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वैदिक काल में भी तिरस्कृत थी स्त्री : दूसरी कड़ी

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मैंने अपनी शीघ्र पुस्तक ” वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री” से वेदों में स्त्रियों  की दशा पर एक पोस्ट लगाई थी आज उसकी दूसरी कड़ी पेश है ………….
पति की मृत्यु हो जाने पर विधवा स्त्री स्वयं भी शान के साथ जल जाया करती थी या जला दी जाती थी। अथर्ववेद में इस प्रथा का उल्लेख है। यद्यपि ऋग्वेद में इसका प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु यह अवश्य मिलता है कि पत्नी मृत पति की चिता के पास लेट जाती थी-
उदीर्व्व नार्यभि जीवलोकं गतासुपेतमुप शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ।।1
कभी-कभी माता-पिता धन के लोभ में अपनी पुत्रियों का वृद्ध पुरूषों से भी विवाह कर देते थे।2 भ्रातृहीन कन्याओं की सामाजिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। उन्हें वर प्राप्ति में कठिनाई होती थी और युवक इस भय से ऐसी कन्याओं से विवाह नहीं करते थे कि कहीं उससे उत्पन्न पुत्र को वधू का पिता न ले ले। ऋग्वेद में भ्रातृहीन कन्याओं को इधर-उधर घूमने वाली कहा गया है तथा उनकी उपमा असत्यभाषी, (अनृता) एवं पापी लागों से की गयी है।3 ऐसा भी हो सकता है कि भाई के न होने के कारण वे प्रायः दुष्ट लोगों के चंगुल में फंसकर वैश्यावृत्ति अपनाने के लिए विवश हो जाया करती हों।4 यही कारण था कि मैक्डॉनल ने यह अभिमत दिया था कि भ्रातृहीन कन्याओं को गणिकाओं की भाँति जीवन-यापन करना पड़ता था।5
वेदों में कतिपय ऐसे संकेत हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि अविवाहित रह जाने वाली कन्याओं को समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता था और और उन्हें अमाजुर (अमा-सर, जुद-वृद्ध होने वाली), पितृषद् (पितृ-पिता, षद्-निवास करने वाली) तथा अग्रू (अ$गुरू अर्थात् जिसने सन्तानोत्पादन द्वारा गुरूर प्राप्त न किया हो) कहकर चिढ़ाया जाता था।6
ऋग्वेद में जारिणी और दुराचारिणी स्त्रियों के भी उल्लेख आए हैं। वेद ऐसी स्त्रियों को घृणा एवं उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। अक्षसूक्त में जारिणी स्त्री की उपमा देते हुए जुआरी कहता है कि मैं बार-बार जुआ न खेलने का संकल्प करता हूँ, लेकिन जब मैं पासों को खेला जाता देखता हूँ तो उनकी ओर स्वतः ऐसे खिंचा चाला जाता हूँ, जैसे कोई जारिणी स्त्री जार की आरे खिंची चली जाती है।
ऐमीदेषां निष्कृतं जारिणीन,7
इसी प्रकार ऋग्वेद में भ्रातृहीन एवं पति से द्वेष करने वाली दुराचारिणी स्त्रियों की उपमा इधर-उधर घूमने वाली असत्य एवं अनृतरूपी पापी जनों से की गयी है-
अभ्रातरो न पोषणो व्यन्तः पतिरिपो न जनयो दुखोः8
एक अन्य ऋचा में प्रातःकाल का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उषारूपी भ्रातृहीन स्त्री रथ पर चढ़कर धन प्राप्ति के लिए पुरूषों (सूर्य) के सम्मुख जाती है।9 एक अन्य ऋचा में एक स्त्री के साथ दो पुरूषों के सम्भोग का वर्णन आया है-
विभिर्द्वा चरत एकया सह प्रःवासेव वसतः10
अन्य मंत्रों में व्यभिचर में प्रवृत्त स्त्री का उल्लेख मिलता है।11 ऋग्वेद में कुछ ऐसी स्त्रियों का भी वर्णन आया है, जो द्रव्याधिक्य से प्रसन्न होकर उन्हें चाहने वाले पुरूषों पर आसक्त हो जाती हैं।12
कहा जा सकता है कि यद्यपि वैदिक काल में स्थिति सम्मानजनक थी, परन्तु उन्हें पुरूषों की तुलना में निम्न स्थान ही दिया जाता था। ऋग्वेद की एक ऋचा में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पत्नी एक खेत की भांति होती है, जिसमें पुरूष अपना बीज बोता है।13 इससे सुस्पष्ट है कि खेत की उपज पर खेत का नहीं बल्कि बोने वाले का ही अधिकार होगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि वैदिक काल में कन्या, माता, बहिन, पुत्री कृषका के रूप में तो स्त्री को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था, किन्तु पत्नी, विधवा, नर्त्तकी, परिव्यक्ता, भ्रातृहीना के रूप में उसे समाज में अक्सर तानों का सामना करना पड़ता था। अविवाहित तथा विकलांग कन्याओं को भी समाज में उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था।14 लोगों की यह धारणा सम्भवतः इसलिए भी बन जाया करती थी क्योंकि ऐसी कन्याओं को विवाह के लिए स्वयं मुखर एवं प्रयत्नशील होना पड़ता था। ऋग्वेद में अपाला तथा घोषा के उदाहरण प्राप्त होते हैं, जो पितृगृह में लम्बे समय तक रहीं थीं। इनमें घोषा का तो काफी आयु हो जाने के पश्चात् विवाह हुआ था।15
वैदिक काल में पिता की सम्पत्ति में पुत्री का अधिकार था, अथवा नहीं, इस विषय पर विद्यान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वान ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा को उद्धृत करते हुए पिता की सम्पत्ति में कन्या के अधिकार को सिद्ध करते हैं-
शासद् वह्निर्दुहितुर्नप्त्यं गाद् विद्वां ऋतस्य दीधिति सपर्यन्।
पिता यत्र दुहितुः सेकमृंजन् त्सं शग्म्येन मनसा दधन्ने।।16
इसके अतिरिक्त एक अन्य द्धग्वैदिक ऋचा में भी इससे सम्बन्धित विषय परिलक्षित होता हैः-
न जामये तान्वो रिक्थमारैक् चकार गर्भं सनितुर्निधानम्।
यदि मातरो जनयन्त बहिनमन्यः कर्ता सुकृतोरन्य ऋन्धन्।।17
किन्तु इन ऋचाओं की व्याख्या में पर्याप्त विवाद है। कोई आचार्य स्त्रियों को सम्पत्ति में अधिकार होने की वैदिक काल में परम्परा को स्वीकार करता है तो कोई आचार्य इसका निषेध करता है। कुछ ऐसे भी हैं, जो विशेष परिस्थितियों में इस अधिकार को दिए जाने की बात कहते हैं। निरक्तकार ने उपरिवर्णित प्रथम ऋचा को उद्धृत करते हुए पुत्री को सम्पत्ति में अधिकार स्वीकारा है, और प्राकृतिक दृष्टि पर आधारित यह युक्ति मानी है कि पुत्र एवं पुत्री में प्रजनन और अंगरूप की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है, लेकिन वे अगले ही कथन में यह सुस्पष्ट कर देते हैं कि वे केवल अभ्रातृमती कन्या (जिस कन्या का भाई न हो) को ही पिता के सम्पत्ति की अधिकारिणी मानते हैं। उन्होंने उपरिवर्णित द्वितीय ऋचा को अपने इस तर्क के समर्थन में उद्धृत किया है। निरक्तकार की मान्यता है कि सम्पत्ति का अधिकार केवल उसे है, जो सन्तानकार्य तथा पिण्डदान क्रिया द्वारा पिता का ऐहिक एवं पारलौकिक उपकार करता है। अभ्रातृमती कन्या भी ‘पुत्रिका‘ बनकर अपने पिता का सन्तान कर्म और पिण्डदान से उपकार करती है। भ्रातृमती कन्या पितृकुल का इस प्रकार उपकार नहीं करती क्योंकि वह दूसरे कुल में जाकर वहां का उपकार करती है। कुछ विद्वान ऋग्वेद के 2.17.7 मंत्र के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि आजीवन पितृकुल मेु निवास करने वाली कन्या सम्पत्ति की अधिकारिणी हुआ करती थी।
इस सम्बन्ध में डॉ0 शिवराज शास्त्री का दृष्टिकोण उल्लेखनीय है। उन्होंने वेदों की समस्त ऋचाओं का अपनी युक्तियों से विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि-, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद काल में भ्रातृमती पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में दास अधिकार प्राप्त नहीं था। इस कल्पना के कारण यह हैं-
1- ऋग्वेद काल में पितृ सत्ता की भावना अत्यधिक प्रबल थी, इसलिए उस समाज में इस विचार की कल्पना नहीं की जा सकती थी कि दूसरे कुल में जाने वाली पुत्री पैतृक सम्पत्ति में विशेषकर अचल सम्पत्ति में दाय की अधिकारिणी हो। ऋग्वेद काल में विवाह में कन्या को यौवक देने के साथ-साथ कन्या शुल्क लेने की प्रथा भी प्रचलित थी, ऐसी दशा में पुत्री के दाय अधिकार की कल्पना असंगत प्रतीत होती है।
2- कृष्ण यजुर्वेद की संहिताओं में स्त्रियों को सामान्य रूप से दाय का अनधिकारी घोषित किया गया है। तैन्तिरीय संहिता 6.5.82 में कहा गया है कि जब स्त्रियों के लिए सोम लिया जाने लगा, तो सोम ने इसे सहन न किया। उन्होंने उसे घृत का वज्र बनाकर मारा, उस शक्तिहीन को स्त्रियों ने ले लिया, इसलिए स्त्रियाँ निर्बल तथा अदायाद होती है, और पापी पुरूष से भी मंद बोलती है। इसी प्रकार मैत्रायाणी संहिता में (4.64) भी कहा गया है, कि पुरूष दायाद (दाय को लेने वाला) होता है और स्त्रियां अदायादी होती हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी स्त्रियों को दाय की अस्वामिनी कहा गया है। बौधायन धर्मसूत्र में भी उपरिनिर्दिष्ट वैत्तिरीय संहिता के आधार पर स्त्रियों को दाय का अनधिकारी घोषित किया गया है।
3- पुत्र पिता के साथ तथा पिता की मृत्यु के पश्चात् भी कुल क्रमागत सम्पत्ति की रक्षा तथा वृद्धि में प्रयत्नशील रहता था, सन्तानोत्पादन द्वारा कुल को अक्षुण्ण बनाता था तथा पितरों को श्राद्ध तर्पण द्वारा उन्हें धार्मिक लाभ पहुंचाता था। इसके विपरीत पुत्री सन्तानोत्पादन द्वारा भौतिक तथा धार्मिक लाभ दूसरे कुल को ही पहुंचाती थी। इसलिए वह भाइयों के साथ समान दाय की अधिकारिणी नहीं मानी जा सकती थी।18
कतिपय विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ऋग्वैदिक समाज में कन्यायों को दाय-अधिकार प्राप्त था और वे अपने तर्क के समर्थन में ऋग्वेद की 2.17.7 ऋचा उद्धृत करते हैं। उसके सन्दर्भ में डॉ0 शिवराज शास्त्री लिखते हैं, ‘‘2.17.7 ऋचा जो कि पितृकुल में रहने वाली अविवाहित पुत्री के दाय भाग की सिद्धि में विद्वानों द्वारा प्रायः उद्धृत की जाती है, उसके सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है, कि इस ऋक में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जिसका अर्थ ‘भाग‘ किया जा सके। प्रो0 विल्सन ने ‘यथा भाग याचति‘ का अर्थ ‘ब्संपउे ींे ेनचचवतजश् किया है। इसलिए इस ऋक् से यह सिद्ध नहीं होता कि पिता के गृह में वास करने वाी अविवाहित पुत्री को दाय का अधिकार था। अथवा वह माता-पिता अथवा भाई का नैतिक कर्त्तव्य था।19
वे यह भी लिखते हैं कि, ‘‘विशुद्ध ऋग्वेद के साक्ष्य के आधार पर ऋग्वेद काल में अभ्रातृमती विवाहित पुत्री के दाय-अधिकार को सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि उक्त दोनों ऋचाओं (3.31.1 तथा 1.124.7) का अर्थ, जिनके आधार पर यास्काचार्य ने अभ्रातृमती पुत्री का दाय अधिकार सिद्ध किया है, संदिग्ध है।20
पत्नी के साम्पत्तिक अधिकरों के विषय में डॉ0 शिवराज शास्त्री दृढ़तापूर्वक यह निष्कर्ष निकालते हैं कि, ‘‘इस प्रकार ऋग्वेद में पत्नी के साम्पत्तिक अधिकारों का कोई संकेत नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि तैत्तिरीय संहिता में स्पष्ट रूप से स्त्री को ‘अदायादी‘ कहा गया है। यह स्मरणीय है कि साम्पत्तिक अधिकारों के विषय में भारतीय नारी के अधिकारों में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। इसलिए जबकि उत्तरकाल में ही स्त्री के साम्पत्तिक अधिकार बहुत ही सीमित थे, तब ऋग्वैदिक काल में स्त्री के साम्पत्तिक अधिकारों की कोई सम्भावना नहीं हो सकती।‘‘21
इस सम्बन्ध में डॉ कमला का निष्कर्ष है, ‘‘आधुनिक विद्वानों के मतों को यदि स्वीकार भी कर लिया जाए तो इसमें कोई विशेष आपत्ति इसलिए प्रतीत नहीं होती कि ऋग्वेद में सम्पत्ति के त्रतिनारी की उद्दाम लालसा दृष्टिगोचर नहीं होती। ऋग्वेद में स्त्री की जो भी आर्थिक स्थिति है, उसमें वह सन्तुष्ट है क्योंकि कहीं भी उसका आर्थिक असन्तोष नहीं झलकता। ऋग्वेद में आर्थिक अधिकार किसी विवाद के रूप में उजागर नहीं हुआ है, जैसा कि परवर्ती काल में दृष्टिगोचर होता है। यह बात भी विशेष उल्लेखनीय है कि नारी को आर्थिक अधिकारों का कहीं भी निषेध नहीं है। अतः अनुमान किया जा सकता है कि नारी की आर्थिक स्थिति तत्कालीन समाज में असन्तोषजनक नहीं थी।‘‘22
लेकिन डॉ0 कमला इस तथ्य को विस्मृत कर जाती हैं, कि वैदिक समाज में बहुपत्नी प्रथा या सपत्नी प्रथा भी प्रचलन में थी। ऐसे में आर्थिक असन्तोष स्वाभाविक रूप में सपत्नियों के बीच अवश्य विद्यमान रहता होगा, जिसकी चर्चा आगे करेंगे।
वेदों में पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा सर्वत्र परिलक्षित होती है, किन्तु पुत्री प्राप्ति की स्पष्ट कामना का कोई उदाहरण वेदों में नहीं प्राप्त होता।23 यहां यह उल्लेखनीय है कि वैदिक काल से पूर्व हड़प्पा सभ्यता मातृसत्तात्मक सभ्यता थी, परन्तु वैदिक सभ्यता पितृसत्तात्मक सभ्यता हो गई थी। अतः पुत्र कामना स्वाभाविक रूप से प्रधान बन गई थी। डॉ0 शिवराज शास्त्री इसका कारण वैदिक सभ्यता के पितृसत्तात्मक होने को ही मानते हैं। उनका अभिमत है, ‘‘पितृसत्तात्मक समाजों में वंश को चलाने वाला तथा कुल की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र ही होता है। फिर ऋग्वेदिक आर्य योद्धा थे, उन्हें निरन्तर युद्ध करने पड़ते थे। इन युद्धों में पुत्रियों की अपेक्षा पुत्र अधिक उपयोगी होते थे। पुत्र का धनोपार्जन की दृष्टि से अधिक महत्व था।24 के आगे लिखते हैं, ‘‘दूसरे पुत्र जन्म से लेकर मरण तक पितृ कुल में रहता था और अपने कुल की परम्पराओं को जीवित रखने के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न करता था। इसके विपरीत, पुत्री केवल विवाह से पूर्व तक ही पितृ ग्रह में रहती थी और विवाह होने के पश्चात् दूसरे कुल में चली जाती थी। ऋग्वेद में पुत्री के रूप में नारी का स्थान इतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितना कि माता या पत्नी के रूप में।‘‘25 वेद के प्रथम सूक्त में लोपामुद्रा को पुत्र प्राप्ति के लिए व्यग्र दिखाया गया है। यहां तक कि वह निःसंकोच होकर पुत्र प्राप्ति हेतुम पति से ‘मिलन‘ का अनुरोध करती है।26 इसी प्रकार प्रौढ़ हो जाने के बावजूद घोषा अश्विनी कुमारों से पुत्र प्रदान करने का अनुरोध करती है,27 इसी प्रकार अपाला इन्द्र से प्रजनन शक्ति प्रदान करने तथा पुत्र देने की प्रार्थना करती है।28
वैदिक काल में पुत्र प्राप्ति न होने पर अथवा अन्य किसी कारण से लोग एकाधिक पत्नियां रख लिया करते थे। कभी-कभी देवरों के साथ विधवा के विवाह कर लेने के कारण भी सपत्नियां हो जाया करती थीं, जिनमें स्वाभाविक रूप से ईर्ष्या-द्वेष तथा क्लेश हुआ करता था। ऋग्वेद में तथा अथर्ववेद में कुछ स्थानों पर सौंत पर अधिकार करने हेतु कुछ मंत्र दिए गए हैं।29 एक स्थल पर एक पत्नी अपनी सौंत पर अधिकार प्राप्त करने के लिये कहती है, ‘‘मैं उस औषधिलता को खोजती हूँ, जिसके द्वारा सपत्नी को सताया जा सकता है, तथा पति पर अधिकार प्राप्त किया जा सकता है। हे उत्तानपर्ण सुन्दरलता, मेरी सौंत को यहां से दूर हटाओ, मेरे पति पर मेरा पूर्ण अधिकार स्थापित करो। मैं तुम्हारी कृपा से सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ व मेरी सौंत उत्कृष्ट से निकृष्ट हो जाए। हे स्वामिन् ! यह महान शक्तिशाली औषधि मेरे द्वारा तुम्हारे सिरहाने स्थापित की गई है। मैंने शक्तिशाली तकिया तुम्हारे सिरहाने को रखा है।30 अन्यत्र एक पत्नी अपनी सौंत को पराजित कर सभी पर अपना वर्चस्व स्थापित करते दिखाई गई है।31 ऋग्वेद में ही एक अन्य स्थान पर सपत्नी द्वारा दिए गए कष्टों का उल्लेख हुआ है।32 ऋग्वेद में ही एक स्थान पर वर्णन आता है कि अश्विनी कुमारों ने च्यवन ऋषि को अनेक कन्याओं का पति बनाया।33 स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यद्यपि वेदों का सकारात्मक एवं आदर्श अर्थ ग्रहण किया है, तथापि उन्होंने भी अनेक मंत्रों में ‘सपत्नी‘ का अर्थ ‘सौंत‘ ग्रहीत किया है और यह स्वीकार किया है कि एक पुरूष की एकाधिक पत्नियां होने से उसे दुख मिलता है। उनकी व्याख्याओं के अनुसार भी ऋग्वेद कालीन समाज में सपत्नी का अस्तित्व था।34 ऋग्वेद में कुछ स्थलों पर ‘कुवित् पतिद्विषः‘ कहकर पत्नियों द्वारा पति से ईर्ष्या करने के दृष्टान्त भी आए हैं, जो बहुपत्नी वाद का समर्थन करते हैं।35
वैदिक काल भी अन्य सभी समाजों को भाँति विरोधाभासी प्रवृत्ति का रहा होगा। एक ओर वैदिक काल पितृसत्तात्मक हुआ करता था, तो वहीं दूसरी ओर ऋषियों के नामों में माता का नाम जोड़कर माँ को गौरव देने की आकांक्षा भी उस समाज में निहित थी। यही कारण है कि ऋषि दीर्घतमा को मामतेय (ममता का पुत्र)36, सूर्य को अदितेय (अदिति का पुत्र)37 पुरूरूवा को ऐल (इला का पुत्र)38 आदि कहकर उनकी मांओं के गौरव को प्रतिष्ठा भी दी गयी है। हालांकि दयानन्द सरस्वती इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते कि इनकी मांओं को गौरव प्रदान करने के लिए उन्हें माँ का नाम भी दिया गया होगा। उनका कथन है कि इला, अदिति और वघ्रिमती स्त्री विशेष न होकर प्राकृतिक पदार्थों के पर्याय हैं और इनका क्रमशः अर्थ अन्न, पृथिवी या आकाश और विद्युत, सत्स्त्री अथवा भूमि है। इनके पुत्रों से उनका अभिप्राय उन पदार्थों से है, जो इनसे उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार आदितेय सूर्य और पुरूरूवा मेघ अर्थ का वाचक है।39 इन तथ्यों के आलोक में ही डॉ0 रमेश कुमार त्रिपाठी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि, ‘‘कहना न होगा, परवर्ती स्मृतिकार, शास्त्रकार, विचारक और विद्वद्गण वैदिक मंत्रों को आप्त वाक्य मानते हैं। वे मानते हैं कि उनके समाज का निरन्तर पतन होता जा रहा है, और यह पतन वैदिक आदर्शों से हट जाने के कारण हो रहा है। इसलिए वे बार-बार वैदिक आदर्शों को पुनः अपनाने की दुहाई देते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि किसी भी समाज का पतन उसी के गर्भ में छिपे विनाश के बीजों से होता है। वैदिक कालीन समाज शुद्ध योगवादी दर्शन पर आधारित है। अधिकांश वैदिक मंत्रों में देवताओं का गुणगान और उनकी प्रार्थना की गयी है तथा बदले में उनसे धन-धान्य, एवं भौतिक उपलब्धियों की याचना की गयी है। स्वाभाविक रूप से इस योगवाद की प्रतिक्रिया हुई और बाद के समाज में आध्यात्मिक मूल्यों का तेजी से विकास हुआ। पूरा बौद्धिक समाज अध्यात्म की ओर मुड़ गया। परवर्ती शास्त्रों, स्मृतियों के विधानों में अधिकांश विधान स्त्रियों के प्रति अत्यन्त घृणित, दुःखद एवं अन्यायपूर्ण हैं, परन्तु वस्तुतः वैदिक काल से मिले हुए, वे ये ही विधान हैं, परन्तु वस्तुतः वैदिक काल से मिले हुए, वे ये ही विधान हैं, जिनकी जड़ें वैदिक काल से ही मजबूत हो चुकी थीं।40
1. ऋग्वेद 10.18.8 तथा ऐसा ही मंत्र अथर्ववेद 18.3.2 भी है।
2. ऋग्वेद 1.116.10, 1.117.13, 1.118.6, 5.74.5, 7.68.6, 7.71.5, 2.31.1।
3. ऋग्वेद 4.5.5
4. शास्त्री, डॉ0 शिवराज, ऋग्वेद काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 232, 233।
5. डंबकवदंससए टंपकपा प्दकमगए चचण् 406
6. ऋग्वेद 2.17.7, 2.17.8, 2.17.21, 10.39.3, 1.117.7.
7. ऋग्वेद 10.34.5
8. ऋग्वेद 4.5.5
9. ऋग्वेद 1.124.7, यजुर्वेद 23.31
10. ऋग्वेद 8.29.8
11. ऋग्वेद 1.124.8, 10.40.6
12. ऋग्वेद 10.27.12, 10.40
13. त्रिपाठी, रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ, पृ0 78
14. ऋग्वेद 1.117.7, 2.17.7, 10.39.3, 10.40.5
15. ऋग्वेद 1.117.1
16. ऋग्वेद 3.31.1।
17. ऋग्वेद 3.31.2।
18. निरूक्त 3.4, 3.5.
19. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 263-264.
20. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 267.
21. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 265.
22. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 364’365.
23. डॉ0 कमला, ऋग्वेद में नारी, पृ0 87।
24. डॉ0 कमला, ऋग्वेद में नारी, पृ0 77।
25. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 173।
26. ऋग्वेद 10.39।
27. ऋग्वेद 10.40.9।
28. ऋग्वेद 8.80.5, 8.80.6।
29. ऋग्वेद 10.146, 1-6, अथर्ववेद 3.18, 1-6।
30. ऋग्वेद 10.145.1-6.
31. ऋग्वेद 10.159.5-6.
32. ऋग्वेद 1.105.8.
33. ऋग्वेद 10.116.10.
34. ऋग्वेद भाषा, स्वामी दयानन्द सरस्वती, 1.105.8, 3.1.10.
35. ऋग्वेद 4.5.5, 8.9.1-4.
36. ऋग्वेद 1.147.3, 1.52.6, 1.58.6, 4.4.13
37. ऋग्वेद 10.88.11
38. ऋग्वेद 10.77.2
39. डॉ0 कमला ऋग्वेद में नारी पृ0 107.
40. त्रिपाठी, डॉ0 रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ, पृ0-80

मैंने अपनी शीघ्र पुस्तक ” वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री” से वेदों में स्त्रियों  की दशा पर एक पोस्ट लगाई थी आज उसकी दूसरी कड़ी पेश है ………….

पति की मृत्यु हो जाने पर विधवा स्त्री स्वयं भी शान के साथ जल जाया करती थी या जला दी जाती थी। अथर्ववेद में इस प्रथा का उल्लेख है। यद्यपि ऋग्वेद में इसका प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु यह अवश्य मिलता है कि पत्नी मृत पति की चिता के पास लेट जाती थी-

उदीर्व्व नार्यभि जीवलोकं गतासुपेतमुप शेष एहि।

हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ।।1

कभी-कभी माता-पिता धन के लोभ में अपनी पुत्रियों का वृद्ध पुरूषों से भी विवाह कर देते थे।2 भ्रातृहीन कन्याओं की सामाजिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। उन्हें वर प्राप्ति में कठिनाई होती थी और युवक इस भय से ऐसी कन्याओं से विवाह नहीं करते थे कि कहीं उससे उत्पन्न पुत्र को वधू का पिता न ले ले। ऋग्वेद में भ्रातृहीन कन्याओं को इधर-उधर घूमने वाली कहा गया है तथा उनकी उपमा असत्यभाषी, (अनृता) एवं पापी लागों से की गयी है।3 ऐसा भी हो सकता है कि भाई के न होने के कारण वे प्रायः दुष्ट लोगों के चंगुल में फंसकर वैश्यावृत्ति अपनाने के लिए विवश हो जाया करती हों।4 यही कारण था कि मैक्डॉनल ने यह अभिमत दिया था कि भ्रातृहीन कन्याओं को गणिकाओं की भाँति जीवन-यापन करना पड़ता था।5

वेदों में कतिपय ऐसे संकेत हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि अविवाहित रह जाने वाली कन्याओं को समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता था और और उन्हें अमाजुर (अमा-सर, जुद-वृद्ध होने वाली), पितृषद् (पितृ-पिता, षद्-निवास करने वाली) तथा अग्रू (अ$गुरू अर्थात् जिसने सन्तानोत्पादन द्वारा गुरूर प्राप्त न किया हो) कहकर चिढ़ाया जाता था।6

ऋग्वेद में जारिणी और दुराचारिणी स्त्रियों के भी उल्लेख आए हैं। वेद ऐसी स्त्रियों को घृणा एवं उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। अक्षसूक्त में जारिणी स्त्री की उपमा देते हुए जुआरी कहता है कि मैं बार-बार जुआ न खेलने का संकल्प करता हूँ, लेकिन जब मैं पासों को खेला जाता देखता हूँ तो उनकी ओर स्वतः ऐसे खिंचा चाला जाता हूँ, जैसे कोई जारिणी स्त्री जार की आरे खिंची चली जाती है।

ऐमीदेषां निष्कृतं जारिणीन,7

इसी प्रकार ऋग्वेद में भ्रातृहीन एवं पति से द्वेष करने वाली दुराचारिणी स्त्रियों की उपमा इधर-उधर घूमने वाली असत्य एवं अनृतरूपी पापी जनों से की गयी है-

अभ्रातरो न पोषणो व्यन्तः पतिरिपो न जनयो दुखोः8

एक अन्य ऋचा में प्रातःकाल का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उषारूपी भ्रातृहीन स्त्री रथ पर चढ़कर धन प्राप्ति के लिए पुरूषों (सूर्य) के सम्मुख जाती है।9 एक अन्य ऋचा में एक स्त्री के साथ दो पुरूषों के सम्भोग का वर्णन आया है-

विभिर्द्वा चरत एकया सह प्रःवासेव वसतः10

अन्य मंत्रों में व्यभिचर में प्रवृत्त स्त्री का उल्लेख मिलता है।11 ऋग्वेद में कुछ ऐसी स्त्रियों का भी वर्णन आया है, जो द्रव्याधिक्य से प्रसन्न होकर उन्हें चाहने वाले पुरूषों पर आसक्त हो जाती हैं।12

कहा जा सकता है कि यद्यपि वैदिक काल में स्थिति सम्मानजनक थी, परन्तु उन्हें पुरूषों की तुलना में निम्न स्थान ही दिया जाता था। ऋग्वेद की एक ऋचा में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पत्नी एक खेत की भांति होती है, जिसमें पुरूष अपना बीज बोता है।13 इससे सुस्पष्ट है कि खेत की उपज पर खेत का नहीं बल्कि बोने वाले का ही अधिकार होगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि वैदिक काल में कन्या, माता, बहिन, पुत्री कृषका के रूप में तो स्त्री को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था, किन्तु पत्नी, विधवा, नर्त्तकी, परिव्यक्ता, भ्रातृहीना के रूप में उसे समाज में अक्सर तानों का सामना करना पड़ता था। अविवाहित तथा विकलांग कन्याओं को भी समाज में उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था।14 लोगों की यह धारणा सम्भवतः इसलिए भी बन जाया करती थी क्योंकि ऐसी कन्याओं को विवाह के लिए स्वयं मुखर एवं प्रयत्नशील होना पड़ता था। ऋग्वेद में अपाला तथा घोषा के उदाहरण प्राप्त होते हैं, जो पितृगृह में लम्बे समय तक रहीं थीं। इनमें घोषा का तो काफी आयु हो जाने के पश्चात् विवाह हुआ था।15

वैदिक काल में पिता की सम्पत्ति में पुत्री का अधिकार था, अथवा नहीं, इस विषय पर विद्यान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वान ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा को उद्धृत करते हुए पिता की सम्पत्ति में कन्या के अधिकार को सिद्ध करते हैं-

शासद् वह्निर्दुहितुर्नप्त्यं गाद् विद्वां ऋतस्य दीधिति सपर्यन्।

पिता यत्र दुहितुः सेकमृंजन् त्सं शग्म्येन मनसा दधन्ने।।16

इसके अतिरिक्त एक अन्य द्धग्वैदिक ऋचा में भी इससे सम्बन्धित विषय परिलक्षित होता हैः-

न जामये तान्वो रिक्थमारैक् चकार गर्भं सनितुर्निधानम्।

यदि मातरो जनयन्त बहिनमन्यः कर्ता सुकृतोरन्य ऋन्धन्।।17

किन्तु इन ऋचाओं की व्याख्या में पर्याप्त विवाद है। कोई आचार्य स्त्रियों को सम्पत्ति में अधिकार होने की वैदिक काल में परम्परा को स्वीकार करता है तो कोई आचार्य इसका निषेध करता है। कुछ ऐसे भी हैं, जो विशेष परिस्थितियों में इस अधिकार को दिए जाने की बात कहते हैं। निरक्तकार ने उपरिवर्णित प्रथम ऋचा को उद्धृत करते हुए पुत्री को सम्पत्ति में अधिकार स्वीकारा है, और प्राकृतिक दृष्टि पर आधारित यह युक्ति मानी है कि पुत्र एवं पुत्री में प्रजनन और अंगरूप की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है, लेकिन वे अगले ही कथन में यह सुस्पष्ट कर देते हैं कि वे केवल अभ्रातृमती कन्या (जिस कन्या का भाई न हो) को ही पिता के सम्पत्ति की अधिकारिणी मानते हैं। उन्होंने उपरिवर्णित द्वितीय ऋचा को अपने इस तर्क के समर्थन में उद्धृत किया है। निरक्तकार की मान्यता है कि सम्पत्ति का अधिकार केवल उसे है, जो सन्तानकार्य तथा पिण्डदान क्रिया द्वारा पिता का ऐहिक एवं पारलौकिक उपकार करता है। अभ्रातृमती कन्या भी ‘पुत्रिका‘ बनकर अपने पिता का सन्तान कर्म और पिण्डदान से उपकार करती है। भ्रातृमती कन्या पितृकुल का इस प्रकार उपकार नहीं करती क्योंकि वह दूसरे कुल में जाकर वहां का उपकार करती है। कुछ विद्वान ऋग्वेद के 2.17.7 मंत्र के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि आजीवन पितृकुल मेु निवास करने वाली कन्या सम्पत्ति की अधिकारिणी हुआ करती थी।

इस सम्बन्ध में डॉ0 शिवराज शास्त्री का दृष्टिकोण उल्लेखनीय है। उन्होंने वेदों की समस्त ऋचाओं का अपनी युक्तियों से विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि-, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद काल में भ्रातृमती पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में दास अधिकार प्राप्त नहीं था। इस कल्पना के कारण यह हैं-

1- ऋग्वेद काल में पितृ सत्ता की भावना अत्यधिक प्रबल थी, इसलिए उस समाज में इस विचार की कल्पना नहीं की जा सकती थी कि दूसरे कुल में जाने वाली पुत्री पैतृक सम्पत्ति में विशेषकर अचल सम्पत्ति में दाय की अधिकारिणी हो। ऋग्वेद काल में विवाह में कन्या को यौवक देने के साथ-साथ कन्या शुल्क लेने की प्रथा भी प्रचलित थी, ऐसी दशा में पुत्री के दाय अधिकार की कल्पना असंगत प्रतीत होती है।

2- कृष्ण यजुर्वेद की संहिताओं में स्त्रियों को सामान्य रूप से दाय का अनधिकारी घोषित किया गया है। तैन्तिरीय संहिता 6.5.82 में कहा गया है कि जब स्त्रियों के लिए सोम लिया जाने लगा, तो सोम ने इसे सहन न किया। उन्होंने उसे घृत का वज्र बनाकर मारा, उस शक्तिहीन को स्त्रियों ने ले लिया, इसलिए स्त्रियाँ निर्बल तथा अदायाद होती है, और पापी पुरूष से भी मंद बोलती है। इसी प्रकार मैत्रायाणी संहिता में (4.64) भी कहा गया है, कि पुरूष दायाद (दाय को लेने वाला) होता है और स्त्रियां अदायादी होती हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी स्त्रियों को दाय की अस्वामिनी कहा गया है। बौधायन धर्मसूत्र में भी उपरिनिर्दिष्ट वैत्तिरीय संहिता के आधार पर स्त्रियों को दाय का अनधिकारी घोषित किया गया है।

3- पुत्र पिता के साथ तथा पिता की मृत्यु के पश्चात् भी कुल क्रमागत सम्पत्ति की रक्षा तथा वृद्धि में प्रयत्नशील रहता था, सन्तानोत्पादन द्वारा कुल को अक्षुण्ण बनाता था तथा पितरों को श्राद्ध तर्पण द्वारा उन्हें धार्मिक लाभ पहुंचाता था। इसके विपरीत पुत्री सन्तानोत्पादन द्वारा भौतिक तथा धार्मिक लाभ दूसरे कुल को ही पहुंचाती थी। इसलिए वह भाइयों के साथ समान दाय की अधिकारिणी नहीं मानी जा सकती थी।18

कतिपय विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ऋग्वैदिक समाज में कन्यायों को दाय-अधिकार प्राप्त था और वे अपने तर्क के समर्थन में ऋग्वेद की 2.17.7 ऋचा उद्धृत करते हैं। उसके सन्दर्भ में डॉ0 शिवराज शास्त्री लिखते हैं, ‘‘2.17.7 ऋचा जो कि पितृकुल में रहने वाली अविवाहित पुत्री के दाय भाग की सिद्धि में विद्वानों द्वारा प्रायः उद्धृत की जाती है, उसके सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है, कि इस ऋक में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जिसका अर्थ ‘भाग‘ किया जा सके। प्रो0 विल्सन ने ‘यथा भाग याचति‘ का अर्थ ‘ब्संपउे ींे ेनचचवतजश् किया है। इसलिए इस ऋक् से यह सिद्ध नहीं होता कि पिता के गृह में वास करने वाी अविवाहित पुत्री को दाय का अधिकार था। अथवा वह माता-पिता अथवा भाई का नैतिक कर्त्तव्य था।19

वे यह भी लिखते हैं कि, ‘‘विशुद्ध ऋग्वेद के साक्ष्य के आधार पर ऋग्वेद काल में अभ्रातृमती विवाहित पुत्री के दाय-अधिकार को सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि उक्त दोनों ऋचाओं (3.31.1 तथा 1.124.7) का अर्थ, जिनके आधार पर यास्काचार्य ने अभ्रातृमती पुत्री का दाय अधिकार सिद्ध किया है, संदिग्ध है।20

पत्नी के साम्पत्तिक अधिकरों के विषय में डॉ0 शिवराज शास्त्री दृढ़तापूर्वक यह निष्कर्ष निकालते हैं कि, ‘‘इस प्रकार ऋग्वेद में पत्नी के साम्पत्तिक अधिकारों का कोई संकेत नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि तैत्तिरीय संहिता में स्पष्ट रूप से स्त्री को ‘अदायादी‘ कहा गया है। यह स्मरणीय है कि साम्पत्तिक अधिकारों के विषय में भारतीय नारी के अधिकारों में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। इसलिए जबकि उत्तरकाल में ही स्त्री के साम्पत्तिक अधिकार बहुत ही सीमित थे, तब ऋग्वैदिक काल में स्त्री के साम्पत्तिक अधिकारों की कोई सम्भावना नहीं हो सकती।‘‘21

इस सम्बन्ध में डॉ कमला का निष्कर्ष है, ‘‘आधुनिक विद्वानों के मतों को यदि स्वीकार भी कर लिया जाए तो इसमें कोई विशेष आपत्ति इसलिए प्रतीत नहीं होती कि ऋग्वेद में सम्पत्ति के त्रतिनारी की उद्दाम लालसा दृष्टिगोचर नहीं होती। ऋग्वेद में स्त्री की जो भी आर्थिक स्थिति है, उसमें वह सन्तुष्ट है क्योंकि कहीं भी उसका आर्थिक असन्तोष नहीं झलकता। ऋग्वेद में आर्थिक अधिकार किसी विवाद के रूप में उजागर नहीं हुआ है, जैसा कि परवर्ती काल में दृष्टिगोचर होता है। यह बात भी विशेष उल्लेखनीय है कि नारी को आर्थिक अधिकारों का कहीं भी निषेध नहीं है। अतः अनुमान किया जा सकता है कि नारी की आर्थिक स्थिति तत्कालीन समाज में असन्तोषजनक नहीं थी।‘‘22

लेकिन डॉ0 कमला इस तथ्य को विस्मृत कर जाती हैं, कि वैदिक समाज में बहुपत्नी प्रथा या सपत्नी प्रथा भी प्रचलन में थी। ऐसे में आर्थिक असन्तोष स्वाभाविक रूप में सपत्नियों के बीच अवश्य विद्यमान रहता होगा, जिसकी चर्चा आगे करेंगे।

वेदों में पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा सर्वत्र परिलक्षित होती है, किन्तु पुत्री प्राप्ति की स्पष्ट कामना का कोई उदाहरण वेदों में नहीं प्राप्त होता।23 यहां यह उल्लेखनीय है कि वैदिक काल से पूर्व हड़प्पा सभ्यता मातृसत्तात्मक सभ्यता थी, परन्तु वैदिक सभ्यता पितृसत्तात्मक सभ्यता हो गई थी। अतः पुत्र कामना स्वाभाविक रूप से प्रधान बन गई थी। डॉ0 शिवराज शास्त्री इसका कारण वैदिक सभ्यता के पितृसत्तात्मक होने को ही मानते हैं। उनका अभिमत है, ‘‘पितृसत्तात्मक समाजों में वंश को चलाने वाला तथा कुल की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र ही होता है। फिर ऋग्वेदिक आर्य योद्धा थे, उन्हें निरन्तर युद्ध करने पड़ते थे। इन युद्धों में पुत्रियों की अपेक्षा पुत्र अधिक उपयोगी होते थे। पुत्र का धनोपार्जन की दृष्टि से अधिक महत्व था।24 के आगे लिखते हैं, ‘‘दूसरे पुत्र जन्म से लेकर मरण तक पितृ कुल में रहता था और अपने कुल की परम्पराओं को जीवित रखने के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न करता था। इसके विपरीत, पुत्री केवल विवाह से पूर्व तक ही पितृ ग्रह में रहती थी और विवाह होने के पश्चात् दूसरे कुल में चली जाती थी। ऋग्वेद में पुत्री के रूप में नारी का स्थान इतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितना कि माता या पत्नी के रूप में।‘‘25 वेद के प्रथम सूक्त में लोपामुद्रा को पुत्र प्राप्ति के लिए व्यग्र दिखाया गया है। यहां तक कि वह निःसंकोच होकर पुत्र प्राप्ति हेतुम पति से ‘मिलन‘ का अनुरोध करती है।26 इसी प्रकार प्रौढ़ हो जाने के बावजूद घोषा अश्विनी कुमारों से पुत्र प्रदान करने का अनुरोध करती है,27 इसी प्रकार अपाला इन्द्र से प्रजनन शक्ति प्रदान करने तथा पुत्र देने की प्रार्थना करती है।28

वैदिक काल में पुत्र प्राप्ति न होने पर अथवा अन्य किसी कारण से लोग एकाधिक पत्नियां रख लिया करते थे। कभी-कभी देवरों के साथ विधवा के विवाह कर लेने के कारण भी सपत्नियां हो जाया करती थीं, जिनमें स्वाभाविक रूप से ईर्ष्या-द्वेष तथा क्लेश हुआ करता था। ऋग्वेद में तथा अथर्ववेद में कुछ स्थानों पर सौंत पर अधिकार करने हेतु कुछ मंत्र दिए गए हैं।29 एक स्थल पर एक पत्नी अपनी सौंत पर अधिकार प्राप्त करने के लिये कहती है, ‘‘मैं उस औषधिलता को खोजती हूँ, जिसके द्वारा सपत्नी को सताया जा सकता है, तथा पति पर अधिकार प्राप्त किया जा सकता है। हे उत्तानपर्ण सुन्दरलता, मेरी सौंत को यहां से दूर हटाओ, मेरे पति पर मेरा पूर्ण अधिकार स्थापित करो। मैं तुम्हारी कृपा से सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ व मेरी सौंत उत्कृष्ट से निकृष्ट हो जाए। हे स्वामिन् ! यह महान शक्तिशाली औषधि मेरे द्वारा तुम्हारे सिरहाने स्थापित की गई है। मैंने शक्तिशाली तकिया तुम्हारे सिरहाने को रखा है।30 अन्यत्र एक पत्नी अपनी सौंत को पराजित कर सभी पर अपना वर्चस्व स्थापित करते दिखाई गई है।31 ऋग्वेद में ही एक अन्य स्थान पर सपत्नी द्वारा दिए गए कष्टों का उल्लेख हुआ है।32 ऋग्वेद में ही एक स्थान पर वर्णन आता है कि अश्विनी कुमारों ने च्यवन ऋषि को अनेक कन्याओं का पति बनाया।33 स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यद्यपि वेदों का सकारात्मक एवं आदर्श अर्थ ग्रहण किया है, तथापि उन्होंने भी अनेक मंत्रों में ‘सपत्नी‘ का अर्थ ‘सौंत‘ ग्रहीत किया है और यह स्वीकार किया है कि एक पुरूष की एकाधिक पत्नियां होने से उसे दुख मिलता है। उनकी व्याख्याओं के अनुसार भी ऋग्वेद कालीन समाज में सपत्नी का अस्तित्व था।34 ऋग्वेद में कुछ स्थलों पर ‘कुवित् पतिद्विषः‘ कहकर पत्नियों द्वारा पति से ईर्ष्या करने के दृष्टान्त भी आए हैं, जो बहुपत्नी वाद का समर्थन करते हैं।35

वैदिक काल भी अन्य सभी समाजों को भाँति विरोधाभासी प्रवृत्ति का रहा होगा। एक ओर वैदिक काल पितृसत्तात्मक हुआ करता था, तो वहीं दूसरी ओर ऋषियों के नामों में माता का नाम जोड़कर माँ को गौरव देने की आकांक्षा भी उस समाज में निहित थी। यही कारण है कि ऋषि दीर्घतमा को मामतेय (ममता का पुत्र)36, सूर्य को अदितेय (अदिति का पुत्र)37 पुरूरूवा को ऐल (इला का पुत्र)38 आदि कहकर उनकी मांओं के गौरव को प्रतिष्ठा भी दी गयी है। हालांकि दयानन्द सरस्वती इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते कि इनकी मांओं को गौरव प्रदान करने के लिए उन्हें माँ का नाम भी दिया गया होगा। उनका कथन है कि इला, अदिति और वघ्रिमती स्त्री विशेष न होकर प्राकृतिक पदार्थों के पर्याय हैं और इनका क्रमशः अर्थ अन्न, पृथिवी या आकाश और विद्युत, सत्स्त्री अथवा भूमि है। इनके पुत्रों से उनका अभिप्राय उन पदार्थों से है, जो इनसे उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार आदितेय सूर्य और पुरूरूवा मेघ अर्थ का वाचक है।39 इन तथ्यों के आलोक में ही डॉ0 रमेश कुमार त्रिपाठी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि, ‘‘कहना न होगा, परवर्ती स्मृतिकार, शास्त्रकार, विचारक और विद्वद्गण वैदिक मंत्रों को आप्त वाक्य मानते हैं। वे मानते हैं कि उनके समाज का निरन्तर पतन होता जा रहा है, और यह पतन वैदिक आदर्शों से हट जाने के कारण हो रहा है। इसलिए वे बार-बार वैदिक आदर्शों को पुनः अपनाने की दुहाई देते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि किसी भी समाज का पतन उसी के गर्भ में छिपे विनाश के बीजों से होता है। वैदिक कालीन समाज शुद्ध योगवादी दर्शन पर आधारित है। अधिकांश वैदिक मंत्रों में देवताओं का गुणगान और उनकी प्रार्थना की गयी है तथा बदले में उनसे धन-धान्य, एवं भौतिक उपलब्धियों की याचना की गयी है। स्वाभाविक रूप से इस योगवाद की प्रतिक्रिया हुई और बाद के समाज में आध्यात्मिक मूल्यों का तेजी से विकास हुआ। पूरा बौद्धिक समाज अध्यात्म की ओर मुड़ गया। परवर्ती शास्त्रों, स्मृतियों के विधानों में अधिकांश विधान स्त्रियों के प्रति अत्यन्त घृणित, दुःखद एवं अन्यायपूर्ण हैं, परन्तु वस्तुतः वैदिक काल से मिले हुए, वे ये ही विधान हैं, परन्तु वस्तुतः वैदिक काल से मिले हुए, वे ये ही विधान हैं, जिनकी जड़ें वैदिक काल से ही मजबूत हो चुकी थीं।40

1. ऋग्वेद 10.18.8 तथा ऐसा ही मंत्र अथर्ववेद 18.3.2 भी है।

2. ऋग्वेद 1.116.10, 1.117.13, 1.118.6, 5.74.5, 7.68.6, 7.71.5, 2.31.1।

3. ऋग्वेद 4.5.5

4. शास्त्री, डॉ0 शिवराज, ऋग्वेद काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 232, 233।

5. डंबकवदंससए टंपकपा प्दकमगए चचण् 406

6. ऋग्वेद 2.17.7, 2.17.8, 2.17.21, 10.39.3, 1.117.7.

7. ऋग्वेद 10.34.5

8. ऋग्वेद 4.5.5

9. ऋग्वेद 1.124.7, यजुर्वेद 23.31

10. ऋग्वेद 8.29.8

11. ऋग्वेद 1.124.8, 10.40.6

12. ऋग्वेद 10.27.12, 10.40

13. त्रिपाठी, रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ, पृ0 78

14. ऋग्वेद 1.117.7, 2.17.7, 10.39.3, 10.40.5

15. ऋग्वेद 1.117.1

16. ऋग्वेद 3.31.1।

17. ऋग्वेद 3.31.2।

18. निरूक्त 3.4, 3.5.

19. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 263-264.

20. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 267.

21. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 265.

22. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 364’365.

23. डॉ0 कमला, ऋग्वेद में नारी, पृ0 87।

24. डॉ0 कमला, ऋग्वेद में नारी, पृ0 77।

25. शास्त्री डॉ0 शिवराज, ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्बन्ध, पृ0 173।

26. ऋग्वेद 10.39।

27. ऋग्वेद 10.40.9।

28. ऋग्वेद 8.80.5, 8.80.6।

29. ऋग्वेद 10.146, 1-6, अथर्ववेद 3.18, 1-6।

30. ऋग्वेद 10.145.1-6.

31. ऋग्वेद 10.159.5-6.

32. ऋग्वेद 1.105.8.

33. ऋग्वेद 10.116.10.

34. ऋग्वेद भाषा, स्वामी दयानन्द सरस्वती, 1.105.8, 3.1.10.

35. ऋग्वेद 4.5.5, 8.9.1-4.

36. ऋग्वेद 1.147.3, 1.52.6, 1.58.6, 4.4.13

37. ऋग्वेद 10.88.11

38. ऋग्वेद 10.77.2

39. डॉ0 कमला ऋग्वेद में नारी पृ0 107.

40. त्रिपाठी, डॉ0 रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ, पृ0-80

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