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चक्रव्यूह फिल्म की समीक्षा

http://puneetbisaria.wordpress.com/
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चक्रव्यूह फिल्म के विषय में अनेक प्रतिक्रियाएँ पढ़ने के बाद आज देखने का फैसला किया. नक्सल समस्या को केंद्र में रखकर बनाई गयी इस फिल्म की समीक्षा करते हुए मेरे मन मे दो तरह की धारणाएँ उभरती हैं, जिनमे से एक सकारात्मक है और दूसरी नकारात्मक. सकारात्मक यह की एक बेहद पेचीदा और राजनैतिक दृष्टि से संवेदनशील समस्या को सामने लाने का जो साहस प्रकाश झा ने किया है, वह साहस केवल वे ही कर सकते थे. किरदारों को गढ़ते हुए वे राजन, जूही, आदिल, गोविन्द सूर्यवंशी, होम मिनिस्टर और चीफ मिनिस्टर जैसे सहज स्वाभाविक पात्र गढ़ गए हैं. उन्होंने यह दिखाने का प्रयास भी किया है की आदिवासी किस तरह से ज़मीन का हक बरकरार रखने के लिए मरने मारने पर भी उतारू हो सकते हैं और ये भोले भाले लोग घाव पर ज़रा सा मरहम लगा देने भर से आपके अपने हो जाते हैं. मेरी नाराजगी इस बात से है की इस बार वे पात्र चयन में भयंकर चूक कर बैठे हैं. मनोज बाजपेयी और नवोदिता अंजलि पाटिल के अलावा कोई भी पात्र अपनी भूमिका के साथ न्याय करता नहीं दीखता. इन दोनों को देखकर ऐसा लगता ही नहीं की इनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी नहीं होगी. अर्जुन रामपाल हमेशा की तरह भावहीन रहे हैं तो ईशा गुप्ता अभिनय कम ग्लैमर अधिक दिखाती नज़र आती हैं. फिल्म में एक आइटम सांग भी जबरन ठूँसा हुआ सा प्रतीत होता है. फिर अभय देओल को देखकर कहीं से ऐसा नहीं लगता की वे नक्सली हो सकते हैं, गोविन्द सूर्यवंशी के रूप में ओम पुरी भी फीके से दिखे हैं. वे अर्जुन रामपाल को इतना क्यों फुटेज दे रहे हैं और लगातार अपनी फिल्मों में मौके दे रहे हैं, ये बात समझ में नहीं आती! उन जैसा मंजा हुआ निर्देशक इतने कच्चे अभिनयकर्ताओं  से अभिनय करवाकर एक अच्छे विषय को मटियामेट करेगा, यह सोचकर आश्चर्य होता है.  कहानी में नक्सली भी पुलिस के इन्फार्मर पर इतनी ज़ल्दी यकीन कैसे कर लेते हैं यह अविश्वसनीय सा लगता है. फिल्म में स्वयं मुख्यमंत्री आदिल खान को बताते हैं की उसकी पत्नी रिया को नंदीघाट की इंटेलिजेंस सेल का डायरेक्टर बना कर भेज रहे है, फिर वही डायरेक्टर  इंटेलिजेंस सेल का काम छोड़कर एकाएक हेलीकाप्टर पर चढ़कर नक्सलियों का एन्काउन्टर करने चल पड़ती है.  सारी पुलिस फ़ोर्स एस पी के साथ पैदल भटक रही है  और यह वीरांगना अकेले दम पर नक्सलियों के साथ गोलीबारी का खेल खेल रही हैं, मानो गोलीबारी न होकर आतिशबाजी चल रही हो. यही नहीं अपने पति एस पी आदिल खान के सामने ही उसकी अनुमति का इंतज़ार किये बगैर आजाद को गोली मार देती है, ये सब घटनाएँ अतिनाटकीयता की प्रतीक हैं. मैंने आज तक यह नही सुना की इंटेलिजेंस वाले पुलिस से पूछे बगैर अकेले दम पर एन्काउन्टर  के लिए चल पड़ते होंगे. अब प्रकाश झा को यह सोचना होगा की वे पात्र चयन में विशेष जागरूकता का परिचय दें और जबरन अतिनाटकीयता को थोपने से बचें.

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