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सन २००६ की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के नेशनल फिल्म पुरस्कार से पुरस्कृत फिल्म “खोसला का घोसला” आज स्टार गोल्ड पर देखी. २२ सितम्बर सन २००६ को रिलीज़ हुई इस फिल्म को आज देखकर बशीर बद्र साहब का ये शेर बेसाख्ता याद आ गया———- लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में. तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ ढहाने में. पोस्ट ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में जिस तरह शहरों की ज़मीनें सोने के भाव बिकने लगी, उससे एक नयी प्रजाति का जन्म हुआ जिसे आज हम भू माफिया या ज़मीन पर जबरन कब्ज़ा करने वाला के नाम से जानते हैं. यह प्रजाति तिकड़मी, काइयां, क्रूर और संवेदनहीनता से भरी हुई है, किसी सीधे सादे व्यक्ति की ज़मीन हड़प लेना और उस पर ज़बरन कब्ज़ा कर लेना और बाद में फर्जी कागज़ बनाकर पुलिस, वकील और गुंडों की मदद से येन केन प्रकारेण उस पर अपना कब्ज़ा करना तथा रंगदारी टैक्स मिलने के बाद खाली करना, यह महानगरों की एक बड़ी समस्या है. दिबाकर बनर्जी अपनी पहली फिल्म में इस समस्या को बेहद रोचक तरीके से हमारे सामने रखते हैं. कंपनी और चक दे इंडिया फेम पटकथा लेखक जयदीप साहनी ने एक अत्यंत चुस्त पटकथा लिखी है, जिसमे प्रारंभ से अंत तक रोचकता बनी रहती है. एक धूर्त भूमाफिया के रूप में बोमन ईरानी ने कमाल का अभिनय किया है तो सीधे सादे आम आदमी की भूमिका में अनुपम खेर ने अपने सहज स्वाभाविक अभिनय से जान डाल दी है. पहली बार निर्देशन कर रहे दिबाकर से इस फिल्म में कुछ गलतियाँ भी हुई हैं, मसलन पिता का नाम किशोरीलाल बड़े बेटे का नाम बलवंत खोसला फिर छोटे का नाम चिरौंजीलाल जैसा पुराना सा क्यों. ये ज़बरन ठूँसा गया नाम लगता है जिसकी शायद ज़रुरत नही थी क्योंकि इससे उपजा हास्य विद्रूप नज़र आता है. इसके अलावा नौकरी के लिए अमेरिका जाने को उतावला चिरौंजी मिशन की सफलता के बाद भी भारत में ही क्यों रह जाता है और प्रोपर्टी डीलिंग के दलदल में सपरिवार क्यों कूद जाता है, फिल्म इस सवाल का कोई सटीक उत्तर नहीं देती.फिर भी इस फिल्म की खासियत यह है की कम बजट में बनी यह फिल्म आम शहरी के दर्द को बयान करती है और सीधे सहज ढंग से अपनी बात कहकर लोगों के दिल में सीधे उतर जाती है. यही इसकी सफलता का रहस्य है और दिबाकर की सफलता का भी.
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