महिलाओं के शोषण की परम्परा नयी नहीं है। महिलाओं को अस्पृश्यों से भी हीन मानना, उन्हें वेद अथवा संस्कृत के ग्रन्थ पढ़ने की आज्ञा न देना आदि ऐसे अनेक प्रसंग पूर्व में वर्णित किये जा चुके हैं। संस्कृत साहित्य में नारियों के विषय में मूलतः दो प्रकार के विचार अभिव्यक्त हुए हैं। पहला विचार स्त्री-सौन्दर्य एवं काम पिपासा से ओत-प्रोत है, तो दूसरा विचार सती-साध्वी पतिपरायणा स्त्रियों के गुणगान से भरा पड़ा है। इन पर दृष्टिपात करने से पहले एस0एस0 गौतम द्वारा नामकरण के विषय में उद्धृत एक श्लोक की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करेंगे- माण्डल्य ब्राह्मणस्य स्योत्क्षत्रियस्य बलान्वितम्। वैश्यस्य धन संयुक्त शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्।।1 अर्थात् ब्राह्मणों के नाम विद्या और बुद्धि से मंगल सूचक, परिपूर्णता के सूचक तथा शूद्रों के नाम निन्दनीय, घृणा और सेवा भाव को प्रदर्शित करने वाले होने चाहिये। वे आगे लिखते हैं कि महिलाओं से भी सेवा और समर्पण की अपेक्षा की गयी है, इसलिए उनको नाम देते हुए विशेष ध्यान न देते हुए निम्नांकित आधार लिए गए- 1. फलों के नाम पर – केला, सन्तरा, अंगूरी, अनारकली, अनारो आदि। 2. सहारे वाले नाम जिनका अपना अस्तित्व न हो -लता, माला, बेला। 3. फूलों के नाम पर – फुल्लो, कोमल, कमला, गुलाबो, सूरजमुखी। 4. मिठाइयों के नाम पर – इमरती, मधु, प्रसादो। 5. जमीन की तरह सहनशील – महिषी, धरणी, भूमि, पृथ्वी आदि। 6. नदियों के नाम पर – गंगा, यमुना, कावेरी, जमना, कृष्णा, नर्मदा, शिप्रा, सुरजो,गोदावरी, भागीरथी आदि। 7. अंधेरे और रात्रि के प्रतीक शीतलदायक नाम- निशा, कजली, यामिनी, रजनी, रोशनी, निशी, किरण, दीप्ति, चन्दा, चन्दो, प्रकाशी, प्रकाशो, शीतल, कृष्णा, दीपा, प्रभा, भानुमति, पूर्णिमा, उषा आदि। 8. पूजा, अर्चना और समर्पण की भावना- आरती, अर्पिता, अपर्णा, स्तुति, ऋचा, अर्चना, पूजा, आशा, अन्नपूर्णा, तृष्णा आदि। 9. ज्यादतियों की शिकार स्त्रियों के नाम पर- सीता, उर्मिला, दमयन्ती, राधा, अनुसुइया, सावित्री, शकुन्तला, सुभद्रा, जानकी, रूक्मिणी, मीरा, माया, देवकी, अहिल्या, माधवी, कौशल्या, द्रौपदी, कुन्ती आदि। 10. निरर्थक नाम देकर – किसनो, किसनी, जनको, रामभतेरी, जनको,बिरमो, बिरमी, शिब्बो, रमेशो, गणेशो, गणेशी, सुरेशी, रामो, श्यामो, रामकली, सोहनी, मोहनी, मुन्दर, सुन्दर, सुन्हरी, ईश्वरी, जणमेशरी, ख्याली, लिच्छो, लिच्छमी, छोटो, मोटो, मँझली, बड़की, कल्लो, गूंगी, मुन्नी, नन्ही, खजानी, करयो, धरमो, पानो, दानो, केशो, ओमवती, सोमवती, ज्ञानो, स्यानो, मानो, रेखा, लेखा, सिंगारी, मीना, शान्ति, रीना, बीना, अरूपा, सरूपा, जग्गो, मग्गो, प्यारी, न्यारी, विमला, शिमला, मूरती, मुरली, रत्ना। 11. जिस दिन जन्म हो, उसके आधार पर – सोमवार को जन्म होने पर – सुमरो, सुमरी, सोमवती मंगलवार को जन्म होने पर – मंगली, मंगलो बुधवार को जन्म होेने पर – बुधिया शुक्रवार को जन्म होने पर – जुम्मो, जुमनी शनिवार को जन्म होेने पर – बारो रविवार को जन्म होने पर – इतवारो सवर्णों में जो लोग कुछ सजग हुआ करते थे ,वे अपनी पुत्रियों के नाम ऋतुओं, नक्षत्रों तथा देवियों के नाम पर रख दिया करते थे। जैसे- ऋतु, स्वाति, शरद, लक्ष्मी, उमा, पार्वती, गौरी, सरस्वती, शीला, दुर्गा, गोरा, जगदम्बा।2 कुछ लोग अप्सराओं के नाम पर उर्वशी, रम्भा, मेनका आदि नामकरण भी कर दिया करते थे। काम का द्योतन करने वाले नाम, जैसे कामिनी, रति, प्रिया, सुप्रिया, मोहिनी, कामेश्वरी आदि नाम रखकर भी स्त्रियों को उपहास की पात्र बनाया जाता था। आज भी कुछ स्थलों विशेषकर बुन्देलखण्ड में यह परम्परा है कि विवाह के पश्चात् स्त्री का पूरा नाम ही बदल दिया जाता है, और उसे नए नाम के साथ अपना अस्तित्व बनाना पड़ता है। प्रकाश चन्द्र जैन आशा कौशिक द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘नारी सशक्तीकरण में ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 एवं महिला सशक्तीकरण के अन्तर्गत लिखते हैं, ‘‘प्राइवेट (निजी) सम्पत्ति की संकल्पना का उद्भव और विकास होने पर स्त्री धीरे-धीरे अपनी प्रस्थिति को खोती चली गयी। धार्मिक अनुष्ठानों और संस्कारों के सम्बन्ध में उसकी शारीरिक निर्बलता और अन्य अक्षमताएँ उसे निम्न प्रस्थिति देने का बहाना बन गयीं।‘‘3 प्रकाश चन्द्र जैन इसी लेख में आगे लिखते हैं कि सर्वप्रथम बौधायन ने वेद मंत्र की एक ऋचा को आधार बनाकर स्त्रियों को विरासत से वंचित किया था। वे लिखते हैं, ‘‘कृष्ण यजुर्वेद शाखा के प्रख्यात संप्रवर्तक बौधायन ने स्त्री को विरासत से अपवर्जित कर दिया। उसने विरासत से हिन्दू स्त्री के अपवर्जन के सिद्धान्त का आधार इस वेदमंत्र को बनाया ‘स्त्रियां निःशक्त होकर कोई भाग नहीं लेतीं (निरिन्द्रया ह्यदायाश्च स्त्रिया)। बौधायन ने यह पूर्व स्थापना करने के पश्चात् कि पराक्रम से वंचित और दाय प्राप्त करने में अक्षम होने के कारण स्त्रियाँ निरर्थक होती हैं, यह प्रतिपादित किया कि वेदों ने स्त्री को उत्तराधिकारी बनने योग्य नहीं माना है।‘‘4 यद्यपि बौधायन द्वारा वेद की इस सूक्ति के निर्वचन को अधिकांश विद्वानों ने सत्य नहीं माना। मैक्समूलर,5 वेस्ट एवं बूलर6, जॉली7 तथा पी0वी0 काणे8 ने इसे असत्य मानते हुए कहा कि बौधायन ने उक्त वैदिक सूत्र का जो निर्वचन किया है, उसका विरासत से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रकाश चन्द्र जैन कहते हैं, ‘‘मध्य युग के कतिपय विधानों में विधवा, माता और पुत्री को वारिसों की सूची में सम्मिलित किया गया था। उदाहरणार्थ- गौतम ने विधवा को, आपस्तंब ने पुत्र को और शंख ने माता और सबसे बड़ी पत्नी को वारिसों के रूप में सम्मिलित किया, किन्तु वास्तविकता यह थी कि गौतम और अपस्तंब, जिन्होंने क्रमशः विधवा और पुत्री को वारिसों की सूची में सम्मिलित किया, उन्हें बहुत अधिक अन्यमनस्क होकर सम्मिलित किया और उससे कोई व्यवहारिक प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ। उन्होंने विधवा और पुत्री को रक्त सम्बन्धियों और परव्यक्तियों (अजनबियों), जैसे-गुरू भाई, गुरू शिष्य और पुजारी की लम्बी सूची के अन्त में वारिसों के रूप में सम्मिलित किया। व्यवहारिक रूप से ऐसा होना कभी भी सम्भव नहीं था कि मृत व्यक्ति का कोई गुरू भाई, गुरू या शिष्य या पुजारी न होता। इन व्यक्तियों में से किसी एक की उपस्थिति में विधवा या पुत्री दाय प्राप्त नहीं कर सकती थी, किन्तु स्मृति युग में स्त्रियों की साम्पत्तिक स्थिति में काफी परिवर्तन हुआ तथा मनु, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, नारद, विष्णु, देवल, कात्यायन आदि स्मृतिकारों ने कतिपय स्त्री वारिसों को उत्तराधिकार क्रम में स्थान प्रदान किया। मिताक्षरा तथा दायभाग दोनों ने पांच स्त्रियों अर्थात् विधवा, पुत्री, माता, पितामही और प्रपितामही को दाय योग्य माना है किन्तु इन दोनों में भी वारिसों के उत्तराधिकार क्रम के बारे में मतभेद रहा।9 संदर्भ संकेत: 1. गौतम, एस.एस., भारतीय साहित्य में महिलाओं पर अभद्र कहावतें, प्रस्तावना, गौतम बुक सेण्टर, दिल्ली, 2007, पृ. 5. 2. गौतम, एस.एस., भारतीय साहित्य में महिलाओं पर अभद्र कहावतें, पृ. 5-6. 3. कौशिक आशा, नारी सशक्तीकरण, पोइन्टर पब्लिशर्स, जयपुर में प्रकाशित प्रकाश चन्द्र जैन का आलेख ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 एवं महिला सशक्तीकरण, प्रथम संस्करण, 2004, पृ. 206. 4. कौशिक आशा, नारी सशक्तीकरण, पोइन्टर पब्लिशर्स, जयपुर में प्रकाशित प्रकाश चन्द्र जैन का आलेख ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 एवं महिला सशक्तीकरण, पृ. 206. 5.5- Maxmuller, Sacred Book of East, XIV 6. 6- West & wooler, 178 IInd Ed. 7. जॉली, टैगोर लॉ लेक्चर्स, डी.एन. मित्तर की पुस्तक पोजीशन ऑफ़ वीमेन इन हिन्दू लॉ से उद्धृत, 1883, पृ. 449. 8. काणे, पी.वी., वैदिक बेसिस ऑफ हिन्दू लॉ, पृ. 24. 9. कौशिक आशा, नारी सशक्तीकरण, पोइन्टर पब्लिशर्स, जयपुर में प्रकाशित प्रकाश चन्द्र जैन का आलेख ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 एवं महिला सशक्तीकरण, पृ. 208.
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