कविता श्रीपत एवं निशा धवन ने 16 नवम्बर, सन् 1987 को अमृत बाजार पत्रिका में छपे ‘सीता टॉप्स द लिस्ट‘ नामक लेख में कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि महिलाओं एवं पुरूषों में आज के दौर में महिलाओं के प्रति क्या परिवर्तन आया है। इसके लिये उन्होंने इलाहाबाद नगर के 900 लोगों का साक्षात्कार लिया। इनमें जो महिलाएँ उन्होंने चुनी, वे सभी हिन्दू थीं, और इनमें से आधी नौकरीपेशा थीं। पुरूषों में भी वे लोग शामिल किए गए, जो मध्यम वर्ग अथवा अन्य वर्ग से आते थे और पूर्णतः शिक्षित थे। उनसे पहला सवाल किया गया कि वे इसके जो परिणाम आए उसमें महिलाओं ने यह माना कि कुछ परम्पराओं का त्याग करना उचित है, किन्तु वे स्त्रियोचित गुणों की बंधी-बंधाई परिपाटी को जारी रखने पर अड़ी रहीं। आधी से ज़्यादा महिलाओं का मत था कि एक महिला को शिक्षित, बुद्धिमान, तार्किक और स्पष्टवादी होना चाहिये, लेकिन 47 प्रतिशत महिलाओं ने महिलाओं में सहनशीलता, सहयोग की भावना और तालमेल बिठाकर चलने को महत्त्वपूर्ण माना। जैसा कि स्वाभाविक ही था, घरेलू महिलाओं ने परम्परावादी महिलाओं को ही आदर्श महिला बताया। आश्चर्य की बात यह थी कि किसी भी कामकाजी महिला ने अपनी आदर्श महिला के बारे में नहीं बताया जबकि लगभग चार प्रतिशत घरेलू महिलाओं ने अपनी पसन्द खुलकर बताई। कामकाजी महिलाओं ने कहा कि एक महिला को शिक्षित और बुद्धिमान होना ज़रूरी है। ताज्जुब की बात यह रही कि इस सर्वेक्षण में अधिकांश महिलाओं ने ‘सीता‘ को आदर्श नारी बताया। पुरूषों से भी जब यह प्रश्न किया गया तो उन्होंने भी ‘सीता‘ का नाम लिया, जबकि कुछ पुरूषों ने अपनी माँ का नाम लिया।3
आइए, अब सीता पर विचार करते हैं। कहा जाता है कि भारत में पर्दा प्रथा मुगलों की देन है लेकिन रामायण में जब सीता राम के साथ वनगमन के लिए राजमार्ग पर निकलती हैं, तब इस बात पर पश्चाताप व्यक्त किया जाता है कि जिस स्त्री को आकाशीय आत्माओं ने भी नहीं देखा, वह अब सर्वसाधारण की वस्तु बनकर सार्वजनिक नजरों से भी देखी जायेगी। रामायण की व्याख्या में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वानरों तथा राक्षसों की स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छन्द हैं। वे अपने पतियों रावण तथा बालि को राजनैतिक परामर्श भी देती हैं, परन्तु आर्य स्त्रियों को सीमित स्वतन्त्रता है। कैकेयी को छोड़कर अन्य किसी स्त्री को स्वतन्त्रता नहीं दिखती। वास्तव में अयोध्या की नारियाँ पुरूषों के प्रति आज्ञाकारिता की डोर में बँधी हुई हैं। सीता राम की छाया बनकर सर्वत्र उनका अनुसरण करती देखी जा सकती हैं। उनका सब कुछ राम का है। राम से अलग सीता का कोई अस्तित्व नहीं है लेकिन राम ऐसी एकनिष्ठ पतिपरायणा सीता को बिना किसी अपराध के अग्नि परीक्षा देने के लिए विवश करते हैं। लंका विजय के पश्चात् सीता जब पालकी में बैठकर राम के पास आती हैं, तो राम इन शब्दों से उनका अभिनन्दन करते हैं-
नास्ति में त्वप्यामिष्वंग को यथेष्ट गम्यतामिति।।‘‘
अर्थात् ‘‘कौन ऐसा कुलीन पुरूष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही स्त्री को प्रेम के लालच में ग्रहण करेगा। तुम रावण की गोद में बैठकर भ्रष्ट हो चुकी हो। उसकी कुदृष्टि तुम पर पड़ चुकी है। अपने उच्च कुल का बखान करते हुए भला मैं अब तुम्हें कैसे स्वीकार कर सकता हूँ ? अतः अब तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो। मेरा तुमसे कोई अनुराग नहीं है।‘‘
लेकिन बाद में राम ने अग्नि परीक्षा के बाद सीता को स्वीकार कर लिया था परन्तु कुछ समय बाद ही अयोध्या में एक धोबी का ताना सुनकर वे गर्भवती सीता को धोखे से वन भिजवा देते हैं। उस समय राम ने सीता को यह बताना भी आवश्यक नहीं समझा कि उनका अपराध क्या है और जिस तथाकथित अपराध के लिए वे पहले अग्नि परीक्षा दे चुकी हैं, उसी के लिए उन्हें निर्वासित कर देना भला कहाँ का न्याय है ? अन्याय और शोषण का इससे बड़ा उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। आज भी निरपराधों को न्यायालय द्वारा सजा नहीं मिलती और तो और एक अपराध की एक बार सजा मिल जाने के बाद उसी अपराध की दोबारा सजा नहीं दी जाती, लेकिन सीता को तो उस अपराध के लिए दो बार सजा दी जाती है, जो उसने कभी किया ही नहीं था। इतना ही नहीं, सीता के जीवित रहते हुए सीता के निर्वासन के पश्चात् एक पत्नीव्रत निभाने के नाम पर सीता की स्वर्ण प्रतिमा के साथ यज्ञ का सम्पादन करके आदर्श के नाम पर जो दिखावा किया गया था, वास्तव में वह सम्पूर्ण नारी जाति के साथ एक बहुत बड़ा छल था, जिसका अनुमान प्रत्येक न्यायशील व्यक्ति कर सकता है।4
डॉ0 रमेश कुमार त्रिपाठी सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘‘क्या सीता एक नागरिक तक न थी ? इन्द्रिय तृप्ति का साधन मात्र थी ? राम में लोकापवाद की भीरूता थी, न्याय पथ पर आरूढ़ होने का साहस न था। वे झूठ और अन्याय पर आधारित अपनी प्रजा के विचार नहीं बदल सकते थे, मगर निरपराध सीता को निर्वासित कर सकते थे। पर वास्तव में यह राम की गलती नहीं थी- उस काल की सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी थी।‘‘5
इस सम्बन्ध में डॉ0 रमेश कुमार त्रिपाठी के विचारों से सहमत हुआ जा सकता है, क्योंकि जो रूढ़िवादी (ब्राह्मण) समाज अपने राजा राम के यज्ञ को करने से केवल इस कारण मना कर देता है क्योंकि रावण की हत्या करके उन्होंने ब्रह्महत्या का पाप किया था, यही नहीं बल्कि जो ब्राह्मण उनका यज्ञ करवाते हैं, उन्हें राम द्वारा सरयू नदी के किनारे बसाना पड़ता है और सरयूपारीण ब्राह्मण नामकरण देना पड़ता है, वह समाज एक अत्याचारी ब्राह्मण के रूप में यदि रावण के वध को ‘पाप‘ का नाम देता है, तो सीता के निर्वासन में भी निश्चय ही ऐसे रूढ़िवादी समाज का दबाव रहा होगा।
कविता श्रीपत एवं निशा धवन ने 16 नवम्बर, सन् 1987 को अमृत बाजार पत्रिका में छपे ‘सीता टॉप्स द लिस्ट‘ नामक लेख में कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि महिलाओं एवं पुरूषों में आज के दौर में महिलाओं के प्रति क्या परिवर्तन आया है। इसके लिये उन्होंने इलाहाबाद नगर के 900 लोगों का साक्षात्कार लिया। इनमें जो महिलाएँ उन्होंने चुनी, वे सभी हिन्दू थीं, और इनमें से आधी नौकरीपेशा थीं। पुरूषों में भी वे लोग शामिल किए गए, जो मध्यम वर्ग अथवा अन्य वर्ग से आते थे और पूर्णतः शिक्षित थे। उनसे पहला सवाल किया गया कि वे इसके जो परिणाम आए उसमें महिलाओं ने यह माना कि कुछ परम्पराओं का त्याग करना उचित है, किन्तु वे स्त्रियोचित गुणों की बंधी-बंधाई परिपाटी को जारी रखने पर अड़ी रहीं। आधी से ज़्यादा महिलाओं का मत था कि एक महिला को शिक्षित, बुद्धिमान, तार्किक और स्पष्टवादी होना चाहिये, लेकिन 47 प्रतिशत महिलाओं ने महिलाओं में सहनशीलता, सहयोग की भावना और तालमेल बिठाकर चलने को महत्त्वपूर्ण माना। जैसा कि स्वाभाविक ही था, घरेलू महिलाओं ने परम्परावादी महिलाओं को ही आदर्श महिला बताया। आश्चर्य की बात यह थी कि किसी भी कामकाजी महिला ने अपनी आदर्श महिला के बारे में नहीं बताया जबकि लगभग चार प्रतिशत घरेलू महिलाओं ने अपनी पसन्द खुलकर बताई। कामकाजी महिलाओं ने कहा कि एक महिला को शिक्षित और बुद्धिमान होना ज़रूरी है। ताज्जुब की बात यह रही कि इस सर्वेक्षण में अधिकांश महिलाओं ने ‘सीता‘ को आदर्श नारी बताया। पुरूषों से भी जब यह प्रश्न किया गया तो उन्होंने भी ‘सीता‘ का नाम लिया, जबकि कुछ पुरूषों ने अपनी माँ का नाम लिया।3
आइए, अब सीता पर विचार करते हैं। कहा जाता है कि भारत में पर्दा प्रथा मुगलों की देन है लेकिन रामायण में जब सीता राम के साथ वनगमन के लिए राजमार्ग पर निकलती हैं, तब इस बात पर पश्चाताप व्यक्त किया जाता है कि जिस स्त्री को आकाशीय आत्माओं ने भी नहीं देखा, वह अब सर्वसाधारण की वस्तु बनकर सार्वजनिक नजरों से भी देखी जायेगी। रामायण की व्याख्या में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वानरों तथा राक्षसों की स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छन्द हैं। वे अपने पतियों रावण तथा बालि को राजनैतिक परामर्श भी देती हैं, परन्तु आर्य स्त्रियों को सीमित स्वतन्त्रता है। कैकेयी को छोड़कर अन्य किसी स्त्री को स्वतन्त्रता नहीं दिखती। वास्तव में अयोध्या की नारियाँ पुरूषों के प्रति आज्ञाकारिता की डोर में बँधी हुई हैं। सीता राम की छाया बनकर सर्वत्र उनका अनुसरण करती देखी जा सकती हैं। उनका सब कुछ राम का है। राम से अलग सीता का कोई अस्तित्व नहीं है लेकिन राम ऐसी एकनिष्ठ पतिपरायणा सीता को बिना किसी अपराध के अग्नि परीक्षा देने के लिए विवश करते हैं। लंका विजय के पश्चात् सीता जब पालकी में बैठकर राम के पास आती हैं, तो राम इन शब्दों से उनका अभिनन्दन करते हैं-
नास्ति में त्वप्यामिष्वंग को यथेष्ट गम्यतामिति।।‘‘
अर्थात् ‘‘कौन ऐसा कुलीन पुरूष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही स्त्री को प्रेम के लालच में ग्रहण करेगा। तुम रावण की गोद में बैठकर भ्रष्ट हो चुकी हो। उसकी कुदृष्टि तुम पर पड़ चुकी है। अपने उच्च कुल का बखान करते हुए भला मैं अब तुम्हें कैसे स्वीकार कर सकता हूँ ? अतः अब तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो। मेरा तुमसे कोई अनुराग नहीं है।‘‘
लेकिन बाद में राम ने अग्नि परीक्षा के बाद सीता को स्वीकार कर लिया था परन्तु कुछ समय बाद ही अयोध्या में एक धोबी का ताना सुनकर वे गर्भवती सीता को धोखे से वन भिजवा देते हैं। उस समय राम ने सीता को यह बताना भी आवश्यक नहीं समझा कि उनका अपराध क्या है और जिस तथाकथित अपराध के लिए वे पहले अग्नि परीक्षा दे चुकी हैं, उसी के लिए उन्हें निर्वासित कर देना भला कहाँ का न्याय है ? अन्याय और शोषण का इससे बड़ा उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। आज भी निरपराधों को न्यायालय द्वारा सजा नहीं मिलती और तो और एक अपराध की एक बार सजा मिल जाने के बाद उसी अपराध की दोबारा सजा नहीं दी जाती, लेकिन सीता को तो उस अपराध के लिए दो बार सजा दी जाती है, जो उसने कभी किया ही नहीं था। इतना ही नहीं, सीता के जीवित रहते हुए सीता के निर्वासन के पश्चात् एक पत्नीव्रत निभाने के नाम पर सीता की स्वर्ण प्रतिमा के साथ यज्ञ का सम्पादन करके आदर्श के नाम पर जो दिखावा किया गया था, वास्तव में वह सम्पूर्ण नारी जाति के साथ एक बहुत बड़ा छल था, जिसका अनुमान प्रत्येक न्यायशील व्यक्ति कर सकता है।4
डॉ0 रमेश कुमार त्रिपाठी सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘‘क्या सीता एक नागरिक तक न थी ? इन्द्रिय तृप्ति का साधन मात्र थी ? राम में लोकापवाद की भीरूता थी, न्याय पथ पर आरूढ़ होने का साहस न था। वे झूठ और अन्याय पर आधारित अपनी प्रजा के विचार नहीं बदल सकते थे, मगर निरपराध सीता को निर्वासित कर सकते थे। पर वास्तव में यह राम की गलती नहीं थी- उस काल की सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी थी।‘‘5
इस सम्बन्ध में डॉ0 रमेश कुमार त्रिपाठी के विचारों से सहमत हुआ जा सकता है, क्योंकि जो रूढ़िवादी (ब्राह्मण) समाज अपने राजा राम के यज्ञ को करने से केवल इस कारण मना कर देता है क्योंकि रावण की हत्या करके उन्होंने ब्रह्महत्या का पाप किया था, यही नहीं बल्कि जो ब्राह्मण उनका यज्ञ करवाते हैं, उन्हें राम द्वारा सरयू नदी के किनारे बसाना पड़ता है और सरयूपारीण ब्राह्मण नामकरण देना पड़ता है, वह समाज एक अत्याचारी ब्राह्मण के रूप में यदि रावण के वध को ‘पाप‘ का नाम देता है, तो सीता के निर्वासन में भी निश्चय ही ऐसे रूढ़िवादी समाज का दबाव रहा होगा।
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