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भोजपुरी लोक साहित्य: परंपरा और वर्तमान

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भोजपुरी लोक साहित्य: परंपरा और वर्तमान
एसोसिएट, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,          राष्ट्रपति निवास, षिमला
किसी राष्ट्र के सांस्कृतिक वैभव का परिचायक वहाँ का लोक साहित्य होता है, जिसमें उस राष्ट्र के
राजनैतिक-सामाजिक गीत, विरह गीत इत्यादि को वाणी प्रदान की जाती है। यूँ तो प्रायः प्रत्येक देश में लोक साहित्य की एक सुदीर्घ परंपरा प्राप्त होती है, परन्तु अधिकांश देशों का लोक साहित्य एकाध भाषाओं अथवा बोलियों तक सीमित रहता है। भारतवर्ष इस मामले में सौभाग्यशाली है क्योंकि इस देश की कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी की परंपरा ने इसे बोलियों एवं भाषाओं का एक विस्तृत कोश प्रदान किया है, जिसमें लोक साहित्य के अलबेले रंग-रूप क्रीड़ा करते हुए देखे जा सकते हैं।  कहना न होगा, भोजपुरी भी इस कोश की अक्षय मंजूषा है।
नामकरण:
भोजपुरी शब्द का भाषा के रूप में सर्वप्रथम उल्लेख पटना के ष्गजेटियर्स रिवीजन स्कीमष् के विशेष अफसर पी.सी. राय चौधरी के अनुसार भोजपुरिया नाम से सन् 1789 में हुआ।1 भोजपुरी भाषा का नामकरण बिहार में बक्सर के निकट स्थित ष्भोजपुरष् नामक स्थान से हुआ है, जो बिहार के बक्सर सब डिवीज़न में डुमराँव से दो मील की दूरी पर स्थित है। यह पटना से सौ मील की दूरी पर है। माना जाता है कि भोजपुर किसी जमाने में मालवा अर्थात् उज्जैन से आए शक्तिशाली राजपूतों की राजधानी था। इसके नामकरण के विषय में प्रमुखतः प्रचलित मत निम्नांकित हैं –
1. शाहाबाद गजेटियर के अनुसार भोजपुर एक गाँव है, जो बक्सर सब डिवीजन में डुमराँव से दो मील उत्तर में बसा हुआ है। सन् 1921 ई0 में इसकी जनसंख्या 3605 थी। इस गाँव का नाम मालवा नरेश राजा भोज के नाम पर पड़ा है। कहा जाता है कि राज भोज ने राजपूतों के एक गिरोह के साथ यहाँ आक्रमण किया था और यहाँ के आदिवासी चेरों को हराकर अपने अधीन किया था। राजा भोज के महलों के भग्नावशेष यहाँ आज भी विद्यमान हैं।2 डॉ0 सत्यव्रत सिन्हा का भी यही दृष्टिकोण है।3
2. राहुल सांकृत्यायन का मन्तव्य है- श्शाहाबाद के उज्जैन राजपूत मूल स्थान के कारण उज्जैन पीछे की राजधानी धार से भी आए कहे जाते हैं। सरस्वती कण्ठाभरण धारेश्वर महाराज भोज के वंश के ही शान्तनशाह 14 वीं सदी में धार राजधानी के मुसलमानों के अधिकार में चले जाने के कारण जहाँ-तहाँ होते हुए बिहार के इस भाग में पहुँचे। यहाँ के पुराने शासकों को पराजित करके महाराज शान्तनशाह ने पहले दाँवा (बिहिआ ई0 आई0 आर0 स्टेशन के पास छोटा सा गाँव) को अपनी राजधानी बनाई। उनके वंशजों ने जगदीशपुर मठिला और अन्त में डुमराँव में अपनी राजधानी स्थापित की। पुराना भोेजपुर गंगा में बह चुका है। नया भोजपुर डुमराँव स्टेशन से 2 मील के करीब है।श्4 उन्होंने शान्तनशाह के दादा द्वितीय भोज या भारत के प्रतापी नरराज महाराज भोज प्रथम के नाम पर इस क्षेत्र का नामकरण भोजपुर किए जाने की सम्भावना व्यक्त की है।5 आपने मालवा के परमार राजाओं की वंशावली भी दी है।
3. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह अपने ग्रंथ ष्भोजपुरी के कवि और काव्यष् में लिखते हैं कि दोनों भोजपुर (वर्तमान नया भोजपुर तथा पुराना भोजपुर) गाँवों को डुमराँव राजवंश के दो परमार राजाओं ने बसाया था, जिनमें प्रथम धार नरेश राजा भोजदेव (1005- 1055 ई0) थे। इन्हीं के नाम पर इसका नामकरण भोजपुर किया गया। आपने अपने एक अन्य ग्रंथ ष्भोजपुरी लोकगीत में करुण रसष् में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य की भी चर्चा की है, जो बुन्देलखण्ड अंचल में विख्यात ऐतिहासिक जगद्देव का पँवारा से सम्बन्धित है। यह टीकमगढ़ से प्रकाशित लोकवार्त्ता नामक त्रैमासिक में इसके सम्पादक श्री कृष्णानन्द गुप्त जी ने जून 1944 (वर्ष 1, अंक 1, पृष्ठ 17) में प्रकाशित किया था। इसके अनुसार जो असल धार का परमार होगा, उसकी गरदन में तीन बल्लियाँ (कम्बुग्रीव) अवश्य होंगी। यह किंवदन्ती मालवा के राजपूतों में ही नहीं, बल्कि भोजपुरी क्षेत्रों -शाहाबाद तथा आरा एवं निकटवर्ती स्थलों के राजपूतों में भी प्रचलित है।6 इससे भी मालवा के राजपूतों का भोजपुर से अटूट सम्बन्ध प्रमाणित होता है।
4. पृथ्वीसिंह मेहता अपनी पुस्तक ष्बिहार: एक ऐतिहासिक दिग्दर्शनष् में एक भिन्न दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं। उनके मतानुसार कन्नौज के प्रतिहार राजा मिहिरभोज ने ही भोजपुर बसाया था। आपके अनुसार सन् 836 ई0 में मिहिरभोज भिन्नमाल की गद्दी पर बैठा। शीघ्र ही उसने पालवंशी देवपाल को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया एवं कन्नौज को ही अपनी राजधानी बनाया और उत्तर में कश्मीर सीमा तक, पश्चिम में मुलतान तक तथा पूरब में बिहार तक अपना सामा्रज्य स्थापित किया।7 राजा देवपाल से ही उसने पश्चिमी बिहार भी छीना था, जो वर्तमान भोजपुर क्षेत्र है। इस तथ्य की पुष्टि मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से भी होती है।8
5. ग्रियर्सन अपने सर्वेक्षण ग्रंथ ष्लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डियाष् में मालवा नरेश भोजदेव के नाम पर ही भोजपुर का नामकरण स्वीकार करते हैं।9 डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय भी कमोबेश इसी मत की पुष्टि करते हुए लिखते हैं कि वर्तमान भोजपुर आजकल एक सामान्य गाँव होने पर भी ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी भोजपुरी भूमि को विख्यात आल्हा तथा ऊदल की प्रसविनी भूमि होने का श्रेय प्राप्त है। पिछले समय में राजपूताने से आकर उज्जैन राजपूतों ने यहाँ अपना विस्तृत राज्य स्थापित किया और भोजपुर को प्रधान नगर बनाया।10 पं0 बलदेव उपाध्याय ने डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय की ष्भोजपुरी लोकगीतष् नामक पुस्तक की भूमिका में इसी तथ्य की पुष्टि करने का प्रयत्न किया है।
6. डॉ0 उदयनारायण तिवारी एक रोचक स्थापना देते हुए लिखते हैं कि भोजपुर नामकरण किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर नहीं हुआ था, बल्कि उज्जैनी भोजों के नाम पर इसका नामकरण हुआ होगा।11 उन्होंने अपने दावे के समर्थन में आइने अकबरी, बादशाहनामा तथा कुछ अंग्रेज़ विद्वानों का हवाला दिया है।
7. डॉ0 ए0 बनर्जी शास्त्री इसी से मिलती-जुलती बात कहते हुए लिखते हैं कि विश्वामित्र जिन लोगों के साथ यज्ञ  करते थे, उन्हें वे इमेभोजा कहते थे।12 इसकी पुष्टिस्वरूप वे ऋग्वेद की एक ऋचा उद्धृत करते हैं-
इमेभोजा अंगिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः।
विश्वामित्राय ददतो मघानि सहóसावे प्रतिरन्त आयुः।13
इसी के आधार पर वे भोज उपाधिधारी नरेशों के निवास स्थल होने के कारण इस क्षेत्र को भोजपुरी क्षेत्र स्वीकार करते हैं। डॉ0 श्रीधर मिश्र भी इसी मत के पक्षधर हैं।14
उपर्युक्त सभी मतों का विवेचन करने के पश्चात यही तथ्य समीचीन प्रतीत होता है कि चूँकि भोजपुर क्षेत्र का मालवा के परमार नरेशों के साथ सम्बन्ध इतिहाससम्मत है तथा जगद्देव का पँवारा से सम्बन्धित किंवदन्ती मालवा ही नहीं बल्कि गुजरात, बुन्देलखण्ड तथा सुदूर भोजपुरी अंचल में भी कमोबेश उसी रूप में प्रचलित है, अतः भोजपुर नामकरण निश्चय ही धार के परमार नरेश महाप्रतापी भोज के नाम पर किया गया होगा। चूँकि महाराजा भोज की अक्षय कीर्ति को उनके उत्तराधिकारी सहेज नहीं सके तथा उन्हें भागकर भोजपुर अंचल में शरण लेनी पड़ी, अतः अपने अतीत के गौरव को वहाँ के निवासियों तथा पराजित स्थानीय चेर राजाओं के समक्ष जताने के उद्देश्य से उन्होंने अपने महान पूर्वज राजा भोज के नाम पर ही इस अंचल का नामकरण भोजपुर किया होगा। अतः इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
भोजपुरी की व्याप्ति:
भोजपुुरी एक अत्यन्त मधुर एवं संगीतात्मकता से परिपूर्ण भाषा है,, जिसकी मिठास केवल भारत ही नहीं वरन् नेपाल, फिजी, मारीशस, सूरीनाम, गुयाना, ट्रिनीडाड और टोबैगो, सिंगापुर दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, थाईलैण्ड आदि देशों में भी गूँज रही है। नेपाल में तोे भोजपुर को वहाँ की 14 मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची में स्थान दिया गया है।15 आज विश्व के लगभग 44 करोड़ भारतवंशी लोगों की मातृभाषा के रूप में भोजपुरी समादृत है। यदि भारत में भोजपुरी क्षेत्र की ओर नज़र दौड़ाएँ तो पाते हैं कि उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, सोनभद्र, बलिया, आजमगढ़, जौनपुर, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, मऊनाथ भंजन, भदोही (संत रविदास नगर), चन्दौली, सिद्धार्थनगर तथा इलाहाबाद जिले के कुछ क्षेत्रों एवं बिहार तथा झारखण्ड के भोजपुर, शाहाबाद, सारण, सीवान, रोहतास, महाराजगंज, पूर्वी चम्पारन एवं पश्चिमी चम्पारन, मोतिहारी, छपरा, पलामू, राँची, गोपालगंज और आरा (भभुआ) तथा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर एवं जसपुर जिलों में इसकी जड़ें फैली हैं। प्रो0 मनोरंजनप्रसाद सिनहा की निम्नांकित लोरी से भोजपुरी के क्षेत्र का द्योतन होता है-
आरे आवऽ
छपरा आवऽ
बलिया-मोतिहारी आवऽ
गोरखपुर देवरिया आवऽ
बस्ती अउर जौनपुर आवऽ
मिर्जापुर-बनारस आवऽ
सोने के कटोरिया में
दूध-भात ले ले आवऽ
बबुआ के मुँहवा में घुटूक।16
ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में लिखा हैश् गंगा से उत्तर इस भाषा (भोजपुरी) की सीमा मुजफ्फरपुर जिले के पश्चिमी भाग की मगही है। फिर उस नदी के दक्षिण इसकी सीमा गया और हजारीबाग की मगही से मिल जाती है। वहाँ से यह सीमान्त रेखा दक्षिण-पूर्व की ओर हजारीबाग की मगही भाषा के उत्तर घूमकर सम्पूर्ण राँची पठार और पलामू तथा राँची जिले के अधिकांश भागों में फैल जाती है। दक्षिण की ओर यह सिंहभूमि की उड़िया और गंगपुर स्टेट की तद्देशीय भाषा से परिसीमित होती है। यहाँ से भोजपुरी की सीमा जसपुर रियासत के मध्य से होकर राँची पठार के पश्चिमी सरहद के साथ-साथ दक्षिण की ओर जाती है, जिससे सरगुजा और पश्चिमी जसपुर की छत्तीसगढ़ी भाषा से इसका विभेद होता है। पलामू के पश्चिमी प्रदेश से गुजरने के बाद भोजपुरी भाषा की सीमा मिर्जापुर जिले के दक्षिणी प्रदेश में फैलकर गंगा तक पहुँचती है। यहाँ यह गंगा के बहाव के साथ-साथ पूर्व की ओर घूमती है और बनारस के निकट पहुँचकर गंगा पार कर जाती है। इस तरह मिर्जापुर जिले के उत्तरी गांगेय प्रदेश के केवल अल्प भाग पर ही इसका प्रसार रहता है। मिर्जापुर के दक्षिण में छत्तीसगढ़ी से इसकी भेंट होती है, परन्तु उस जिले के पश्चिमी भाग के साथ-साथ उत्तर की ओर घूमने पर इसकी सीमा पश्चिम में पहले बघेलखण्ड की बघेली और फिर अवध की अवधी से जा लगी है।श्17
सरिता बुद्धु ने मुजफ्फरपुर तथा वैशाली में भी भोजपुरी की व्याप्ति मानी है,18 जबकि डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय ने फैजाबाद को भी इसमें परिगणित कर लिया है।19
भोजपुरी जन:
भोजपुर क्षेत्र के निवासियों ने कूपमण्डूकता से सदैव परहेज किया है और अपनी निर्धनता तथा बेकारी से मुक्ति पाने हेतु उन्होने न सिर्फ भारत, अपितु विदेशों में भी काम की तलाश में जाने से गुरेज नहीं किया है। अट्ठारहवीं शताब्दी में वे गिरमिटिया मजदूर के रूप में विभिन्न देशों में मजदूर बनकर गए और अपनी मेहनत, दृढ़ इच्छा शक्ति तथा संकल्पनिष्ठता के बल-बूते पर उन्होंने प्रगति एवं विकास की ऐसी अमर गाथा लिखी कि आज अनेक देशों में वे राजनीति में भी शिखर तक पहुँचे हैंे। आज भी देश-विदेश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में परिश्रम तथा ईमानदारी की मिसाल पेश करते भोजपुरी जन देखे जा सकते हैं। मारीशस, फिजी तथा ट्रिनीडाड और टोबैगो में तो उन्होंने राष्ट्राध्यक्ष के पद को भी सुशोभित किया है। सर शिवसागर रामगुलाम, वासुदेव पाण्डेय तथा महेन्द्र पाण्डेय ऐसे ही नाम हैं। युवा मोहनदास को महात्मा गाँधी के रूप में परिवर्तित करने का श्रेय दक्षिण अफ्रीका के भोले-भाले अधिकांश गिरमिटिया भोजपुरी मजदूरों को ही है, जिनके साथ अंग्रेज़ों द्वारा किए गए क्रूर अत्याचारों का सफलतापूर्वक विरोध करने के बाद ही गाँधी जी को सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्धि हासिल हुई थी और भारत आने पर उन्हें देश का निर्विवाद नेता स्वीकार कर लिया गया था। यहाँ आते ही उन्होने भोजपुरी क्षेत्र चम्पारन के नील उत्पादक किसानों को शोषण से बचाने के लिए आन्दोलन छेड़ा और जन-जन के कण्ठहार बन गए।
जॉर्ज ग्रियर्सन ने भोजपुरी लोगों की प्रशंसा करते हुए लिखा हैए श् भोजपुरी वाले साहसी कार्य करने हेतु उत्सुक रहते थे। जिस प्रकार आयरलैण्ड के लोग छड़ी के शौकीन हैं, उसी प्रकार हृष्ट-पुष्ट भोजपुरी लोग अपने घर से दूर अपने हाथों में लाठी लिए खेतों में काम करते हैं। हजारों की संख्या में ये मजदूर ब्रिटिश उपनिवेशों में गए।श्20 ग्रियर्सन ने ही भोजपुरी भाषा तथा लोगों के विषय में एक अन्य स्थान पर लिखा हैए श् भोजपुरी उस उत्साहित जाति की व्यावहारिक भाषा है, जो परिस्थिति के अनुरूप ढलने को हमेशा तैयार रहती है और जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान के हर एक भाग पर पड़ा है। हिन्दुस्तान में सभ्यता फैलाने का यश बंगालियों और भोजपुरियों को प्राप्त है। इस काम में बंगालियों ने अपने कलम से काम लिया है और वीर भोजपुरियों ने अपने डण्डे से।श्21
भोजपुरवासियों की वीरता एवं अक्खड़पन के विषय में भोजपुरी में एक उक्ति मशहूर है-
भागलपुर का भगेलुआ, कहल गाँव का ठग्ग।
जो  पावै  भोजपुरिया, तोड़ै  दोनों का रग्ग।।22
एक अन्य स्थान पर इसे कुछ अलग अंदाज में कहा गया है। आइए, देखें-
भागलपुर का भगेलुआ भइया, कहल गाँव का ठगग।
पटना  का   देवालिया,      तीनू      नामजद्द।
सुनि  पावै  भोजपुरिया, त  तुरै  तीनों   का रग्ग।।23़
एक अन्य उदाहरण देखें-
जे  हमरा  के  जानी,  ओकरा   जान   देइ  देबि,
बाकिर जे आँख देखाई, ओकरा आँखि निकालि लेबि।24
भोजपुरी फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता रविकिशन ने सोनी टी0 वी0 के रियलिटी शो बिग बॉस सीज़न 1 में भोजपुरी लोगों के चरित्र का आकलन करते हुए एक उक्ति कही थी-
ष्जिन्दगी झण्ड बाऽ, फिर भी घमण्ड बाऽष्
यह उक्ति भोजपुरी लोगों की निर्धनता के बावजूद उनके स्वाभिमान को अभिव्यक्त करती है। काफी समय तक भोजपुरी लोगों को अशिक्षित, गँवार, असभ्य तथा इनके लोकगीतों को अश्लील समझा जाता रहा और यही कारण था कि एक लम्बे समय तक पढ़ा-लिखा उच्च शिक्षित भोजपुरी समाज अपने को भोजपुरी बताने तथा भोजपुरी भाषा का प्रयोग करने में संकोच का अनुभव करता था, परन्तु आज ये बन्धन ढीले पड़े हैं।
भोजपुरी रचनाकार चन्द्रशेखर मिश्र से एक बार किसी ने पूछा था कि भोजपुरी लोग अपनी भोजपुरी में बात करनेे में संकोच का अनुभव क्यों करते हैं तो उनका सीधा सा जवाब था कि उन्हें अपनी भाषा की ताकत का अंदाजा नहीं है। जिस दिन उन्हें अपनी भाषा अपनी बोली का मर्म पता चल जाएगा, उस दिन यह झिझक अपने आप टूट जाएगी और मान से इतरा उठेंगे यही लोग।25 और आज ऐसा ही हो रहा है। आज भोजपुरी भारत की सर्वाधिक तेज़ी से विकसित एवं लोकप्रिय हो रही सह भाषाओं में से एक है।
भोजपुरी साहित्य:
अधिकांश विद्वानों ने इस बात पर आश्चर्य जताया है कि भोजपुरी भाषा के इतनी सरस, मधुर एवं जीवन्त होने के बावजूद इसमें अपेक्षित मात्रा में साहित्य सृजन नहीं हुआ है, जबकि इसकी पड़ोसी अवधी तथा मैथिली साहित्य सृजन की दृष्टि से इससे कोसों आगे हैं। विद्वानों ने इसका कारण भी खोजने का प्रयत्न किया है और इस सम्बन्ध में मूलतः दो मत ही सामने आए हैं। प्रथम मत के अनुसार भोजपुरी को राज्याश्रय नहीं मिल सका, इसी कारण इसके साहित्य में अपेक्षित श्रीवृद्धि नहीं हो सकी।  डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय जी लिखते हैैंएश् भोजपुरी साहित्य की अभिवृद्धि न होने का प्रधान कारण है, राज्याश्रय का अभाव। भोजपुरी प्रदेश में किसी प्रभावशाली, व्यापक एवं प्रतापी नरेश का पता नहीं चलता। अधिकतर इसमें किसानों की ही बस्तियाँ हैं। किसी गुणग्राही नरेश का आश्रय न मिलने से इस भाषा का साहित्य समृद्ध न हो सका। भोजपुरी को तो न विद्यापति मिले, न सूर ही। मैथिली और ब्रज के समान इसकी वृद्धि हो तो कैसे।श्26 डॉ0 सम्पूर्णानन्द जी भी प्रायः इसी दृष्टिकोण को व्यक्त करते हुए लिखते हैंएश्तुलसी ने अवधी और विद्यापति ने मैथिली को गौरवान्वित किया है, परन्तु मेरी जानकारी में भोजपुरी को किसी महाकवि ने अपनी प्रतिभा के माध्यम के रूप में नहीं अपनाया। कबीर भोजपुरी प्रदेश के रहने वाले अवश्य थे, परन्तु उनकी काव्य साधना प्रायः खड़ी बोली में हुई है। लेकिन जहाँ लिखित साहित्य के क्षेत्र में यह खटकने वाला अभाव दीख पड़ता है, वहाँ भोजपुरी का अलिखित वाड.मय भण्डार, उसका लोक साहित्य बहुत समृद्ध है, इसमें कोई सन्देह नहीं।श्27
डॉ0 सत्यव्रत सिन्हा ने भोजपुरी के लिखित साहित्य के विकसित न हो पाने के दो कारण बताए हैैंंएश् प्रथम, प्राचीन काल में जहाँ बंगाल एवं मिथिला के ब्राह्मणों ने संस्कृत के साथ-साथ अपनी मातृभाषा को भी साहित्यिक रचना के लिए अपनाया, वहाँ भोजपुरी पण्डितों ने केवल संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन पर ही विशेष बल दिया। संस्कृत के अध्ययन का प्राचीन केन्द्र काशी भोजपुरी प्रदेश में ही स्थित है। संस्कृत साहित्य को उत्तरोत्तर परिष्कृत करने में तथा उसके प्रचार को अक्षुण्ण बनाए रखने के कारण भोजपुरी पण्डितों द्वारा मातृभाषा की उपेक्षा की गयी। भोजपुरी में साहित्य के अभाव का द्वितीय कारण है राज्याश्रय का अभाव।श्28 यद्यपि वे इस बात को पूर्णतः स्वीकार नहीं करते कि भोजपुरी में साहित्य का सर्वथा अभाव है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने भोजपुरी में साहित्य सृजन करने वाले कवियों संतों के नाम दिए हैं, जिनमें प्राचीन काल के धरमदास, शिवनारायण, धरनीदास तथा लक्ष्मीसखी एवं आधुनिक काल के बिसराम, तेजअली, बाबू रामकृष्ण वर्मा, दूधनाथ उपाध्याय,  बाबू अम्बिका प्रसाद, भिखारी ठाकुर, मनोरंजन प्रसाद सिनहा, रामबिचार पाण्डेय, प्रसिद्ध नारायण सिंह, पण्डित महेन्द्र शास्त्री, श्याम बिहारी तिवारी, चंचरीक, रघुवीर शरण तथा रणधीरलाल श्रीवास्तव के नाम उद्धृत किए हैं।29 डॉ0 उदय नारायण तिवारी तथा डॉ0 मैनेजर पाण्डेय ने तो कबीरदास जी को भोजपुरी के प्रथम कवि की संज्ञा दी है। डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय ने कबीर, जायसी, तुलसी आदि कवियों के साहित्य में अनेक स्थलों पर प्रयुक्त हुए भोजपुरी शब्दों की पहचान कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उनकी भाषा पर भोजपुरी की छाप अवश्य है।30
राज्याश्रय के अभाव के कारण साहित्य के विकसित न हो पाने का कारण बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि किसी भाषा के साहित्य के विकसित होने के लिए राज्याश्रय अपरिहार्य होता तो अवधी में साहित्य सृजन सम्भव ही नहीं हो पाता क्योंकि अवधी को भी प्रायः राज्याश्रय नहीं मिला था, किन्तु वह न सिर्फ विकसित हुई बल्कि भक्ति काल के सन्त कवियों की वाणी बनकर प्रवाहित हुई। यह अवश्य अंशतः सत्य हो सकता है कि संस्कृत साहित्य को उत्तरोत्तर परिष्कृत करने में तथा उसके प्रचार को अक्षुण्ण बनाए रखने के कारण भोजपुरी पण्डितों द्वारा मातृभाषा की उपेक्षा की गयी हा,े किन्तु आम जनता ने इस क्षेत्र में सभी जनभाषाओं को पर्याप्त सम्मान दिया है। भोजपुरी क्षेत्र अर्थात् पश्चिमी बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश ने कभी भी संस्कृत का अंधानुकरण नहीं किया और पालि, प्राकृत आदि जनभाषाओं को भी पूर्ण सम्मान दिया है। यहाँ संस्कृत के प्रधान केन्द्र काशी स्थित सारनाथ में सारनाथ में चिरकाल से पालि का पर्याप्त प्रचार रहा है। अतः भोजपुरी में लिखित साहित्य प्राप्त न हो पाने के पीछे यही कारण हो सकता है कि भोजपुरी का प्रचार ग्रामीण जनता में अधिक रहा होगा तथा प्रबुद्ध लोगों ने इसे साहित्यिकता की दृष्टि से उपयोगी न समझा होगा।
अतः दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह का यह दृष्टिकोण सन्तुलित प्रतीत होता हैएश् प्रथम यह कि किसी भी भाषा को साहित्य का माध्यम बनाना राज्य के अधिकार की बात नहीं है। यह तो कोई सिद्धहस्त प्रतिभासम्पन्न लेखक ही कर सकता है। राज्य अधिक से अधिक इस दिशा में यही कर सकता है कि वह उस भाषा के गद्य को अपने राजकीय कामों के लिए व्यवहार में लावे। सो, इसको सभी राज्यों ने पूर्वकाल से ही करना शुरू किया, जो आज तक जारी है। यही नहीं, वर्तमान सरकार ने भी जब-जब उसे प्रचार की आवश्यकता पड़ी है, इसको अपनाया है। पर तब भी भोजपुरी में न तो विद्यापति जी ऐसा मातृभाषा प्रेमी कोई कवि ही हुआ, जो अपनी प्रतिभा इसमें दिखा कर विद्वानों को भोजपुरी की ओर आकृष्ट कर सके और न ही हरिश्चन्द्र जी के ऐसा इसको कोई गद्य लेखक ही मिला, जो इसके गद्य साहित्य की अभिवृद्धि कर सके।श्31 उन्होंने एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा हैएश् फिर इसके अलावे भोजपुरी में कवि का लिखा हुआ कोई रामायण या किसी विनय पत्रिका ऐसा ग्रंथ नहीं है। उनकी स्फुट रचनाएँ ही भक्तों द्वारा संकलन की गई हैं।श्32
भोजपुरी का वर्तमान और भविष्य:
वर्तमान समय में भोजपुरी ने स्वयं को एक सर्वप्रमुख भाषा के रूप में स्थापित करने में सफलता प्राप्त की है, जिसका श्रेय विदेशों में रहने वाले भारतवंशी भोजपुरी लोगों को दिया जाना चाहिए। इनमें एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जिनका जन्म भी भारत में नहीं हुआ और आज से 250-300 साल पहले उनके पूर्वज गिरमिटिया मजदूर के रूप में विदेश गए थे किन्तु उन्होंने अपनी माटी एवं पूर्वजों की भाषा के प्रति अपनी अटूट आस्था दिखाते हुए न सिर्फ अपनी जड़ों को बचाकर रखा है, बल्कि भारतीयों को भी विवश किया है कि वे भोजपुरी भाषा की ताकत को पहचानें और इसके संवर्धन हेतु प्रयत्नशील हों।
इक्कीसवीं सदी के अत्याधुनिक संचार उपकरणों ने भोजपुरी को लोकप्रिय बनाने में सहायता दी है। आज मात्र भोजपुरी में कार्यक्रम प्रसारित करने वाला महुआ चैनल भोजपुरी क्षेत्र में ही नहीं वरन् देश के प्रत्येक अंचल में रुचिपूर्वक देखा जा रहा है। मालिनी अवस्थी, मनोज तिवारी मृदुल, बालेश्वर यादव आदि भोजपुरी लोकगायकों की ख्याति सम्पूर्ण विश्व में है। इसकी शुरूआत सन् 1940 में भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी रंगमंच की स्थापना करके की थी। बिदेसिया, लोहा सिंह, गबरघिचोर, बेटीवियोग, राधेश्याम बहार एवं कलियुगी प्रेम जैसे उनके भोजपुरी नाटकों ने तत्समय पर्याप्त हलचल मचाई थी, किन्तु उन्हें सुयोग्य उत्तराधिकारी न मिलने के कारण भोजपुरी रंगमंच असमय ही काल-कवलित हो गया। इसके बाद आज से लगभग चालीस साल पहले राजश्री प्रोडक्शन्स के ताराचन्द्र बड़जात्या ने ष्नदिया के पारष् नामक सुपरहिट भोजपुरी फिल्म बनाकर भोजपुरी फिल्मों की परम्परा का सूत्रपात किया। इस फिल्म में चित्रित खाँटी भोजपुरी परिवेश तथा भोजपुरी संवादों एवं गीतों ने सम्पूर्ण जनता को मदमस्त कर दिया था। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में भोजपुरी सिनेमा अपनी तन्द्रा से जागा है और भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ सी आ गई है। गंगा मइया तोहरे पियरी चढ़इबो, बिदेसिया, बलम परदेसिया, गंगा किनारे मोरा गाँव, ससुरा बड़ा पइसा वाला, पण्डितजी बताई ना ब्याह कब होई, दरोगाा बाबू आई लव यू, दूल्हा मिल दिलदार, दगाबाज बलमा, दंगल आदि भोजपुरी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता की नयी इबारत लिखी है। और तो और अमिताभ बच्चन जैसे सदी के महानायक तथा लोकप्रिय दक्षिण भारतीय बॉलीवुड अभिनेत्री नगमा ने भी भोजपुरी फिल्मों में काम करके इन फिल्मों की महत्ता प्रदर्शित की है। अनेक दक्षिण भारतीय फिल्मकार भी भोजपुरी फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं। रविकिशन, मनोज तिवारी ष्मृदुलष्, राकेश पाण्डेय, कमाल खान, सुजीत कुमार, कुणाल सिंह, श्वेता तिवारी आदि भोजपुरी अभिनेता- अभिनेत्रियों की लोकप्रियता हिन्दी अभिनेताओं को टक्कर दे रही है। टी0 वी चैनलों पर भी भोजपुरी धारावाहिक अत्यन्त लाकप्रिय हो रहे हैं। अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो (ज़ी टी0 वी0), भाग्यविधाता (कलर्स), स्वर्ग (कलर्स) आदि धारावाहिक टी0 आर0 पी0 में तेज़ी से ऊपर चढ़ रहे हैं। महुआ चैनल पर प्रसारित होने वाले भोजपुरी लोकगीतों को समर्पित ष्सुरसंग्रामष् नामक कार्यक्रम को भी लोग काफी रुचिपूर्वक देख रहे हैं। भारत सरकार ने भी भोजपुरी के संरक्षण-संवर्धन हेतु दिल्ली में भोजपुरी अकादमी की स्थापना की है, जो भोजपुरी के सतत् संवर्धन हेतु प्रयत्नशील है। ये सभी घटनाक्रम भोजपुरी के उज्ज्वल भविष्य के परिचायक हैं।
सन्दर्भ सूची:
1. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 21.
2. शाहाबाद गजेटियर, पृष्ठ 151.
3. सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1957, पृष्ठ ´.
4. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, पृष्ठ 4 में राहुल सांकृत्यायन के वक्तव्य से उद्धृत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1965.
5. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, पृष्ठ 6 में राहुल सांकृत्यायन के वक्तव्य से उद्धृत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1965.
6. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी के कवि और काव्य, पृष्ठ 9.
7. पृथ्वीसिंह मेहता अपनी पुस्तक बिहार: एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन, पृष्ठ 173.
8. इपिग्राफिका इण्डिका- भाग 1, पृष्ठ 156.
9. जॉर्ज ए0 ग्रियर्सन, लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, भाग 2, 1903 पृष्ठ 3-4.
10. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011,पृष्ठ 23.
11. डॉ0 उदयनारायण तिवारी, भोजपुरी भाषा और साहित्य, पृष्ठ 5 तथा पृष्ठ 18.
12. षष्ठ अखिल भारतीय ओरियण्टल कॉन्फ्रेंस, पटना की कार्रवाई रिपोर्ट, पृष्ठ 186.
13. ऋग्वेद, 3.53.7.
14. डॉ0 श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1971, पृष्ठ 32.
15. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 25.
16. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 26.
17. जॉर्ज ए0 ग्रियर्सन, लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, भाग 2, 1903, पृष्ठ 44.
18. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 27.
19. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, पृष्ठ 24.
20. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 36.
21. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, में जॉर्ज ग्रियर्सन के वक्तव्य से उद्धृत, पृष्ठ 23.
22. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, पृष्ठ 24.
23. डॉ0 श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1971, पृष्ठ 28.
24. डॉ0 श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1971, पृष्ठ 27.
25. दैनिक जागरण, झाँसी संस्करण में रजनीश त्रिपाठी का बहल बा बसंती बयार लोकप्रियता के शीर्षक से आलेख, दिनांक 17 अक्टूबर, 2009.
26. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकसाहित्य का अध्ययन (अप्रकाशित) पृ0 12 तथा डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, पृष्ठ 24.
27. डॉ0 श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1971, भूमिका, पृष्ठ 1.
28. सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1957, पृष्ठ ठ.
29. सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1957, पृष्ठ ठ-ड.
30. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, पृष्ठ 33-35.
31. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1965, पृष्ठ 72.
32. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1965, पृष्ठ 73.

किसी राष्ट्र के सांस्कृतिक वैभव का परिचायक वहाँ का लोक साहित्य होता है, जिसमें उस राष्ट्र के राजनैतिक-सामाजिक गीत, विरह गीत इत्यादि को वाणी प्रदान की जाती है। यूँ तो प्रायः प्रत्येक देश में लोक साहित्य की एक सुदीर्घ परंपरा प्राप्त होती है, परन्तु अधिकांश देशों का लोक साहित्य एकाध भाषाओं अथवा बोलियों तक सीमित रहता है। भारतवर्ष इस मामले में सौभाग्यशाली है क्योंकि इस देश की कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी की परंपरा ने इसे बोलियों एवं भाषाओं का एक विस्तृत कोश प्रदान किया है, जिसमें लोक साहित्य के अलबेले रंग-रूप क्रीड़ा करते हुए देखे जा सकते हैं।  कहना न होगा, भोजपुरी भी इस कोश की अक्षय मंजूषा है।

नामकरण:

भोजपुरी शब्द का भाषा के रूप में सर्वप्रथम उल्लेख पटना के ष्गजेटियर्स रिवीजन स्कीमष् के विशेष अफसर पी.सी. राय चौधरी के अनुसार भोजपुरिया नाम से सन् 1789 में हुआ।1 भोजपुरी भाषा का नामकरण बिहार में बक्सर के निकट स्थित ष्भोजपुरष् नामक स्थान से हुआ है, जो बिहार के बक्सर सब डिवीज़न में डुमराँव से दो मील की दूरी पर स्थित है। यह पटना से सौ मील की दूरी पर है। माना जाता है कि भोजपुर किसी जमाने में मालवा अर्थात् उज्जैन से आए शक्तिशाली राजपूतों की राजधानी था। इसके नामकरण के विषय में प्रमुखतः प्रचलित मत निम्नांकित हैं –

1. शाहाबाद गजेटियर के अनुसार भोजपुर एक गाँव है, जो बक्सर सब डिवीजन में डुमराँव से दो मील उत्तर में बसा हुआ है। सन् 1921 ई0 में इसकी जनसंख्या 3605 थी। इस गाँव का नाम मालवा नरेश राजा भोज के नाम पर पड़ा है। कहा जाता है कि राज भोज ने राजपूतों के एक गिरोह के साथ यहाँ आक्रमण किया था और यहाँ के आदिवासी चेरों को हराकर अपने अधीन किया था। राजा भोज के महलों के भग्नावशेष यहाँ आज भी विद्यमान हैं।2 डॉ0 सत्यव्रत सिन्हा का भी यही दृष्टिकोण है।3

2. राहुल सांकृत्यायन का मन्तव्य है- श्शाहाबाद के उज्जैन राजपूत मूल स्थान के कारण उज्जैन पीछे की राजधानी धार से भी आए कहे जाते हैं। सरस्वती कण्ठाभरण धारेश्वर महाराज भोज के वंश के ही शान्तनशाह 14 वीं सदी में धार राजधानी के मुसलमानों के अधिकार में चले जाने के कारण जहाँ-तहाँ होते हुए बिहार के इस भाग में पहुँचे। यहाँ के पुराने शासकों को पराजित करके महाराज शान्तनशाह ने पहले दाँवा (बिहिआ ई0 आई0 आर0 स्टेशन के पास छोटा सा गाँव) को अपनी राजधानी बनाई। उनके वंशजों ने जगदीशपुर मठिला और अन्त में डुमराँव में अपनी राजधानी स्थापित की। पुराना भोेजपुर गंगा में बह चुका है। नया भोजपुर डुमराँव स्टेशन से 2 मील के करीब है।श्4 उन्होंने शान्तनशाह के दादा द्वितीय भोज या भारत के प्रतापी नरराज महाराज भोज प्रथम के नाम पर इस क्षेत्र का नामकरण भोजपुर किए जाने की सम्भावना व्यक्त की है।5 आपने मालवा के परमार राजाओं की वंशावली भी दी है।

3. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह अपने ग्रंथ ष्भोजपुरी के कवि और काव्यष् में लिखते हैं कि दोनों भोजपुर (वर्तमान नया भोजपुर तथा पुराना भोजपुर) गाँवों को डुमराँव राजवंश के दो परमार राजाओं ने बसाया था, जिनमें प्रथम धार नरेश राजा भोजदेव (1005- 1055 ई0) थे। इन्हीं के नाम पर इसका नामकरण भोजपुर किया गया। आपने अपने एक अन्य ग्रंथ ष्भोजपुरी लोकगीत में करुण रसष् में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य की भी चर्चा की है, जो बुन्देलखण्ड अंचल में विख्यात ऐतिहासिक जगद्देव का पँवारा से सम्बन्धित है। यह टीकमगढ़ से प्रकाशित लोकवार्त्ता नामक त्रैमासिक में इसके सम्पादक श्री कृष्णानन्द गुप्त जी ने जून 1944 (वर्ष 1, अंक 1, पृष्ठ 17) में प्रकाशित किया था। इसके अनुसार जो असल धार का परमार होगा, उसकी गरदन में तीन बल्लियाँ (कम्बुग्रीव) अवश्य होंगी। यह किंवदन्ती मालवा के राजपूतों में ही नहीं, बल्कि भोजपुरी क्षेत्रों -शाहाबाद तथा आरा एवं निकटवर्ती स्थलों के राजपूतों में भी प्रचलित है।6 इससे भी मालवा के राजपूतों का भोजपुर से अटूट सम्बन्ध प्रमाणित होता है।

4. पृथ्वीसिंह मेहता अपनी पुस्तक ष्बिहार: एक ऐतिहासिक दिग्दर्शनष् में एक भिन्न दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं। उनके मतानुसार कन्नौज के प्रतिहार राजा मिहिरभोज ने ही भोजपुर बसाया था। आपके अनुसार सन् 836 ई0 में मिहिरभोज भिन्नमाल की गद्दी पर बैठा। शीघ्र ही उसने पालवंशी देवपाल को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया एवं कन्नौज को ही अपनी राजधानी बनाया और उत्तर में कश्मीर सीमा तक, पश्चिम में मुलतान तक तथा पूरब में बिहार तक अपना सामा्रज्य स्थापित किया।7 राजा देवपाल से ही उसने पश्चिमी बिहार भी छीना था, जो वर्तमान भोजपुर क्षेत्र है। इस तथ्य की पुष्टि मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से भी होती है।8

5. ग्रियर्सन अपने सर्वेक्षण ग्रंथ ष्लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डियाष् में मालवा नरेश भोजदेव के नाम पर ही भोजपुर का नामकरण स्वीकार करते हैं।9 डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय भी कमोबेश इसी मत की पुष्टि करते हुए लिखते हैं कि वर्तमान भोजपुर आजकल एक सामान्य गाँव होने पर भी ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी भोजपुरी भूमि को विख्यात आल्हा तथा ऊदल की प्रसविनी भूमि होने का श्रेय प्राप्त है। पिछले समय में राजपूताने से आकर उज्जैन राजपूतों ने यहाँ अपना विस्तृत राज्य स्थापित किया और भोजपुर को प्रधान नगर बनाया।10 पं0 बलदेव उपाध्याय ने डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय की ष्भोजपुरी लोकगीतष् नामक पुस्तक की भूमिका में इसी तथ्य की पुष्टि करने का प्रयत्न किया है।

6. डॉ0 उदयनारायण तिवारी एक रोचक स्थापना देते हुए लिखते हैं कि भोजपुर नामकरण किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर नहीं हुआ था, बल्कि उज्जैनी भोजों के नाम पर इसका नामकरण हुआ होगा।11 उन्होंने अपने दावे के समर्थन में आइने अकबरी, बादशाहनामा तथा कुछ अंग्रेज़ विद्वानों का हवाला दिया है।

7. डॉ0 ए0 बनर्जी शास्त्री इसी से मिलती-जुलती बात कहते हुए लिखते हैं कि विश्वामित्र जिन लोगों के साथ यज्ञ  करते थे, उन्हें वे इमेभोजा कहते थे।12 इसकी पुष्टिस्वरूप वे ऋग्वेद की एक ऋचा उद्धृत करते हैं-

इमेभोजा अंगिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः।

विश्वामित्राय ददतो मघानि सहóसावे प्रतिरन्त आयुः।13

इसी के आधार पर वे भोज उपाधिधारी नरेशों के निवास स्थल होने के कारण इस क्षेत्र को भोजपुरी क्षेत्र स्वीकार करते हैं। डॉ0 श्रीधर मिश्र भी इसी मत के पक्षधर हैं।14

उपर्युक्त सभी मतों का विवेचन करने के पश्चात यही तथ्य समीचीन प्रतीत होता है कि चूँकि भोजपुर क्षेत्र का मालवा के परमार नरेशों के साथ सम्बन्ध इतिहाससम्मत है तथा जगद्देव का पँवारा से सम्बन्धित किंवदन्ती मालवा ही नहीं बल्कि गुजरात, बुन्देलखण्ड तथा सुदूर भोजपुरी अंचल में भी कमोबेश उसी रूप में प्रचलित है, अतः भोजपुर नामकरण निश्चय ही धार के परमार नरेश महाप्रतापी भोज के नाम पर किया गया होगा। चूँकि महाराजा भोज की अक्षय कीर्ति को उनके उत्तराधिकारी सहेज नहीं सके तथा उन्हें भागकर भोजपुर अंचल में शरण लेनी पड़ी, अतः अपने अतीत के गौरव को वहाँ के निवासियों तथा पराजित स्थानीय चेर राजाओं के समक्ष जताने के उद्देश्य से उन्होंने अपने महान पूर्वज राजा भोज के नाम पर ही इस अंचल का नामकरण भोजपुर किया होगा। अतः इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

भोजपुरी की व्याप्ति:

भोजपुुरी एक अत्यन्त मधुर एवं संगीतात्मकता से परिपूर्ण भाषा है,, जिसकी मिठास केवल भारत ही नहीं वरन् नेपाल, फिजी, मारीशस, सूरीनाम, गुयाना, ट्रिनीडाड और टोबैगो, सिंगापुर दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, थाईलैण्ड आदि देशों में भी गूँज रही है। नेपाल में तोे भोजपुर को वहाँ की 14 मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची में स्थान दिया गया है।15 आज विश्व के लगभग 44 करोड़ भारतवंशी लोगों की मातृभाषा के रूप में भोजपुरी समादृत है। यदि भारत में भोजपुरी क्षेत्र की ओर नज़र दौड़ाएँ तो पाते हैं कि उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, सोनभद्र, बलिया, आजमगढ़, जौनपुर, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, मऊनाथ भंजन, भदोही (संत रविदास नगर), चन्दौली, सिद्धार्थनगर तथा इलाहाबाद जिले के कुछ क्षेत्रों एवं बिहार तथा झारखण्ड के भोजपुर, शाहाबाद, सारण, सीवान, रोहतास, महाराजगंज, पूर्वी चम्पारन एवं पश्चिमी चम्पारन, मोतिहारी, छपरा, पलामू, राँची, गोपालगंज और आरा (भभुआ) तथा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर एवं जसपुर जिलों में इसकी जड़ें फैली हैं। प्रो0 मनोरंजनप्रसाद सिनहा की निम्नांकित लोरी से भोजपुरी के क्षेत्र का द्योतन होता है-

आरे आवऽ

छपरा आवऽ

बलिया-मोतिहारी आवऽ

गोरखपुर देवरिया आवऽ

बस्ती अउर जौनपुर आवऽ

मिर्जापुर-बनारस आवऽ

सोने के कटोरिया में

दूध-भात ले ले आवऽ

बबुआ के मुँहवा में घुटूक।16

ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में लिखा हैश् गंगा से उत्तर इस भाषा (भोजपुरी) की सीमा मुजफ्फरपुर जिले के पश्चिमी भाग की मगही है। फिर उस नदी के दक्षिण इसकी सीमा गया और हजारीबाग की मगही से मिल जाती है। वहाँ से यह सीमान्त रेखा दक्षिण-पूर्व की ओर हजारीबाग की मगही भाषा के उत्तर घूमकर सम्पूर्ण राँची पठार और पलामू तथा राँची जिले के अधिकांश भागों में फैल जाती है। दक्षिण की ओर यह सिंहभूमि की उड़िया और गंगपुर स्टेट की तद्देशीय भाषा से परिसीमित होती है। यहाँ से भोजपुरी की सीमा जसपुर रियासत के मध्य से होकर राँची पठार के पश्चिमी सरहद के साथ-साथ दक्षिण की ओर जाती है, जिससे सरगुजा और पश्चिमी जसपुर की छत्तीसगढ़ी भाषा से इसका विभेद होता है। पलामू के पश्चिमी प्रदेश से गुजरने के बाद भोजपुरी भाषा की सीमा मिर्जापुर जिले के दक्षिणी प्रदेश में फैलकर गंगा तक पहुँचती है। यहाँ यह गंगा के बहाव के साथ-साथ पूर्व की ओर घूमती है और बनारस के निकट पहुँचकर गंगा पार कर जाती है। इस तरह मिर्जापुर जिले के उत्तरी गांगेय प्रदेश के केवल अल्प भाग पर ही इसका प्रसार रहता है। मिर्जापुर के दक्षिण में छत्तीसगढ़ी से इसकी भेंट होती है, परन्तु उस जिले के पश्चिमी भाग के साथ-साथ उत्तर की ओर घूमने पर इसकी सीमा पश्चिम में पहले बघेलखण्ड की बघेली और फिर अवध की अवधी से जा लगी है।श्17

सरिता बुद्धु ने मुजफ्फरपुर तथा वैशाली में भी भोजपुरी की व्याप्ति मानी है,18 जबकि डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय ने फैजाबाद को भी इसमें परिगणित कर लिया है।19

भोजपुरी जन:

भोजपुर क्षेत्र के निवासियों ने कूपमण्डूकता से सदैव परहेज किया है और अपनी निर्धनता तथा बेकारी से मुक्ति पाने हेतु उन्होने न सिर्फ भारत, अपितु विदेशों में भी काम की तलाश में जाने से गुरेज नहीं किया है। अट्ठारहवीं शताब्दी में वे गिरमिटिया मजदूर के रूप में विभिन्न देशों में मजदूर बनकर गए और अपनी मेहनत, दृढ़ इच्छा शक्ति तथा संकल्पनिष्ठता के बल-बूते पर उन्होंने प्रगति एवं विकास की ऐसी अमर गाथा लिखी कि आज अनेक देशों में वे राजनीति में भी शिखर तक पहुँचे हैंे। आज भी देश-विदेश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में परिश्रम तथा ईमानदारी की मिसाल पेश करते भोजपुरी जन देखे जा सकते हैं। मारीशस, फिजी तथा ट्रिनीडाड और टोबैगो में तो उन्होंने राष्ट्राध्यक्ष के पद को भी सुशोभित किया है। सर शिवसागर रामगुलाम, वासुदेव पाण्डेय तथा महेन्द्र पाण्डेय ऐसे ही नाम हैं। युवा मोहनदास को महात्मा गाँधी के रूप में परिवर्तित करने का श्रेय दक्षिण अफ्रीका के भोले-भाले अधिकांश गिरमिटिया भोजपुरी मजदूरों को ही है, जिनके साथ अंग्रेज़ों द्वारा किए गए क्रूर अत्याचारों का सफलतापूर्वक विरोध करने के बाद ही गाँधी जी को सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्धि हासिल हुई थी और भारत आने पर उन्हें देश का निर्विवाद नेता स्वीकार कर लिया गया था। यहाँ आते ही उन्होने भोजपुरी क्षेत्र चम्पारन के नील उत्पादक किसानों को शोषण से बचाने के लिए आन्दोलन छेड़ा और जन-जन के कण्ठहार बन गए।

जॉर्ज ग्रियर्सन ने भोजपुरी लोगों की प्रशंसा करते हुए लिखा हैए श् भोजपुरी वाले साहसी कार्य करने हेतु उत्सुक रहते थे। जिस प्रकार आयरलैण्ड के लोग छड़ी के शौकीन हैं, उसी प्रकार हृष्ट-पुष्ट भोजपुरी लोग अपने घर से दूर अपने हाथों में लाठी लिए खेतों में काम करते हैं। हजारों की संख्या में ये मजदूर ब्रिटिश उपनिवेशों में गए।श्20 ग्रियर्सन ने ही भोजपुरी भाषा तथा लोगों के विषय में एक अन्य स्थान पर लिखा हैए श् भोजपुरी उस उत्साहित जाति की व्यावहारिक भाषा है, जो परिस्थिति के अनुरूप ढलने को हमेशा तैयार रहती है और जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान के हर एक भाग पर पड़ा है। हिन्दुस्तान में सभ्यता फैलाने का यश बंगालियों और भोजपुरियों को प्राप्त है। इस काम में बंगालियों ने अपने कलम से काम लिया है और वीर भोजपुरियों ने अपने डण्डे से।श्21

भोजपुरवासियों की वीरता एवं अक्खड़पन के विषय में भोजपुरी में एक उक्ति मशहूर है-

भागलपुर का भगेलुआ, कहल गाँव का ठग्ग।

जो  पावै  भोजपुरिया, तोड़ै  दोनों का रग्ग।।22

एक अन्य स्थान पर इसे कुछ अलग अंदाज में कहा गया है। आइए, देखें-

भागलपुर का भगेलुआ भइया, कहल गाँव का ठगग।

पटना  का   देवालिया,      तीनू      नामजद्द।

सुनि  पावै  भोजपुरिया, त  तुरै  तीनों   का रग्ग।।23़

एक अन्य उदाहरण देखें-

जे  हमरा  के  जानी,  ओकरा   जान   देइ  देबि,

बाकिर जे आँख देखाई, ओकरा आँखि निकालि लेबि।24

भोजपुरी फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता रविकिशन ने सोनी टी0 वी0 के रियलिटी शो बिग बॉस सीज़न 1 में भोजपुरी लोगों के चरित्र का आकलन करते हुए एक उक्ति कही थी-

ष्जिन्दगी झण्ड बाऽ, फिर भी घमण्ड बाऽष्

यह उक्ति भोजपुरी लोगों की निर्धनता के बावजूद उनके स्वाभिमान को अभिव्यक्त करती है। काफी समय तक भोजपुरी लोगों को अशिक्षित, गँवार, असभ्य तथा इनके लोकगीतों को अश्लील समझा जाता रहा और यही कारण था कि एक लम्बे समय तक पढ़ा-लिखा उच्च शिक्षित भोजपुरी समाज अपने को भोजपुरी बताने तथा भोजपुरी भाषा का प्रयोग करने में संकोच का अनुभव करता था, परन्तु आज ये बन्धन ढीले पड़े हैं।

भोजपुरी रचनाकार चन्द्रशेखर मिश्र से एक बार किसी ने पूछा था कि भोजपुरी लोग अपनी भोजपुरी में बात करनेे में संकोच का अनुभव क्यों करते हैं तो उनका सीधा सा जवाब था कि उन्हें अपनी भाषा की ताकत का अंदाजा नहीं है। जिस दिन उन्हें अपनी भाषा अपनी बोली का मर्म पता चल जाएगा, उस दिन यह झिझक अपने आप टूट जाएगी और मान से इतरा उठेंगे यही लोग।25 और आज ऐसा ही हो रहा है। आज भोजपुरी भारत की सर्वाधिक तेज़ी से विकसित एवं लोकप्रिय हो रही सह भाषाओं में से एक है।

भोजपुरी साहित्य:

अधिकांश विद्वानों ने इस बात पर आश्चर्य जताया है कि भोजपुरी भाषा के इतनी सरस, मधुर एवं जीवन्त होने के बावजूद इसमें अपेक्षित मात्रा में साहित्य सृजन नहीं हुआ है, जबकि इसकी पड़ोसी अवधी तथा मैथिली साहित्य सृजन की दृष्टि से इससे कोसों आगे हैं। विद्वानों ने इसका कारण भी खोजने का प्रयत्न किया है और इस सम्बन्ध में मूलतः दो मत ही सामने आए हैं। प्रथम मत के अनुसार भोजपुरी को राज्याश्रय नहीं मिल सका, इसी कारण इसके साहित्य में अपेक्षित श्रीवृद्धि नहीं हो सकी।  डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय जी लिखते हैैंएश् भोजपुरी साहित्य की अभिवृद्धि न होने का प्रधान कारण है, राज्याश्रय का अभाव। भोजपुरी प्रदेश में किसी प्रभावशाली, व्यापक एवं प्रतापी नरेश का पता नहीं चलता। अधिकतर इसमें किसानों की ही बस्तियाँ हैं। किसी गुणग्राही नरेश का आश्रय न मिलने से इस भाषा का साहित्य समृद्ध न हो सका। भोजपुरी को तो न विद्यापति मिले, न सूर ही। मैथिली और ब्रज के समान इसकी वृद्धि हो तो कैसे।श्26 डॉ0 सम्पूर्णानन्द जी भी प्रायः इसी दृष्टिकोण को व्यक्त करते हुए लिखते हैंएश्तुलसी ने अवधी और विद्यापति ने मैथिली को गौरवान्वित किया है, परन्तु मेरी जानकारी में भोजपुरी को किसी महाकवि ने अपनी प्रतिभा के माध्यम के रूप में नहीं अपनाया। कबीर भोजपुरी प्रदेश के रहने वाले अवश्य थे, परन्तु उनकी काव्य साधना प्रायः खड़ी बोली में हुई है। लेकिन जहाँ लिखित साहित्य के क्षेत्र में यह खटकने वाला अभाव दीख पड़ता है, वहाँ भोजपुरी का अलिखित वाड.मय भण्डार, उसका लोक साहित्य बहुत समृद्ध है, इसमें कोई सन्देह नहीं।श्27

डॉ0 सत्यव्रत सिन्हा ने भोजपुरी के लिखित साहित्य के विकसित न हो पाने के दो कारण बताए हैैंंएश् प्रथम, प्राचीन काल में जहाँ बंगाल एवं मिथिला के ब्राह्मणों ने संस्कृत के साथ-साथ अपनी मातृभाषा को भी साहित्यिक रचना के लिए अपनाया, वहाँ भोजपुरी पण्डितों ने केवल संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन पर ही विशेष बल दिया। संस्कृत के अध्ययन का प्राचीन केन्द्र काशी भोजपुरी प्रदेश में ही स्थित है। संस्कृत साहित्य को उत्तरोत्तर परिष्कृत करने में तथा उसके प्रचार को अक्षुण्ण बनाए रखने के कारण भोजपुरी पण्डितों द्वारा मातृभाषा की उपेक्षा की गयी। भोजपुरी में साहित्य के अभाव का द्वितीय कारण है राज्याश्रय का अभाव।श्28 यद्यपि वे इस बात को पूर्णतः स्वीकार नहीं करते कि भोजपुरी में साहित्य का सर्वथा अभाव है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने भोजपुरी में साहित्य सृजन करने वाले कवियों संतों के नाम दिए हैं, जिनमें प्राचीन काल के धरमदास, शिवनारायण, धरनीदास तथा लक्ष्मीसखी एवं आधुनिक काल के बिसराम, तेजअली, बाबू रामकृष्ण वर्मा, दूधनाथ उपाध्याय,  बाबू अम्बिका प्रसाद, भिखारी ठाकुर, मनोरंजन प्रसाद सिनहा, रामबिचार पाण्डेय, प्रसिद्ध नारायण सिंह, पण्डित महेन्द्र शास्त्री, श्याम बिहारी तिवारी, चंचरीक, रघुवीर शरण तथा रणधीरलाल श्रीवास्तव के नाम उद्धृत किए हैं।29 डॉ0 उदय नारायण तिवारी तथा डॉ0 मैनेजर पाण्डेय ने तो कबीरदास जी को भोजपुरी के प्रथम कवि की संज्ञा दी है। डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय ने कबीर, जायसी, तुलसी आदि कवियों के साहित्य में अनेक स्थलों पर प्रयुक्त हुए भोजपुरी शब्दों की पहचान कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उनकी भाषा पर भोजपुरी की छाप अवश्य है।30

राज्याश्रय के अभाव के कारण साहित्य के विकसित न हो पाने का कारण बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि किसी भाषा के साहित्य के विकसित होने के लिए राज्याश्रय अपरिहार्य होता तो अवधी में साहित्य सृजन सम्भव ही नहीं हो पाता क्योंकि अवधी को भी प्रायः राज्याश्रय नहीं मिला था, किन्तु वह न सिर्फ विकसित हुई बल्कि भक्ति काल के सन्त कवियों की वाणी बनकर प्रवाहित हुई। यह अवश्य अंशतः सत्य हो सकता है कि संस्कृत साहित्य को उत्तरोत्तर परिष्कृत करने में तथा उसके प्रचार को अक्षुण्ण बनाए रखने के कारण भोजपुरी पण्डितों द्वारा मातृभाषा की उपेक्षा की गयी हा,े किन्तु आम जनता ने इस क्षेत्र में सभी जनभाषाओं को पर्याप्त सम्मान दिया है। भोजपुरी क्षेत्र अर्थात् पश्चिमी बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश ने कभी भी संस्कृत का अंधानुकरण नहीं किया और पालि, प्राकृत आदि जनभाषाओं को भी पूर्ण सम्मान दिया है। यहाँ संस्कृत के प्रधान केन्द्र काशी स्थित सारनाथ में सारनाथ में चिरकाल से पालि का पर्याप्त प्रचार रहा है। अतः भोजपुरी में लिखित साहित्य प्राप्त न हो पाने के पीछे यही कारण हो सकता है कि भोजपुरी का प्रचार ग्रामीण जनता में अधिक रहा होगा तथा प्रबुद्ध लोगों ने इसे साहित्यिकता की दृष्टि से उपयोगी न समझा होगा।

अतः दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह का यह दृष्टिकोण सन्तुलित प्रतीत होता हैएश् प्रथम यह कि किसी भी भाषा को साहित्य का माध्यम बनाना राज्य के अधिकार की बात नहीं है। यह तो कोई सिद्धहस्त प्रतिभासम्पन्न लेखक ही कर सकता है। राज्य अधिक से अधिक इस दिशा में यही कर सकता है कि वह उस भाषा के गद्य को अपने राजकीय कामों के लिए व्यवहार में लावे। सो, इसको सभी राज्यों ने पूर्वकाल से ही करना शुरू किया, जो आज तक जारी है। यही नहीं, वर्तमान सरकार ने भी जब-जब उसे प्रचार की आवश्यकता पड़ी है, इसको अपनाया है। पर तब भी भोजपुरी में न तो विद्यापति जी ऐसा मातृभाषा प्रेमी कोई कवि ही हुआ, जो अपनी प्रतिभा इसमें दिखा कर विद्वानों को भोजपुरी की ओर आकृष्ट कर सके और न ही हरिश्चन्द्र जी के ऐसा इसको कोई गद्य लेखक ही मिला, जो इसके गद्य साहित्य की अभिवृद्धि कर सके।श्31 उन्होंने एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा हैएश् फिर इसके अलावे भोजपुरी में कवि का लिखा हुआ कोई रामायण या किसी विनय पत्रिका ऐसा ग्रंथ नहीं है। उनकी स्फुट रचनाएँ ही भक्तों द्वारा संकलन की गई हैं।श्32

भोजपुरी का वर्तमान और भविष्य:

वर्तमान समय में भोजपुरी ने स्वयं को एक सर्वप्रमुख भाषा के रूप में स्थापित करने में सफलता प्राप्त की है, जिसका श्रेय विदेशों में रहने वाले भारतवंशी भोजपुरी लोगों को दिया जाना चाहिए। इनमें एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जिनका जन्म भी भारत में नहीं हुआ और आज से 250-300 साल पहले उनके पूर्वज गिरमिटिया मजदूर के रूप में विदेश गए थे किन्तु उन्होंने अपनी माटी एवं पूर्वजों की भाषा के प्रति अपनी अटूट आस्था दिखाते हुए न सिर्फ अपनी जड़ों को बचाकर रखा है, बल्कि भारतीयों को भी विवश किया है कि वे भोजपुरी भाषा की ताकत को पहचानें और इसके संवर्धन हेतु प्रयत्नशील हों।

इक्कीसवीं सदी के अत्याधुनिक संचार उपकरणों ने भोजपुरी को लोकप्रिय बनाने में सहायता दी है। आज मात्र भोजपुरी में कार्यक्रम प्रसारित करने वाला महुआ चैनल भोजपुरी क्षेत्र में ही नहीं वरन् देश के प्रत्येक अंचल में रुचिपूर्वक देखा जा रहा है। मालिनी अवस्थी, मनोज तिवारी मृदुल, बालेश्वर यादव आदि भोजपुरी लोकगायकों की ख्याति सम्पूर्ण विश्व में है। इसकी शुरूआत सन् 1940 में भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी रंगमंच की स्थापना करके की थी। बिदेसिया, लोहा सिंह, गबरघिचोर, बेटीवियोग, राधेश्याम बहार एवं कलियुगी प्रेम जैसे उनके भोजपुरी नाटकों ने तत्समय पर्याप्त हलचल मचाई थी, किन्तु उन्हें सुयोग्य उत्तराधिकारी न मिलने के कारण भोजपुरी रंगमंच असमय ही काल-कवलित हो गया। इसके बाद आज से लगभग चालीस साल पहले राजश्री प्रोडक्शन्स के ताराचन्द्र बड़जात्या ने ष्नदिया के पारष् नामक सुपरहिट भोजपुरी फिल्म बनाकर भोजपुरी फिल्मों की परम्परा का सूत्रपात किया। इस फिल्म में चित्रित खाँटी भोजपुरी परिवेश तथा भोजपुरी संवादों एवं गीतों ने सम्पूर्ण जनता को मदमस्त कर दिया था। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में भोजपुरी सिनेमा अपनी तन्द्रा से जागा है और भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ सी आ गई है। गंगा मइया तोहरे पियरी चढ़इबो, बिदेसिया, बलम परदेसिया, गंगा किनारे मोरा गाँव, ससुरा बड़ा पइसा वाला, पण्डितजी बताई ना ब्याह कब होई, दरोगाा बाबू आई लव यू, दूल्हा मिल दिलदार, दगाबाज बलमा, दंगल आदि भोजपुरी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता की नयी इबारत लिखी है। और तो और अमिताभ बच्चन जैसे सदी के महानायक तथा लोकप्रिय दक्षिण भारतीय बॉलीवुड अभिनेत्री नगमा ने भी भोजपुरी फिल्मों में काम करके इन फिल्मों की महत्ता प्रदर्शित की है। अनेक दक्षिण भारतीय फिल्मकार भी भोजपुरी फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं। रविकिशन, मनोज तिवारी ष्मृदुलष्, राकेश पाण्डेय, कमाल खान, सुजीत कुमार, कुणाल सिंह, श्वेता तिवारी आदि भोजपुरी अभिनेता- अभिनेत्रियों की लोकप्रियता हिन्दी अभिनेताओं को टक्कर दे रही है। टी0 वी चैनलों पर भी भोजपुरी धारावाहिक अत्यन्त लाकप्रिय हो रहे हैं। अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो (ज़ी टी0 वी0), भाग्यविधाता (कलर्स), स्वर्ग (कलर्स) आदि धारावाहिक टी0 आर0 पी0 में तेज़ी से ऊपर चढ़ रहे हैं। महुआ चैनल पर प्रसारित होने वाले भोजपुरी लोकगीतों को समर्पित ष्सुरसंग्रामष् नामक कार्यक्रम को भी लोग काफी रुचिपूर्वक देख रहे हैं। भारत सरकार ने भी भोजपुरी के संरक्षण-संवर्धन हेतु दिल्ली में भोजपुरी अकादमी की स्थापना की है, जो भोजपुरी के सतत् संवर्धन हेतु प्रयत्नशील है। ये सभी घटनाक्रम भोजपुरी के उज्ज्वल भविष्य के परिचायक हैं।

सन्दर्भ सूची:

1. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 21.

2. शाहाबाद गजेटियर, पृष्ठ 151.

3. सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1957, पृष्ठ ´.

4. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, पृष्ठ 4 में राहुल सांकृत्यायन के वक्तव्य से उद्धृत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1965.

5. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, पृष्ठ 6 में राहुल सांकृत्यायन के वक्तव्य से उद्धृत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1965.

6. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी के कवि और काव्य, पृष्ठ 9.

7. पृथ्वीसिंह मेहता अपनी पुस्तक बिहार: एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन, पृष्ठ 173.

8. इपिग्राफिका इण्डिका- भाग 1, पृष्ठ 156.

9. जॉर्ज ए0 ग्रियर्सन, लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, भाग 2, 1903 पृष्ठ 3-4.

10. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011,पृष्ठ 23.

11. डॉ0 उदयनारायण तिवारी, भोजपुरी भाषा और साहित्य, पृष्ठ 5 तथा पृष्ठ 18.

12. षष्ठ अखिल भारतीय ओरियण्टल कॉन्फ्रेंस, पटना की कार्रवाई रिपोर्ट, पृष्ठ 186.

13. ऋग्वेद, 3.53.7.

14. डॉ0 श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1971, पृष्ठ 32.

15. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 25.

16. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 26.

17. जॉर्ज ए0 ग्रियर्सन, लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, भाग 2, 1903, पृष्ठ 44.

18. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 27.

19. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, पृष्ठ 24.

20. सरिता बुद्धु, मारीशस की भोजपुरी परंपराएँ, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ 36.

21. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, में जॉर्ज ग्रियर्सन के वक्तव्य से उद्धृत, पृष्ठ 23.

22. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, पृष्ठ 24.

23. डॉ0 श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1971, पृष्ठ 28.

24. डॉ0 श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1971, पृष्ठ 27.

25. दैनिक जागरण, झाँसी संस्करण में रजनीश त्रिपाठी का बहल बा बसंती बयार लोकप्रियता के शीर्षक से आलेख, दिनांक 17 अक्टूबर, 2009.

26. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकसाहित्य का अध्ययन (अप्रकाशित) पृ0 12 तथा डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, पृष्ठ 24.

27. डॉ0 श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1971, भूमिका, पृष्ठ 1.

28. सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1957, पृष्ठ ठ.

29. सत्यव्रत सिन्हा, भोजपुरी लोकगाथा, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1957, पृष्ठ ठ-ड.

30. डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकगीत भाग1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सं0 2011, पृष्ठ 33-35.

31. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1965, पृष्ठ 72.

32. दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1965, पृष्ठ 73.

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