को गज़ल में परिवर्तित कर इस फिल्म में इस्तेमाल किया गया, जो अत्यंत सफल रहा। मोहे पनघट पे नंदलाल गीत पर ब्रज मेंप्रचलित लोकगीतों का प्रभाव है तो तेरी महफिल में किस्मत आजमाकर हम भी देखेंगे कव्वाली पर सूफी कव्वालियों का प्रभाव है। सन 1961 में नितिन बोस के निर्देषन तथा दिलीप कुमार के डबल रोल एवं वैजयंतीमाला के अभिनय से सुसज्जित फिल्म गंगा जमना आई। यह फिल्म ज़मींदार के अत्याचारों से विवष होकर एक भाई गंगा के डाकू बनने तथा दूसरे भाई के पुलिस अफसर बनने की कहानी है। फिल्म का अंत पुलिस अफसर जमना द्वारा अपने डाकू भाई गंगा को गोली मार देने से होता है। इस फिल्म में दिखाया गया है कि गाँवों के भोले-भले ग्रामीण किस प्रकार ज़मींदारों के क्रूर अत्याचारों से कराहने को विवष हैं। इस फिल्म के गीतों पर उत्तर प्रदेष और बिहार की भाषाओं विषेषकर अवधी, भोजपुरी तथा ब्रज बोलियों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। नैना लड़ि जइहैं तो भइया, ना मानूँ ना मानूँ ना मानूँ रे, ढूँढो ढूँढो रे साजना, दो हंसों का जोड़ा, तोरा मन बड़ा पापी जैसे लोकगीतों से प्रभावित गीत आज भी पहले जितने ही लोकप्रिय हैं। बाद में आई फिल्मों राम और श्याम, त्रिषूल, अमर अकबर एंथोनी, दीवार, परवरिष, राम लखन, करन अर्जुन, सीता और गीता, चालबाज़, किषन कन्हैया आदि पर गंगा जमना के दो भाइयों की कहानी का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
बिमल मित्र के उपन्यास ‘साहिब बीबी गोलाम’ पर गुरूदत्त सन 1962 में फिल्म ‘साहब बीबी और गुलाम’ लेकर आए। इस फिल्म में ब्रिटिष राज में बंगाली धनाढ्य वर्ग के पतनषील समाज की कहानी बुनी गई थी। संगीतकार हेमंत कुमार तथा गीतकार शकील बदायँूनी ने इस फिल्म में लोकगीतों पर आधारित पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे, न जाओ सइयाँ छुड़ा के बइयाँ जैसे गीतों एवं धुनों के माध्यम से प्रणय एवं मनुहार का जो दृष्यांकन बुना, उसे मीना कुमारी, गुरूदत्त एवं रहमान के सहज स्वाभाविक अभिनय ने नई ऊँचाइयाँ दीं। जसवंत झावेरी के निर्देषन में 1 जनवरी, सन 1963 को बुंदेलखण्ड के अमर भाइयों आल्हा और ऊदल के गौरवषाली इतिहास को दर्षाने वाली फिल्म आल्हा ऊदल रिलीज हुई थी। निरूपा राय, जयराज, जीवन और सप्रू द्वारा अभिनीत इस फिल्म में झिलमिल बिंदिया, चमचम चुनरिया, कैसी प्रीत लगाई और सूनी अटरिया बिखरी है बिंदिया जैसे गीत थे, जिनमें आंचलिक बोली का अभाव था। यह फिल्म लोकजीवन से अधिक इतिहास के करीब थी। इसी साल त्रिलोक जेटली प्रेमचंद के अमर उपन्यास गोदान पर इसी नाम से फिल्म लेकर आए। सिनेमाई गोदान में होरी की भूमिका राजकुमार ने तथा धनिया की भूमिका कामिनी कौषल ने निभार्इ्र थी। यह फिल्म फलॉप रही क्योंकि राजकुमार की छवि होरी और कामिनी कौषल की छवि धनिया के किरदार के अनुरूप नहीं थी और निर्देषक भी इस अमर कृति की गरिमा के अनुरूप फिल्म गढ़ पाने में नाकाम रहे लेकिन फिर भी पण्डित रविषंकर के संगीत में अंजान के गीतों ने ग्रामीण जीवन की सहजता की बुनावट को अवष्य पेेष कर पाने में सफलता पाई। पिपरा के पतवा सरिस डोले मनवा, होरी खेलत नंदलाल बिरज में, चली आज गोरी पिया की नगरिया, जनम लियो ललना के चाँद मोरे अंगना उतर आयो रे, जाने काहे जिया मोरा डोले रे जैसे गीत इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। सन 1963 में ही डाकुओं की पृष्ठभूमि पर मुझे जीने दो फिल्म आयी। इस फिल्म के गीतों नदी नारे न जाओ स्याम पैंया परूं, मोको पीहर में मत छेड़, मांग में भर ले रंग सखी री में ग्रामीण जीवन की निष्छलता है तो वहाँ के लोकगीतों के संस्कार भी साहिर लुधियानवी की कलम और जयदेव के साज से एकाकार हो गए हैं। इसी साल आई फिल्म पारसमणि के गीतो उइ माँ उइ माँ ये क्या हो गया में भी पूर्वांचल के लोकगीतों की छाप देखी जा सकती है। फिल्म तेरे घर के सामने के गीत दिल का भंवर करे पुकार में एस डी बर्मन ने बंगाल की लोकधुनों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया था।
सन 1964 में प्रदर्षित हुई केदार शर्मा निर्देषित फिल्म चित्रलेखा भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर आधारित थी, जिसमें अषोक कुमार, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार ने क्रमषः योगी कुमारगिरि, चित्रलेखा और बीजगुप्त की भूमिकाएँ निभाई थीं लेकिन यह फिल्म मौर्य इतिहास के एक स्वर्णिम संसार को परदे पर सफलतापूर्वक नहीं उतार सकी। इससे पहले सन 1941 में भी वे यह फिल्म बना चुके थे लेकिन दोनों फिल्मों का हश्र एक सा रहा। यद्यपि सन 1941 की यह दूसरी सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म बनी लेकिन समीक्षकों ने उस समय भी इस फिल्म को अधिक सराहना नहीं दी। इससे भी बुरी बात यह हुई कि दोनों बार फिल्म बनाते समय भगवती बाबू से अनुमति लेने की आवष्यकता ही महसूस नहीं की गई। पहली बार तो उनका नाम कहानी लेखक के रूप में दिया भी गया किन्तु दूसरी बार फिल्म बनाते हुए यह षिष्टाचार भी नहीं निभाया गया और भगवती बाबू को टिकट खरीदकर यह फिल्म देखनी पड़ी। एक लेखक के प्रति संवेदनहीनता की यह दुखद गाथा है। स्वयं भगवती बाबू इस बात से बेहद दुखी थे कि फिल्म बनाकर उनके उपन्यास की आत्मा की हत्या की गई।
सन 1965 में आई फिल्म कष्मीर की कली में कष्मीरी संस्कृति को सफलतापूर्वक उकेरा गया था ये मेरे हाथ मे तेरा हाथ मेरी जाँ बल्ले बल्ले गीत में कष्मीर की मस्ती देखी जा सकती है तथा इसी वर्ष आई फिल्म जब जब फूल खिले के अफू खुदाया, ऐ था गुल और एक थी बुलबुल गीत कष्मीरियत को अत्यंत खूबसूरती से पेष कर पाने में सफल हुए हैं। आरजू फिल्म में भी कष्मीर की झलक है। हालांकि सन 1951 में कष्मीर नामक एक फिल्म आई थी, लेकिन इस फिल्म में कष्मीरियत कम होने के कारण दर्षकों ने इसे अस्वीकार कर दिया था। 1965 में प्रदर्षित हिमालय की गोद में फिल्म में भी पर्वतीय संस्कृति दिखाने के छिटपुट प्रयास दिखते हैं। साल 1965 की एक बड़ी उपलब्धि है फिल्म गाइड। आर. के नारायण के अंग्रेज़ी उपन्यास गाइड पर विजय आनंद निर्देषित यह फिल्म आज भी सिने इतिहास का मील का पत्थर मानी जाती है। पिया तोसे नैना लागे रे, सैंया बेइमान, अल्ला मेघ दे जैसे गीत ब्रज की मिठास से ओतप्रोत हैं।
1966 की फिल्म मेरा साया के गीत झुमका गिरा रे ने झुमके को फैषन में ला दिया था। यह गीत मराठी लावणी पर आधारित था और उस दौर के युवक यह गीत गाते हुए मस्त हो जाया करते थे। इसी साल फणीष्वरनाथ रेणु के आंचलिक उपन्यास तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम पा आधारित शैलेन्द्र की महत्त्वाकांक्षी फिल्म तीसरी कसम आई। यह फिल्म बिहार के अररिया जिले के ग्रामीण हीरामन और नौटंकी वाली हीराबाई की कथा कहती है। इस फिल्म में ग्रामीणों की निष्छलता, सरलता और सहजता मुखरित हुई है। इस फिल्म के गीतों चलत मुसाफिर मोह लियो रे, मारे गए गुलफाम, पान खाए सैंया हमारो, सजनवा बैरी हो गए हमार ने भोजपुरी लोक छटा को दर्षाने में उत्प्रेरक का काम किया। यह फिल्म उस समय फलॉप भले हो गई हो लेकिन राज कपूर और वहीदा रहमान के सहज स्वाभाविक अभिनय से सजी इस फिल्म ने क्लासिक फिल्मों की सूची में अपना नाम जुड़वाया।
सन 1967 की फिल्म बहारों के सपने के गीतों आजा पिया तोहे प्यार दूँ, चुनरी सँभाल गोरी उड़ी चली जाए में आप ब्रज लोकगीतों के प्रभाव का सहज अनुभव कर सकते हैं। इस साल का सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फिल्म मिलन के गीत सावन का महीना पवन करे सोर में भी ग्राम्य जीवन की नैसर्गिक निष्छलता है। अगले साल सन 1968 में आई किषोर कुमार की पड़ोसन के इक चतुर नार तथा मेरे भोले बलम गीतों में लोकांचल की छाप स्पष्ट है, सरस्वती चंद्र के मैं तो भूल चली बाबुल का देस 1969 की फिल्म अनोखी रात मे ओह रे ताल मिले नदी के जल में, किस्मत फिल्म का कजरा मोहब्बत वाला जैसे अमर गीत हिन्दी सिनेमा में लोक गीतों के प्रभाव के स्पष्ट गवाह हैं। सन 1970 की राज कपूर की महत्त्वाकांक्षी परन्तु सुपर फलॉप फिल्म मेरा नाम जोकर के अंग लग जा बलमा, ए भाई ज़रा देख के चलो, तीतर के दा आगे तीतर, सावन भादों का कान में झुमका चाल में ठुमका,गोपी का एक पड़ोसन पीछे पड़ गई जंगली जिसका नाम जैसे गानों में गाँव महकता है। सन 1970 में ही पंजाब में प्रचलित सूफी संत वारिस शाह की सन 1766 में लिखी प्रेम कहानी हीर राँझा पर इसी नाम से चेतन आनंद फिल्म लेकर आए। इस फिल्म के सभी संवाद कैफी आजमी ने कविता में लिखे थे। यह फिल्म पंजाब की संस्कृति को बेहद खूबसूरत तरीके से परदे पर उतारने में सफल हुई। तेरे कूचे में तेरा दीवाना, डोली चढ़के, नाचे अंग वे गीतों में पंजाब की मस्ती सर्वत्र दिखई देती है।
वास्तव में सन 1969 में अमिताभ बच्चन के आगमन के बाद से हिन्दी सिनेमा में ग्राम्य प्रभाव धीरे-धीरे क्षीण होने लगता है और उसका स्थान एक एंग्री यंग मैन और उसके मुकाबिल एक खलनायक ले लेता है। अब गाँव दिखता भी है तो वह नेपथ्य में चला जाता है और व्यवस्था से लड़ने वाला नायक लाइमलाइट में आ जाता है। वास्तव में अमिताभ युग हिन्दी सिनेमा में लोकांचल का अंधकार युग है।
सन 1971 में हृषिकेष मुखर्जी के निर्देषन में आयी फिल्म गुड्डी के गीत बोले रे पपीहरा, राज खोसला निर्देषित मेरा गाँव मेरा देष में आया आया अटरिया पे कोई चोर, व्ही. शांताराम निर्देषित फिल्म जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली में कजरा लगा के बिंदिया सजा के गीतों में लोकसंगीत की छटा है। मेरा गाँव मेरा देष फिल्म में यद्यपि गाँव है लेकिन उसमें गाँव पृष्ठभूमि में है, डाकू तथा उनका बदला मुख्य सरोकार है। साल 1972 पाकीज़ा फिल्म के लिए याद किया जाएगा। मुस्लिम परिवारों की पृष्ठभूमि पर आधारित इस फिल्म में ठाड़े रहियो ओ बांके यार, इन्ही लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मोरा, मोरा साजन सौतन घर जाए, कौन गली गयो श्याम, गीतों में लखनवी तहज़ीब के साथ ही लोक परम्परा के रंग भी गहराई तक मिश्रित हैं। तवायफों का जीवन और उनका दर्द इस फिल्म में इस कुषलता के साथ पिरोया गया है कि दर्षक उनकी पीड़ा के साथ अपनापन महसूस करने लगते हैं।
सन 1973 में राज कपूर की फिल्म बॉबी प्रदर्षित हुई। इस फिल्म में गोवा के एंग्लो इण्डियन मछुआरों की बिंदास ज़िन्दगी के रंग हैं। न मांगू सोना चांदी, झूठ बोले कौआ काटे जैसे गीतों में मछुआरा संस्कृति के साथ-साथ उत्तर भारत के संगीत का सुन्दर सम्मिश्रण है। इसी साल का अमिताभ नूतन अभिनीत फिल्म सौदागर में खजूर से गुड़ बनाने वालों की ज़िन्दगी पर आधारित थी लेकिन गलत पात्र चयन तथा कमजोर पटकथा के कारण यह फिल्म असफल रही। अगले साल सन 1974 में श्याम बेनेगल निर्देषित फिल्म अंकुर आयी। यह फिल्म आंध्र के दलित बरतन बनाने वाले सूर्या और लक्ष्मी के जीवन की दारूण गाथा है। जमींदार के अत्याचारों के बीच भी वे कैसे अपने जीवन के अंकुर को पुष्पित पल्लवित करने का प्रयास करते हैं, यह बेहद खूबसूरती से फेम दर फेम उकेरा गया है। ष्याम बेनेगल ऐसा सफलतापूर्वक इसलिए भी क सके केंकि वे स्वयं आंध्र के मूल निवासी हैं और दलितों पर होने वाले अत्याचारों के वे प्रत्यक्षदर्षी अवष्य रहे होंगे, तभी वे ऐसे दृष्यों को पूरे भयावह स्वरूप में फिल्मा सके हैं। साल की दूसरी महत्त्वपूर्ण फिल्म एम एस सत्थू की गरम हवा थी, जो इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित थी। इस विवादास्पद फिल्म में आगरा के जूते बनाने वाले मुसलमानों के जीवन का अंकन किया गया था। इसमें आज़ादी मिलने के बाद मुसलमानों की भारत या पाकिस्तान में रहने की दुविधा का अच्छा चित्रण है।
साल 1975 यूँ तो शोले फिल्म के गाँव रामगढ़ के लिए याद किया जाएगा लेकिन यदि इस फिल्म को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि वास्तव में इस फिल्म से गाँव नदारद है। यदि गाँव है तो बस गब्बर सिंह और ठाकुर के बीच वह कहीं कराह रहा है। इस फिल्म के गीतों में भी गाँव अनुपस्थित है। महबूबा महबूबा गीत है जो अरबी संस्कृति और धुनों पर आधारित है। इस फिल्म के बाद से हिन्दी सिनेमा से गाँव का लोप होना शुरू हो जाता है। सन 1978 की चंद्रा बारोट की अमिताभ अभिनीत फिल्म डॉन के गीत खइके पान बनारस वाला में अवष्य बनारसी मस्ती है लेकिन इसके अतिरिक्त ग्रामीण संवेदना और लोक जुड़ाव के पुट आपको कहीं नहीं मिलेंगे। सन 2011 में शाहरूख इस फिल्म की रीमेक में बड़े ही भोंडे तरीके से यह गीत गाते हैं, जिसमें न तो बनारस है और न ही मस्ती। सन 1979 में यष चोपड़ा कोयला मजदूरों के जीवन को दर्षाने वाली फिल्म काला पत्थर लेकर आए, जिसमें सलीम जावेद की टिपिकल अमिताभ टाइप स्टोरी थी। इसलिए यह फिल्म भी कोयला मजदूरों की संवेदनाओं से न जुड़ पाने के कारण सफल न हो सकी। लेकिन यह फिल्म इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि इसके माध्यम से कोयला श्रमिकों के जीवन को रूपहले परदे के माध्यम से आम लोगों तक पहुँचाया गया।
सन 1980 में गोविन्द निहलानी की फिल्म आक्रोष आयी। इस फिल्म की पटकथा मषहूर मराठी नाटककार विजय तेंदुलकर ने लिखी थी। वास्तव में यह फिल्म एक लोमहर्षक किन्तु सत्य घटना पर आधारित थी। यह फिल्म भारतीय न्याय व्यवस्था तथा शोषकों की क्रूरता का एक शोषित द्वारा लिया गया प्रतिकार है। कहानी लहनिया भीकू नामक एक ऐसे किसान की है, जो ज़मींदार के अत्याचारों से त्रस्त है। लेकिन कमाल यह है कि घोर अमानवीय अत्याचार झेलते हुए भी वह मुँह से एक शब्द भी नहीं निकालता है। उसकी पत्नी के साथ ये शोषक गैंगरेप करते हैं और भारतीय व्यवस्था का कमाल तो देखिए कि लहनिया को जेल हो जाती है। उसकी पत्नी लक्ष्मी शर्म से आत्महत्या कर लेती है। फिर भी वह खामोष रहता है लेकिन जब वह पुलिस अभिरक्षा में अपनी पत्नी का अंतिम संस्कार कर रहा होता है तो गैंगरेप करने वाले वही गुण्डे बेखौफ होकर उसकी बहिन को ललचाई नज़रों से देखते हैं। अब वह समीप पड़ी हुई कुल्हाड़ी उठा लेता है और उन गुण्डों को उस कुल्हाड़ी से काट डालता है। ओम पुरी लहनिया भीकू तथा स्मिता पाटिल लहनिया की पत्नी की भूमिका में किसान की विवषता को पूर्ण स्वाभाविकता के साथ परदे पर उडे़ल देते हैं।
सन 1981 में आई फिल्म लावारिस में हरिवंषराय बच्चन ने अवधी लोकगीतों से प्रेरणा लेकर मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है गीत तैयार किया था, जो अपने कॉमिक सेंस के कारण लोकप्रिय हुआ। इसी साल यष चोपड़ा के निर्देषन में आई फिल्म सिलसिला बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं दिखा सकी किन्तु इसके गीतों को आज भी लोगगुनगुनाते हैं क्योंकि इन गीतों में लोकांचल जीवंत है। रंग बरसे भीगे चुनर वाली तथा सर से सरके सरके चुनरिया गीतों में पूर्वी उत्तर प्रदेष के लोकगीतों के रंग हैं। इसी साल आई फिल्म क्रांति के गीत चना ज़ोर गरम पर भी ऐसा ही प्रभाव है। सन 1982 में राजश्री प्रोडक्षंस के बैनर तले आई फिल्म नदिया के पार में पूर्वांचल के एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार की कहानी को बुना गया था। इस फिल्म की कहानी केषव प्रसाद मिश्रा के उपन्यास कोहबर की रात पर आधारित थी। इस फिल्म में चंदन और गुंजा की प्रेम कहानी के साथ-साथ पूर्वी उत्तर प्रदेष की लोकपरंपराओं एवं संस्कारों का सुन्दर संयोजन है। इस फिल्मके सभी गीतों को सुनकर ऐसा लगता है, मानो अवधी तथा भोजपुरी के लोकगीतों को सुन रहे हों। कौन दिसा में लेके चला रे, सांची कहे तोरे आवन से हमरे, जब तक पूरे न हों फेरे सात, गुंजा रे गीतों में पूर्वाचल के लोकगीत साँस ले रहे हैं। बाद में सन 1994 में सूरज बड़जात्या ने थोड़े फेरबदल के साथ इसका रीमेक हम आपके हैं कौन बनाया। यह फिल्म भी सुपरहिट हुई।
सन 1984 की उल्लेखनीय फिल्म पार है। गौतम घोष द्वारा निर्देषित यह फिल्म बिहार के गाँवों में जारी ज़मींदारों के अमानवीय अत्याचारों का जीवंत दस्तावेज है। बेहद मार्मिकता एवं संवेदनषीलता से ओतप्रोत इस फिल्म में अत्याचार, प्रतिरोध और विवषता की दषाओं का चित्रण देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सन 1985 की फिल्म मिर्च मसाला में केतन मेहता सन 1941 के आसपास के औपनिवेषिक भारत में सूबेदारों के निर्दोष ग्रामीणों पर किए गए जुल्मो सितम के दर्द को बयान करते हैं। इसी साल आई जे. पी दत्ता की फिल्म गुलामी में भारत पाकिस्तान बॉर्डर पर रहने वाले राजपूत ठाकुरों की दुष्वारियाँ बयान की गई हैं। इस फिल्म के गीत ज़िहाल-ए-मिस्किन मुकन बरंजिष बेहाल -ए--हिजरा बेचारा दिल है में फारसी के शब्दों को हिन्दी से गुलज़ार ने बेहद खूबसूरत अंदाज़ में मिश्रित किया है। जिहाल का अर्थ है ध्यान देना, मिस्किन का अर्थ है गरीब, मुकन बरंजिष का अर्थ है से दुष्मनी न करना, बेहाल-ए-हिजरा का अर्थ है ताजा अलगाव। इसका हिन्दी में अर्थ है ये दिल जुदाई के गमों से अभी भी ताज़ा है, इसकी बेचारगी को निष्पक्षता से महसूस करो। इस गीत का पहला मुखड़ा हिन्दवी के पहले कवि अमीर खुसरो की मुकरी से लिया गया है। अमीर खुसरो ने फारसी में लिखा था- ज़िहाल-ए-मिस्किन मुकन तगाफुल दुराए नैना बताए बतियाँ किताब-ए-हिजरा नदारूमे जाँ, न लेहो काहे लगाए छतियाँ। इसी साल आई प्रकाष झा की फिल्म दामुल हिन्दी कथाकार शैवाल की कहानी पर आधारित थी। इस फिल्म में ग्रामीण बिहार की जातिवादी राजनीति और दलितों पर सवर्णों के अत्याचार तथा बिहार के मजदूरों के काम की तलाष में पंजाब पलायन करने के कारणों की पड़ताल करती है। 1985 की एक अन्य फिल्म सोहनी महिवाल में पंजाब के प्रेमियों सोहनी तथा महिवाल की लोक प्रचलित प्रेमकथा है। इस फिल्म के गीतों बोल दो मीठे बोल सोणिए, सोहणी चिनाब दी, रब तुम्हें माफ करे में पंजाब की मिट्टी की सोंधी खुषबू है।
सन 1988 में मीरा नायर मुंबई के फुटपाथों पर जीवन-यापन करने वाले बच्चों की ज़िन्दगी को फिल्मी कैनवास पर उकेरती हैं। इस फिल्म में वेष्यावृत्ति है, नषीली दवा के कारोबारियों का जाल है और अपराध की अंधेरी दुनिया है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस फिल्म को दुनिया में अब तक बनीं 1001 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची में स्थान दिया था और इसे कई देषी विदेषी पुरस्कार मिले थे। इस साल की दूसरी महत्त्वपूर्ण फिल्म थी कयामत से कयामत तक, जिसमें काहे सताए काहे को रूलाए गीत पर अवधी लोकगीतों का प्रभाव है।
सन 1989 की सबसे सुपरहिट फिल्म थी मैने प्यार किया। राजश्री प्रोडक्षंस के बैनर तले सूरज बड़जात्या के निर्देषन में बनी इस फिल्म के एकमात्र पूर्णतः भारतीय गीत कहे तोसे सजना में पूर्वाचल के लोकगीतों की छाप है। षेष गीतों में आते जाते हँसते गाते गीत में सन 1984 की हॉलीवुड मूवी द वूमन इन रेड के गीत आई जस्ट कॉल टु से आई लव यू की धुन थी, आया मौसम दोस्ती का गीत इटैलियन नाटक टार्जन बॉय की धुन पर आधारित था, मेरे रंग में रंगने वाली गीत की धुनें यूरोप नामक स्वीडिष बैंड के गीत द फाइनल काउंटडाउन से ली गई थीं। इसी साल आई यष चोपड़ा निर्देषित फिल्म चाँदनी के गीतों पर भी भारतीय लोकसंस्कृति की स्पष्ट छाप है। पण्डित षिवकुमार शर्मा और हरिप्रसाद चौरसिया ने मिलकर षिवहरि नाम से इस फिल्म में संगीत दिया था। मैं ससुराल नहीं जाउंगी डोली रख दो कहारों से मिलते जुलते गीत उत्तर भारत के विवाहों में आज भी गाए जाते हैं। तेरे मेरे होठों पे, लगी आ सावन की, मेहबूबा शहरों में एक शहर सुना जैसे गीत लोक संस्कृति की मिठास से भरे हुए हैं और आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं। इसी साल आई के. विष्वनाथ की तेलुगू फिल्म स्वाति मुत्यम की हिन्दी रीमेक फिल्म ईष्वर में विधवा विवाह जैसे विषय को तो उठाया ही गया था, यह फिल्म अपने सुमधुर गीतों के लिए भी चर्चित हुई थी। राम जी ने धनुष तोड़ा, कौषल्या मैं तेरी, बज उठा सांसों में, आगे सुख तो पीछे दुख है जैसे भारतीय संस्कृत के उत्प्रेरक गीत काफी लोकप्रिय हुए थे।
सन 1990 की के. सी. बोकाड़िया की फिल्म आज का अर्जुन के गीतों चली आना तू पान की दुकान पे, छोड़ बाबुल का घर पर भोजपुरी लोकगीतांे का असर है। सन 1991 में रणधीर कपूर ने अपने स्वर्गीय पिता राज कपूर की अन्तिम महत्त्वाकांक्षी फिल्म हिना को बनाकर प्रदर्षित किया। यह फिल्म कष्मीरी पृष्ठभूमि पर बनी थी और एक भारतीय लड़के तथा पाकिस्तानी लड़़की की प्रेमकहानी इस फिल्म में पिरोई गयी थी। इस फिल्म में कष्मीरी तहज़ीब के रंग तो हैं ही, इसके कुछ गीतों जैसे चिट्ठिया फूंक लगा के उड़ जा, नार दाना अनारदाना, वष मल्ले में भी यह प्रभाव स्पष्ट है। साल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण फिल्म थी यष चोपड़ा की फिल्म लमहे, जिसमें राजस्थानी लोक संस्कृति के साथ-साथ राजस्थानी लोकगीतों के प्रभाव की भी छटा है। म्हारे राजस्थान मा, चुड़ियां खनक गयीं, मोहे छोड़ो ना जैसे गीत इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
सन 1993 में कल्पना लाजमी रूदाली के साथ हिन्दी सिने जगत में पदार्पण करती हैं। सुप्रसिद्ध बांग्ला लेखिका महाष्वेता देवी की कहानी पर आधरित इस फिल्म में राजस्थान के कुछ इलाकों में प्रचलित रूदाली नामक परंपरा का वर्णन है, जिसमें सवर्ण जाति के किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर नीची जाति की महिलाओं को शोक करने तथा रोने के लिए बुलाया जाता है। ऐसी औरतों को वहाँ रूदाली कहकर पुकारा जाता है। इन महिलाओं का काम है परिवार के उन सदस्यों की ओर से शोक व्यक्त करना, जो अपने सामाजिक रूतबे की वजह से शोक प्रकट नहीं कर सकते। इस फिल्म का संगीत भूपेन हजारिका ने तैयार किया था। इस फिल्म के गीत दिल हुम हुम करे, यारा सिली सिली बिरहा की रात का जलना और झूटी मूटी मितवा रूदाली की व्यथा को साकार करने में अत्यंत प्रभावषाली बन पड़े हैं।
सन 1995 की सुपरहिट फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में यष चोपड़ा ने भारतीय संस्कारों तथा पंजाबी संस्कृति को जिस खूबसूरती से पेष किया उसके कारण यह हिन्दी सिने इतिहास की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक मानी जाती है।
सन 1996 में शेखर कपूर के निर्देषन में दस्यु सुंदरी फूलन देवी के जीवन पर आधारित फिल्म बैंडिट क्वीन प्रदर्षित होती है। इस फिल्म में दर्षाया गया है कि किस प्रकार गाँव के ठाकुर उसके साथ बलात्कार करते हैं और विरोध करने पर उसे गाँव से निकाल देते हैं।वह जब पुलिस से इस मामले में हस्तक्षेप करने को कहती है तो पुलिस वाले भी उसके साथ बलात्कार करते हैं। बाद में परिस्थितियोंवष उसे भी बंदूक उठानी पड़ती है और बेहमई में कुख्यात नरसंहार करना पड़ता है। सन 1983 में आत्मसमर्पण करने के बाद उसे सन 1994 में रिहा कर दिया जाता है। इस फिल्म ने चंबल क्षेत्र के सवर्णों द्वारा नीची जाति के लोगों पर किए जा रहे लोमहर्षक अत्याचारों की सत्य कथा जनमानस के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए उन परिस्थितियों को उजागर किया जिनके चलते कोई सीधा सरल व्यक्ति कैसे डाकू बनने को मजबूर होता है। बाद में सन 2012 में पानसिंह तामर फिल्म में भी ऐसी ही परिस्थितियों की सच्ची तस्वीर पेष की गयी। वर्ष 1996 की दूसरी महत्त्वपूर्ण फिल्म गुलजार की माचिस थी, जिसमें आतंकवाद से त्रस्त अस्सी के दषक के पंजाब का चित्रण किया गया था और उन परिस्थिितयों का अंकन किया गया था जिनके कारण पुजाब के कुछ नौजवानों को हथियार उठाने पर विवष होना पड़ा था। फिल्म के गीत चप्पा चप्पा चरखा चले, पानी पानी रे खारे पानी रे, छोड़ आए हम वो गलियाँ, भेजे कहार पियाजी बुला लो में पंजाब की सोंधी मिट्टी की खुषबू है।
साल 1998 में पामेला रूक्स ने खुषवंत सिंह के उपन्यास ट्रेन टु पाकिस्तान पर इसी नाम से फिल्म बनाई। यह फिल्म बँटवारे से पूर्व और बँटवारे के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा पर सतलुज नदी के किनारे बसे मानो मजरा नामक शांत सरल पंजाबी गाँव के हालात का बयान करती है और दिखाती है कि 1947 के बाद सिक्ख-मुस्लिम बाहुल्य वाले इस गाँव की सोच और विचारधारा किस प्रकार बदल गयी।
संजयलीला भंसाली के निर्देषन में सन 1999 में हम दिल दे चुके सनम फिल्म आयी, जो बांग्ला लेखिका मैत्रेयी देवी के बंगला उपन्यास न हन्यते पर आधारित थी। इसके गीतो ढोली तारो और निंबूड़ा निंबूड़ा में राजस्थानी लोकगीतों का प्रभाव है। विषेषकर निंबूड़ा निंबूड़ा गीत थार के रेगिस्तान की लांगनियार और मांगनियार आदिवासी जनजातियों द्वारा लोकगीत के रूप में गाया जाता है। ये जनजातियाँ निवासियों नीबू को अत्यंत महत्त्वपूर्ण फल मानती हैं क्योंकि यह वहाँ बड़ी मुष्किल से उगता है। इसीलिए इसके सम्मान में लोकगीत बनाए गए हैं। इसी साल ई. निवास के निर्देषन में रामगोपाल वर्मा की पटकथा एवं अनुराग कष्यप के संवादों पर आधारित फिल्म शूल प्रदर्षित हुई। यह फिल्म बिहार के राजनीतिज्ञों तथा अपराधियों के गठजोड़ के घिनौने चेहरे को सामने लाती है और एक ईमानदार पुलिस ऑफिसर की विवषता का कारुणिक चित्र उपस्थित करती है। इस फिल्म के आइटम सांग मैं आई हूँ यू. पी. बिहार लूटने जैसे गीत बिहार उत्तर प्रदेष के सीमांत जिलों में भोजपुरी गीतों में देखने को मिलते हैं।
सन 2000 में विधुविनोद चोपड़ा निर्देषित फिल्म मिषन कष्मीर रिलीज हुई। यह फिल्म कष्मीर के आतंकवाद पर एक सधी कमेंट्री करती है और आतंकवाद से बच्चों के मानस पटल पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करती है। इस फिल्म के गीत भूमरो भूमरो श्याम रंग भूूमरो वास्तव में एक कष्मीरी लोकगीत है, जो श्रीनगर के आसपास प्रचलित है। एक अन्य विचार यह भी है कि कष्मीरी शायर दीनानाथ नदीम ने सन 1953 में अपने ओपेरा बोम्भुर यम्बोरजल के लिए बोंबरो बोंबरो गीत लिखा था, जिसकी नकल इस फिल्म में की गई और मूल शायर का नामोल्लेख करने की भी आवष्यकता नहीं महसूस की गई।
सन 2001 में आषुतोष गोवारिकर लगान लेकर आते हैं, जिसमें विक्टोरियायुगीन औपनिवेषिक भारत में जारी लगान प्रथा का चित्र उकेरा है। इस फिल्म के माध्यम से आषुतोष परतंत्र भारत में लगान व्यवस्था से त्रस्त किसान की विवषता का अंकन करते हैं। पटकथा लेखक के. पी. सक्सेना ने इस फिल्म के संवादों में अवधी, ब्रज तथा भोजपुरी का अद्भुत सम्मिश्रण किया ताकि देष का एक बड़ा तबका इसे आसानी से समझ सके। मदर इण्डिया के बाद यह फिल्म ऑस्कर अवार्ड हेतु भारत से विदेषी फिल्म श्रेणी मे नामित की गयी।
2003 में प्रकाष झा के निर्देषन में आई फिल्म गंगाजल में बिहार के अपराधियों के प्रतिकार के लिए पुलिस द्वारा अपनाए गए एक उपाय की सच्ची घटना पर आधारित है, जिसमें पुलिस ने अपराधियों के चेहरों पर तेजाब डाल दिया था। यह उपाय गंगाजल के नाम से चर्चित हुआ था। यह फिल्म उसी घटना के आधार पर बनाई गई थी। फिल्म की सधी पटकथा एवं चुस्त निर्देषन के कारण यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने में सफल रही। साल की दूसरी महत्त्वपूर्ण फिल्म डॉ. चंद्रप्रकाष द्विवेदी की पीरियड फिल्म पिंजर थी, जो अमृता प्रीतम के इसी नाम के पंजाबी उपन्यास पर आधारित थी। इस फिल्म में देष के विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान के पंजाबियों की समस्याओं का चित्रण हुआ है। यह फिल्म हिन्दू-मुस्लिम समस्या की तह में जाती है और भावनात्मक रिष्तों की उष्णता से किस प्रकार धर्म की दीवारें ढह जाती हैं, इसका बेबाकी से चित्रण करती है। इस फिल्म के प्रत्येक गीत में पंजाबियत बोलती है। मार उड़ारी नी कुकिए, दर्द मार्या, शाबा नी शाबा, वतन वे ओ मेरिया, वारिस शाह नूँ आदि गीतों में गुलजार ने और चरखा चलाती माँ गीत में अमृता प्रीतम ने पूरी षिद्दत से पंजाबिययत के रंग उड़ेले हैं।
वर्ष 2004 में आई अनुराग कष्यप की फिल्म ब्लैक फ्राइडे में मुबई में हुए 1993 के बम विस्फोट के बाद की स्थितियों की सत्य घटनाओं पर एस. हुसैन ज़ैदी की पुस्तक ब्लैक फ्राइडे: द ट्रू स्टोरी ऑफ द बांबे ब्लास्ट्स पर आधारित है। इस फिल्म की खासियत यह है कि इस फिल्म के सभी पात्र वास्तविक हैं तथा घटनाओं का तारतम्य भी यथार्थ के काफी निकट है। यह फिल्म मुंबई बम विस्फोट के बाद उभरी साम्प्रदायिक भावनाओं को बेहद संजीदगी से उजागर करती है। इस काण्ड के आरोपियों ने यह कहकर इस फिल्म का विरोध किया था कि इस फिल्म में उन्हें दोषी ठहराया गया है, जबकि अदालत ने अभी इस पर फैसला नहीं सुनाया है। भारत में यह फिल्म अनेक कानूनी अड़चनों के बाद उच्चतम न्यायालय के आदेष पर सन 9 फरवरी सन 2007 को रिलीज हो सकी थी।
रंग दे बसन्ती साल 2006 में आई सर्वाधिक चर्चित फिल्म थ्ी, जिसमें निर्देषक राकेष ओमप्रकाष मेहरा ने स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में वर्तमान युवाओं की राष्ट्र के प्रति सोच और उनके सरोकारों को अभिव्यक्ति दी है। साल की दूसरी उल्लेखनीय फिल्म राजकुमार हिरानी निर्देषित लगे रहो मुन्नाभाई थी। यह ऐसी फिल्म थी, जिसने आज के समाज को महात्मा गाँधी के विचारों को नए परिप्रेक्ष्य में समझने की द ृष्टि प्रदान की। इस फिल्म से प्रभावित होकर बाद लोग भ्रष्ट तथा अनैतिक लोगों को कोसने की जगह उनकी बुद्धि शुद्धि के लिए गेट वेल सून लिखकर फूलों के गुलदस्ते देने लगे थे। मुन्ना की गाँधीगीरी ने गाँधीवादी विचारधारा का आधुनिक संस्करण तैयार कर दिया था और लोग अब गाँधी जी के विचारों की आवष्यकता को महसूस करने लगे थे। एक फिल्म का समाज पर इतना हृदयस्पर्षी प्रभाव पड़ सकता है और पूंजीवादी समाज को भी गाँधी जी स्वीकार्य हो सकते हैं, यह कमाल इस फिल्म ने कर दिखाया था।
साल 2007 में अमोल गुप्ते निर्देषित फिल्म तारे जमीन पर आई, जिसमें डाइलेक्सिया से पीड़ित बालक के साथ किए जाने वाले व्यवहार के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विष्लेषण पर आधारित है। यह फिल्म बताती है कि बच्चे पर माता-पिता को अपनी अपेक्षाओं का बोझ नहीं लादना चाहिए, बल्कि बालक के पसंद-नापसंद और उसकी अभिरूचियों का मूल्यांकन कर तदनुरूप उसकी षिक्षा व्यवस्था की जानी चाहिए।यह फिल्म वास्तव में बाद में आई फिल्म थ्री ईडियट्स की पूर्वपीठिका थी, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। इस साल का दूसरी महत्त्वपूर्ण फिल्म चक दे इण्डिया थी, जो वास्तव में भारतीय हॉकी कोच रहे मीररंजन नेगी के जीवन की सत्य घटनाओं पर आधारित थी। इस फिल्म में विषेषकर महिला खिलाड़ियों के साथ होने वाली समस्याओं पर प्रकाष डाला गया है और यह दिखाया गया है कि यदि एक कोच दृढ़संकल्पित हो तो वह दोयम दरजे की टीम में आत्मविष्वास भरकर उसे विष्व की सर्वश्रेष्ठ टीम में बदल सकता है। इस फिल्म का भारतीय युवाओं पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा और विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में दर्षक अपने खिलाड़ी के मनोबल को बढ़ाने के लिए चक दे इण्डिया का बैनर लहराते देखे जाने लगे। इस फिल्म के बाद भारत में खेल संस्कृति पर गम्भीर विमर्ष भी शुरू हुआ। इस फिल्म के बाद लोकसभा में भी इस फिल्म पर चर्चा हुई और देष में हॉकी के विकास के लिए कुछ योजनाएँ तैयार की गईं। इसी साल राजस्थान की लोक संस्कृति को दर्षाने वाली फिल्म नन्हे जैसलमेर रिलीज हुई, जिसकी विषेषता इसके राजस्थानी गीत हैं। फिल्म का गीत केसरिया बालम सुप्रसिद्ध राजस्थानी मांड लोकगीत है, जो राजस्थान के राजदरबारों में गाया जाता था। लेकिन 1991 और डोर 2006 फिल्मों में भी यह राजस्थानी लोकगीत था। वास्तव में यह भारत का सबसे लोकप्रिय लोकगीत है।
साल 2008 की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नीरज पाण्डे की ए वेडनेसडे कही जा सकती है। यह फिल्म आतंकवाद की विभीषिका को उजागर करते हुए एक निस्सहाय आदमी की आतंकवाद से युद्ध हेतु जिजीविषा को लक्षित करती है। यह फिल्म बताती है कि यदि आम जनता आतंकवाद विरूद्ध कमर कस ले तो आतंकवाद पनप ही नहीं सकता। यह फिल्म साम्प्रदायिक दुर्भाव के भी कुछ अन्तःसाक्ष्य बेहद संजीदगी से दिखाती है। एक शानदार पटकथा और बेहतरीन निर्देषन के साथ बनी इस फिल्म को अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया गया।
वर्ष 2009 में अब तक की सर्वाधिक कमाई करने वाली एक बेहतरीन फिल्म आयी, जिसका नाम था थ्री ईडियट्स। यह फिल्म चेतन भगत के उपन्यास फाइव पाइंट सम वन पर आधारित थी और इसका निर्देषन राजकुमार हिरानी ने किया था। यह फिल्म हमारी पारंपरिक षिक्षा व्यवस्था पर तीखे प्रहार करती है और षिक्षा में नवोन्मेषी प्रयोगों क आवष्यकता पर बल देती है। इस फिल्म का एक-एक फ्रेम इतना कसा हुआ है कि पूरी फिल्म से दर्षक एक आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और उसे इस फिल्म के पात्रों की समस्याएँ अपनी प्रतीत होने लगती हैं। इस साल की अन्य महत्त्वपूर्ण फिल्म देव डी थी, जिसमें राजस्थानी, अवधी, हरियाणवी तथा पंजाबी लोकधुनों को मिश्रित करते हुए शरतचंद्र के देवदास का आधुनिक संस्करण देव डी तैयार किया गया था। इसी साल प्रदर्षित फिल्म दिल्ली-6 की एकमात्र उपलब्धि यह है कि इस फिल्म में ससुराल गेंदा फूल नामक छत्तीसगढ़ी लोकगीत का प्रयोग हुआ है, जिसे वास्तव में छत्तीसगढ़ के लोक कलाकार गंगाराम षिवराय ने लिखा था।
सन 2010 की महत्त्वपूर्ण फिल्म थी अनुषा रिजवी की फिल्म पीपली लाइव। इस फिल्म में एक विवष किसान की आत्महत्या को महिमामण्डित करने में जुटे मीडिया चैनलों, पत्रकारों तथा राजनेताओं की हास्यास्पद हरकतों पर तीखा व्यंग्य कसा गया है और यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि टी. आर. पी. बढ़ाने की होड़ में समाचार चैनल किस हद तक जा सकते हैं। इस फिल्म के गीत महंगाई डायन खाए जात है, चोला माटी के राम, देस मेरा मध्य प्रदेष के कुछ अंचलों के लोकगीतों से प्रभावित थे। इस साल की दूसरी बेहतरीन फिल्म इष्किया थी, जिसमें पूर्वाचल के गैंगवार और गुण्डों की ज़िन्दगी को सेल्युलाइड पर उतारा गया था। निर्देषक अभिषेक चौबे ने अपनी इस पहली फिल्म में विद्या बालन, अरषद वारसी और नसीरूद्दीन शाह का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। फिल्म के एक गीत में प्रयुक्त इब्नबतूता शब्द वास्तव में मोरक्को के घुमक्कड़ अबू अब्दुल्लाह मोहम्मद इब्नअब्दुल्लाह लवाती तांग इब्नेबतूता (1304-1369) का संक्षिप्त नाम है। वे दक्षिण पष्चिम भारत भी आए थे। उनके यात्रा वृत्तांत मिलते हैं। वास्तव में सर्वेष्वर दयाल सक्सेना ने इब्नेबतूता पर सत्तर के दषक में एक बच्चों के लिए कविता लिखी थी, जिसके बोल थे, इब्न ए बतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में, थोड़ी हवा नाक में घुस गई थोड़ी घुस गई कान में। इसी का पहला मुखड़ा लेकर गुलजार ने इस फिल्म का गीत बना डाला।
2011 में आई नीलमाधव पाण्डा की फिल्म आई एम कलाम एक चाय की दुकान पर काम करने वाले राजस्थान के बारह वर्षीय बच्चे छोटू की कहानी है, जो एक दिन टीवी पर राष्ट्रपति कलाम को देखकर खुद भी उनके जैसा बनना चाहता है और अपना नाम भी कलाम रख लेता है। वह किस प्रकार अपने जीवन के संघर्ष को पूर्ण आत्मसम्मान के साथ जारी रखता है, यही इस फिल्म की विषेषता है।
सन 2012 की तिग्मांषु धुलिया निर्देषित पान सिंह तोमर फिल्म पान सिंह तोमर नामक सैनिक के जीवन पर आधारित है, जो राष्ट्रीय खेलों में बाधा दौड़ का स्वण्ज्ञंपदक विजेता था किन्तु गाँव आकर परिस्थितियों के वषीभूत होकर उसे बीहड़ में कूदकर डाकू बनना पड़ता है। इस फिल्म की भाषा में बुन्देलखण्ड जीवंत हो उठा है। इरफान के सहज स्वाभाविक अभिनय एवं संजय चौहान की कसी हुई पटकथा के कारण यह फिल्म बेहतरीन फिल्म बन गई है। मुझ समेत अनेक फिल्म विष्लेषकों का मत है कि ऑस्कर हेतु पान सिंह तोमर एक बेहतर विकल्प हो सकती थी। इस साल ऑस्कर हेतु भारत से नामित फिल्म बरफी संवेदनाओं के अथाह सागर में डुबो देने वाली मार्मिक फिल्म है। यह फिल्म मूक बधिर व्यक्ति की संवेदनाओं एवं उसके निष्छल प्रेम की अभिव्यक्ति करती है। निर्देषक अनुराग बसु के बेहतरीन निर्देषन एवं रणवीर कपूर तथा प्रियंका चोपड़ा के मार्मिक अभिनय के कारण इस फिल्म को दर्षकों का भी ढेर सारा प्यार मिला है। इस साल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण फिल्म गैंग ऑफ वासेपुर रही, जिसे निर्देषक अनुराग कष्यप ने दो भागों में बनाकर प्रर्षित किया। इस फिल्म में बिहार और झारखण्ड विषेषकर धनबाद के माफियाओं का सच्चाई के बेहद निकट वर्चस्व संघर्ष दिखाया गया है। फिल्म का पहला हिस्सा मनोज बाजपेई की बेहतरीन अदाकारी के लिए याद किया जाएगा तो दूसरे हिस्से में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अपने अभिनय के जौहर दिखाए हैं। मुझे लगता है कि अभिनय की इस रस्साकषी में नवाजुद्दीन मनोज बाजपेई पर भारी पड़े हैं। इस फिल्म में पात्रों की भीड़ में उभरे प्रेम, वासना, सत्ता संघर्ष और हिंसा के दृष्य सहज स्वाभाविक बन पड़े हैं। फिल्म के गीत संगीत में भोजपुरी माधुर्य इसे औरों से अलग और विषिष्ट बनाता है लेकिन इस फिल्म में भी शोले की भाँति सब कुछ है, परन्तु गाँव गायब है। कुछ विष्लेषक इस फिल्म को ऑस्कर हेतु दावेदार मानते हैं।
सम्पूर्ण हिन्दी सिनेमा में लोक चेतना के विष्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सिनेमा में लोक तत्व की जड़ें अत्यंत गहराई तक पैठी हुई हैं, परन्तु मोह भंग के दौर में एंग्री यंग मैन के उदय के साथ सिनेमा से गँवई रिष्ता कुछ नेपथ्य में चला गया किन्तु कला फिल्मों के आने के बादइसके चिह्न पुनः दिखाई देने लगे और फिल्म लगान के आने के बाद हिन्दी सिनेमा में गाँव और लोक संवेदना का पुनरूत्थान हुआ, जिसे नए तथा युवा निर्देषकों ने नवोन्मेषी विचारों के द्वारा नए क्षितिज प्रदान किए। आज हिन्दी सिनेमा में जिस प्रकार लोक चेतना और लोक संगीत को स्थान दिया जा रहा है, वह भविष्य के लिए आषान्वित करता है।
मोबाइल 09450037871

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