आज छायावाद के अमर शिल्पी जयशंकर प्रसाद की 76 वीं पुण्यतिथि है। ब्रज भाषा की परंपरागत कविता से प्रारंभ करते हुए कामायनी जैसी खड़ी बोली के अब तक के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य के सृजन तक उन्होंने एक लम्बा साहित्यिक सफ़र तय किया था। उनकी रचनाओं में भारतीय अतीत के गौरव गान के साथ साथ राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आसक्ति तथा परतंत्रता की बेडी से मुक्त होने की छटपट़ाहट साफ़ दिखती है। नाम मात्र की शिक्षा दीक्षा होने के बाद भी जिस परिपक्वता से वे छायावाद के पुरस्कर्ता के रूप में सामने आये, उसे एक चमत्कार ही कहा जाएगा। हिंदी के किसी कवि का यदि नोबेल साहित्य पुरस्कार पर सर्वाधिक अधिकार बनता है तो मेरे विचार से वह नाम जयशंकर प्रसाद का होगा। पुराण, अभिलेख, पुरातत्व, प्राचीन इतिहास आदि से भारतीय जाति को गौरवप्रदायक दृष्टान्त लाकर उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जन जन तक पहुँचाने का कार्य किया और हमें यह अहसास कराया कि परतंत्रता के पूर्व हमारे पास भी गौरवशाली इतिहास विद्यमान था। प्रस्तुत है उनका देशभक्ति को समर्पित यह गीत –
अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरुशिखा मनोहर। छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुम सारा।।
लघु सुरधनु से पंख पसारे शीतल मलय समीर सहारे। उड़ते खग जिस ओर मुँह किए समझ नीड़ निज प्यारा।।
बरसाती आँखों के बादल बनते जहाँ भरे करुणा जल। लहरें टकरातीं अनंत की पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे भरती ढुलकाती सुख मेरे। मदिर ऊँघते रहते जब जग कर रजनी भर तारा।।
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