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कब तक याद रखोगे छः दिसंबर को !
छः दिसंबर पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि अब कुछ भी कहना शायद दोहराव जैसा लगता है लेकिन फिर भी इतना तो कहना ही होगा कि यह दिन भारत के इतिहास में एक गहरा निशान छोड़ गया है ठीक उसी तरह जिस तरह २३ मार्च का दिन था, जब सन १९४० में पहली बार लाहौर के मिंटो पार्क में आयोजित मुस्लिम लीग की बैठक में पहली बार पकिस्तान की मांग का प्रस्ताव पारित हुआ था.उस समय इस प्रस्ताव को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था और न ही छः दिसंबर को लोगों ने यह अहसास किया होगा कि इसका असर समूची दुनिया पर पड़ने वाला है. पाकिस्तान के बनने के बाद दक्षिण एशिया के शक्ति संतुलन में भारत के सामने एक छद्म प्रतिद्वंदी खड़ा करने की ब्रिटिश साज़िश का शिकार आज सम्पूर्ण विश्व हो रहा है. तालिबानियों का उदय, भारत तथा दुनिया में आतंक फ़ैलाने की जगह के तौर पर पाकिस्तान के उभरने से दुनिया भर में अशांति फैलाने में पाकिस्तान की भूमिका जग ज़ाहिर हुई है तो छः दिसंबर की घटना के बाद भारत में भी आतंकवादियों की नयी फसल तैयार हुई है. एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति (शायद बिल क्लिंटन) ने भारतीय प्रधानमंत्री के अमेरिकी दौरे पर अपनी पत्नी से डॉ मनमोहन सिंह जी का परिचय कराते हुए कहा था कि ये उस भारत के प्रधानमंत्री हैं जहाँ पर २० करोड़ मुसलमान होने के बाद भी एक भी मुस्लिम आतंकवादी नहीं है लेकिन शनैः शनैः पाकिस्तान के क्रूर आतंकवादी भारत में भी अपने स्लीपिंग मोडयुल्स बना लेने में कामयाब हो पाए तो उसके पीछे उनके मन में भरे गए छः दिसंबर के ज़हर की बड़ी भूमिका थी. हालांकि इस घटना के बाद पाकिस्तान तथा कई अन्य देशों में अनेक मंदिर तोड़े गए और तालिबानियों ने बामियान में बुद्ध की प्रतिमा ढहाई लेकिन न जाने क्यों २० साल के बाद आज भी छः दिसंबर को उसी रूप में देखा जा रहा है जो भारत जैसे प्रगतिगामी देश के लिए न तो उचित है और न ही फायदेमंद. आज हमें इतिहास की इस कडवी सच्ची को वैसे ही भूल जाना चाहिए जैसे हम २३ मार्च १९४० को भूल चुके हैं. आपका क्या कहना है ?
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