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विशाल भारद्वाज की नवीनतम पेशकश है फिल्म मटरू की बिजली का मंडोला जिसमे वे हरियाणा के मंडोला नामक गाँव के बहाने स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन में किसानों की उर्वर जमीन लूटे जाने, रोमांस लड़ाने वाले माओवादी हुकुम सिंह मटरू उर्फ़ माओ, स्प्लिट पर्सनालिटी की समस्या से जूझते पियक्कड़ उद्योगपति हरफूल सिंह मंडोला और एक बेहद शातिर महिला राजनीतिज्ञ चौधरी देवी को एक साथ जोड़कर एक कथा बुनते हैं, जिसके साथ दारू पीकर उल्टी करने वाली पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी, बादल, बिजली और मटरू की त्रिकोणीय प्रेम कथा और ऋण ग्रस्त किसानों की दुर्दशा और मुम्बइया फिल्मों के लिए ज़रूरी कामेडी, सेक्स और स्किन शो समान्तर रूप से चलते हैं। इतने सारे मुद्दों को एक साथ लेकर चलने के कारण कहानी कई जगह उलझावों का शिकार हो गयी है और निर्देशक की निर्देशकीय पकड़ कमज़ोर होती दिखती है। शायद इसलिए भी है क्योंकि विशाल ने इस फिल्म का निर्देशन किया है, संगीत दिया है और अभिषेक चौबे के साथ मिलकर इस फिल्म की पटकथा भी लिखी है। ऐसा लगता है कि वे मल्टीटास्किंग के शिकार हो गए हैं और शायद बाज़ार की ज़रूरत को ध्यान में रखने के कारण उन्हें बिजली के गैरज़रूरी स्किन शो के दृश्य रखने पड़े हैं। फिल्म की बड़ी खासियत पंकज कपूर, आर्य बब्बर और शबाना आज़मी का यादगार अभिनय है। लेकिन फिल्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसका अंत एकदम मसालेदार टिपिकल मुम्बइया टाइप हो गया है, जिससे बचा जा सकता था। इमरान खान और अनुष्का शर्मा जैसे कलाकार इस फिल्म की सर्वाधिक कमज़ोर कड़ी रहे हैं। कई दृश्य भी अस्वाभाविक बन पड़े हैं जैसे मंडोला का नशे में धुत्त होकर हेलिकोप्टर चलाना या तालाब से गेंद निकालते समय अनुष्का का बेवजह “देखो मगर प्यार से मार्का” देह प्रदर्शन करना। गुलाबी भैंस के करेक्टर के माध्यम से विशाल जो दिखाना चाहते थे, वह भी संभवतः स्पष्टतः अभिव्यक्त नहीं हो सका है और वह एक कोमिक करेक्टर बनकर रह गई है। फिल्म के गीत एवं संवाद वाकई बेहतरीन बन पड़े हैं लेकिन यदि उन्हे एक चुस्त पटकथा भी मिल जाती तो यह एक यादगार फिल्म बन सकती थी। मैं इसे 5 में से 2.5 अंक देना पसंद करूँगा वह भी इस फिल्म के संगीत और संवादों के लिए। उम्मीद है कि विशाल की आगे की फिल्मों में मकड़ी, ओमकारा, द ब्लू अम्ब्रेला, इश्किया मकबूल वाले वही विशाल के दर्शन होंगे।
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