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फीका रहा दबंग का दूसरा अवतार

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अक्सर ऐसा होता है कि जब किसी सुपर हिट फिल्म का दूसरा भाग आने वाला होता है तो लोग उस फिल्म से भी पहले जैसी उम्मीदें लगा बैठते हैं और इसी उम्मीद में वे सिनेमा हाल तक दौड़े जाते हैं, लेकिन बहुत कम ऐसी फ़िल्में आयी हैं, जिनका द्वितीय भाग भी पहले जितना ज़ोरदार रहा है। अक्सर ये अपने पूर्ववर्ती फिल्मों की छाया बनकर रह गयी हैं। दबंग 2 भी इसी श्रेणी की फिल्म कही जा सकती है। इस फिल्म का पूर्वार्द्ध तो कहानीविहीन था, ऐसा लग रहा था मानो निर्देशक का उद्देश्य फिल्म दिखाना न होकर केवल चंद फाइट दृश्यों पर तालियाँ बजवाना भर हो। मध्यांतर के बाद कहानी आगे बढ़ती भी है तो उद्देश्यविहीन अनमने ढंग से। पिता के साथ पुत्र की चुहलबाजी के द्रश्य कहीं से भारतीय नहीं लगते। ये दृश्य गोलमाल रिटर्न्स फिल्म के मिथुन चक्रवर्ती की कोमेडी की भोंडी नक़ल बनकर रह गए हैं। फिल्म की  कोमेडी भी लचर है।” मूंगफली से याद आया” “चुन्नी से याद आया” जैसे संवाद शायद चवन्नीछाप दर्शकों को हाल में खींचकर लाने के लिए फिल्म में ठूंसे गए लगते हैं। फिल्म में एक भी कलाकार ऐसा नहीं दिखा, जिसने अपनी भूमिका से न्याय किया हो। बच्चा  जब खुद को छेदी सिंह से बड़ा गुंडा बताता है तो ऐसा लगता है कि फिल्म का विलेन वाकई ज़ोरदार होने वाला है लेकिन बाद में वह भी बड़ी आसानी से बिना लड़े नायक से हारकर आत्मसमर्पण कर देता है। स्त्री देह को मुर्गी बना देने की हद तक जाने का बाजारीकरण और पुलिस की अतिशय निगेटिव छवि इस फिल्म के कमज़ोर पक्ष कहे जाएँगे। फिल्म के गीत भी इसकी पूर्ववर्ती फिल्म की तुलना में कमज़ोर हैं। फिल्म को हिट बनाने के लिए अरबाज़ खान  उतावले थे कि उन्होंने इस फिल्म में एक की बजाए दो आइटम नंबर डाल दिए हैं। लेकिन निर्देशकीय कौशल की कमी और अतिरंजित दृश्यों की वितृष्णा इसे एक भूल जाने लायक फिल्म बना देती है। सुपर हिट फिल्म का दूसरा भाग बनाना आजकल सेफ बिजनेस होता जा रहा है क्योंकि पहली फिल्म की ख्याति दूसरी को बिना कुछ किये धरे ही मिल जाती है। यही कारण था कि 40 करोड़ से बनी इस फिल्म ने रिलीज़ होने से पहले ही वितरण तथा गीत संगीत के राइट बेचकर अपनी लागत से दोगुनी कमाई कर ली थी। यही वजह है कि अरबाज़ ने फिल्म के अंत में ऐसे सूत्र डाले हैं जिनसे इसका तीसरा भाग बनाने की संभावना बनी रहे . हालांकि चर्चा यह भी है कि दबंग 3 दबंग का प्रीक्वेल होगा अर्थात इसमें चुलबुल पांडे के बचपन की कहानी होगी, लेकिन अरबाज़ इससे तौबा कर ले तो ही उचित रहेगा वर्ना  उन्हें भी रामगोपाल वर्मा, साजिद खान और डेविड धवन की तरह अप्रासंगिक होते देर नहीं लगेगी। मैं इस फिल्म को 5 में से 1 अंक दूंगा।  अंत में इस फिल्म के लिए ग़ालिब के शब्दों में-

बहुत शोर सुनते थे कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गए पर ये तमाशा न हुआ।

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