साहित्येतिहास के काल विभाजन के नामकरण का एक लघु प्रयास
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एक इतिहास यह भी हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएँ विषय पर केन्द्रित समसामयिक सृजन का विशेषांक भाई महेंद्र प्रजापति जी के सौजन्य से प्राप्त हुआ। साहित्येतिहास एक ऐसा विषय रहा है, जो हरेक दौर में आलोचकों को चुनौती देता रहा है क्योंकि साहित्येतिहास न तो कभी खत्म हो सकता है और न ही इसे कोई अंतिम रूप से लिख सकता है। साहित्येतिहास लेखन करते समय समकालीन साहित्य हमारे लिए एक बड़ी मुश्किल खड़ी करता है और प्राचीन साहित्य के क्षेत्र में नवीनतम अनुसंधान से प्राप्त तथ्य पूर्ववर्ती साहित्य के इतिहास लेखन के रास्ते में नए पग चिह्न बना देते हैं, जिनकी उपेक्षा करना मुमकिन नहीं होता। नवीनतम सांस्कृतिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, आर्थिक एवं सामाजिक घटनाक्रम साहित्य पर अपने तीखे निशान छोड़ जाते हैं, जिनकी पहचान करना साहित्येतिहास लेखक की बुद्धिमत्ता की कसौटी होता है। इसके अतिरिक्त साहित्येतिहास लेखन की परंपरा और नवीनतम साहित्य के अद्यतन स्वरूपों का ज्ञान भी एक बड़ा प्रश्न है जिससे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। महेंद्र जी ने अपने संपादकीय में साहित्येतिहास लेखन के विभिन्न कोणों की पड़ताल की है और पूर्ववर्ती साहित्येतिहासों की सीमाएं भी सुस्पष्ट कर दी हैं। वे सही कहते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास को नए विमर्शों से जोड़ने के लिए शुक्ल जी के इतिहास से बाहर आना आवश्यक है, लेकिन दुर्भाग्यवश आज एक भी ऐसा समीक्षक नहीं दीखता, जो इस चुनौती को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने का साहस कर सके। साहित्येतिहास लेखन गहन अध्ययन एवं मनन की मांग करता है और आज के फास्ट फूड संस्कृति के दौर में शायद हम साहित्यकार भी इस मांग को देखकर पीछे हट जाते हैं। यही वजह है कि पिछले चालीस सालों से हिन्दी का कोई प्रामाणिक इतिहास हमारे सामने नहीं आया है। इस कारण सत्तर के दशक के बाद के साहित्य की आहटों को हम एक सुव्यवस्थित स्वरूप दे पाने में नाकाम रहे हैं; न ही काल विभाजन की कोई मौलिक अवधारणा हमारे सामने आ सकी है। एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि साहित्यिक काल विभाजन में प्रायः सभी विद्वानों ने नामकरण करते समय साहित्यिक प्रवृत्ति को महत्त्व न देकर अन्य प्रवृत्तियों को महत्त्वपूर्ण माना है, जो एक बड़ी चूक या सीमा कही जा सकती है। उदाहरण के लिए आदिकाल, चारण काल, सिद्ध सामंत काल आदि नाम तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों का द्योतन नहीं करते वरन ये इतिहास के द्योतक हैं। मैंने साहित्यिक प्रवृत्तियों को मूल आधार मानकर साहित्येतिहास के काल विभाजन के नामकरण का एक लघु प्रयास किया है, जो आपकी सम्मतियों हेतु प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस काल विभाजन में साहित्य की समस्त प्रवृत्तियों को आत्मसात करने का एक प्रयत्न आप देख सकते हैं। इस काल निर्धारण में साहित्य को ‘अभिनय’ के सापेक्ष माना गया है। जिस प्रकार अभिनय के द्वारा हम किसी कृतिकार की भावनाओं का सजीव सचित्र निरूपण कर देते हैं, ठीक उसी प्रकार साहित्य में कृतिकार भी हृदयगत भावनाओं को शब्दों के द्वारा मूर्त्त रूप प्रदान करता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अभिनय के कारकों को ही साहित्येतिहास को प्रदर्शित करने वाले कारकों का रूप दे दिया गया है। अभिनय की सर्वांगता के लिए चार तत्वों का सुचारु एवं समुचित कार्यान्वयन होना आवश्यक है। ये चार तत्व हैं- 1- वाचिक, 2- सात्त्विक, 3- कायिक अथवा आंगिक, और 4- आहार्य। वाचिक को मैंने साहित्येतिहास में ‘वाचिक काल’ कहा है तथा इसे प्रचलित आदिकाल नाम के विकल्प के रूप में पेश किया है। अभिनय के संदर्भ में वाचिक का कार्य है- ओजपूर्ण वाक्यावली, संवादों में उतार-चढ़ाव वाले स्थलों की प्रधानता, विस्मय, दुख, क्षोभ आदि सूचक शब्द। इन प्रवृत्तियों को हम इस काल के साहित्य में भी पाते हैं। वाचिक काल को अर्थ एवं प्रवृत्तियों के आधार पर दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- (क) पूर्व वाचिक (ख) उत्तर वाचिक। पूर्व वाचिक प्राचीनतम हिन्दी साहित्य को व्यक्त करेगा। इससे अभिप्राय उस साहित्य से है, जो लिखित रूप में बहुत कम उपलब्ध है और यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रायः ‘वाचन’ के माध्यम से हस्तांतरित होता रहा और आज तक अक्षुण्ण रूप में विद्यमान है। नाथ साहित्य, सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य आदि इस कोटि में आएंगे। इस नामकरण से एक लाभ यह भी है कि हम हिन्दी साहित्य को जितना पीछे ले जाना चाहें, ले जाएँ, नामकरण पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उत्तर वाचिक रासोकालीन साहित्य को व्यक्त कर सकता है क्योंकि यहाँ ‘वाचिक’ से तात्पर्य उस साहित्य से है, जिसका वाचन कवि अथवा भाटगण राजाओं के दरबारों में किया करते थे। भक्ति काल के निरूपण के लिए ‘सात्त्विक काल’ नामकरण किया जा सकता है। सात्त्विक की जो प्रवृत्तियाँ हम अभिनय में पाते हैं, वही इस काल में भी दृष्टिगत होती हैं। अभिनय के अंतर्गत सात्त्विक से अभिनय कर्त्ता के भावों एवं रसों के सही प्रदर्शन की जानकारी मिलती है, उसी प्रकार ‘सात्त्विक काल’ के साहित्य में भावों का प्रबल उद्दाम एवं सभी रसों का कौशलपूर्ण समन्वय देखा जा सकता है; विचारों की सात्त्विकता तो है ही। ‘सात्त्विक काल’ के अंतर्गत तीन प्रकार की प्रवृत्तियाँ लक्षित हुई हैं- (अ) उपदेशात्मक, (ब) सगुणात्मक भक्ति, और (स) सूफी प्रेमाख्यानात्मक। ‘कायिक काल’ अथवा ‘आंगिक काल’ को रीतिकालीन साहित्य की प्रवृत्ति के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। अभिनय के संदर्भ में कायिक अथवा आंगिक का अर्थ विविध प्रकार के भावों एवं भावों के अनुकूल अंगों का संचालन एवं मुख मुद्राओं का सम्यक प्रदर्शन करना है। रीति कालीन साहित्य में नायिका भेद तथा श्रंगारिकता को इस श्रेणी में सहज ही रखा जा सकता है। इसे अध्ययन की सुगमता के लिए दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है-(क) काव्यांग सापेक्ष कवि, (ब) काव्यांग निरपेक्ष कवि अथवा स्वच्छंदतावादी कवि। ‘आहार्य काल’ आधुनिक काल के समकक्ष माना जा सकता है, अभिनय कला में आहार्य विविधता का द्योतक है। अभिनय हेतु आवश्यक विविध वस्त्राभूषणों की समुचित व्यवस्था इस कोटि में आती है, लेकिन जब हम इसे साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो पाते हैं कि यह काल विधागत विविधता की दृष्टि से अपना अलग महत्त्व रखता है, इसलिए इस काल का नामकरण आहार्य काल किया जा सकता है। आहार्य काल को निम्नांकित उपकालों में बांटा जा सकता है- 1- बीजवपन काल (भारतेन्दु युग), 2- प्रौढ़तर काल (द्विवेदी युग), 3- प्रौढ़तम काल (छायावाद), 4- प्रगतिवादी या मार्क्सवादी धारा, 5- प्रयोगवादी या फ्रायडवादी धारा, 6- नई कविता तथा नई कहानी धारा, 7- मोहभंग की कविता, कहानी तथा उपन्यास (साठोत्तरी), 8- भूमंडलीकृत धारा। इस काल विभाजन में प्रयास यही रहा है कि प्रत्येक काल की सर्वप्रमुख प्रवृत्ति को आधार बनाया जाए, लेकिन हम सभी साहित्य के विद्यार्थी यह जानते हैं कि कोई भी प्रवृत्ति सहसा विलुप्त नहीं होती बल्कि एक क्षीण धारा के रूप में समानान्तर चलती रहती है या कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ भी होती हैं, जो नवीन होते हुए भी सर्वप्रमुख नहीं बन पातीं। ऐसी प्रवृत्तियों को स्थान देने के लिए प्रत्येक काल के नाम में ‘इतर’ शब्द जोड़कर ऐसी प्रवृत्तियों को भी स्थान दिया जा सकता है। उदाहरण के लिए – वाचिक काल के समय की भक्ति की प्रवृत्तियों को ‘इतर वाचिक’ में, सात्त्विक काल के समय की श्रंगारिक प्रवृत्तियों को इतर कायिक में रखकर विश्लेषित किया जा सकता है। इसी प्रकार आहार्य काल में चले समस्त आंदोलन एवं प्रवृत्तियाँ इतिहास में अपना स्थान प्राप्त कर सकते हैं। यदि इस काल विभाजन पर आप सबकी सहमति बनती है तो डॉ नगेन्द्र के बाद साहित्येतिहास पर एक नए ग्रंथ का सम्पादन करने की दिशा में मैं आगे बढ़ने की कोशिश कर सकता हूँ। (भाई महेंद्र प्रजापति की पत्रिका समसामयिक सृजन जुलाई- सितम्बर २०१२ में प्रकाशित मेरी टिप्पणी )
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