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स्त्री विमर्श का वैदिक परिप्रेक्ष्य

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समकालीन साहित्य में महिला विमर्श एक अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य कर्म है। वर्तमान समय में महिला-विमर्श पर वार्ता करना साहित्य की सर्वप्रमुख विशेषता बन गयी है, परन्तु हम इसकी जड़ें चिर प्राचीन काल से भारतीय दर्शन में पाते हैं। भारतीय संस्कृति एवं दर्शन सदैव ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ सिद्धान्त का अुनगामी है। भारत में सर्वदा नारी को अत्यन्त उच्च स्थान पर प्रतिष्टित किया गया तथा उसे लक्ष्मी, देवी, साम्राज्ञी, महिषी आदि सम्मानसूचक नामों से अभिहित किया जाता था। वेदकाल में नारी को एक रत्न की संज्ञा दी जाती थी। अथर्व वेद में नारी के सम्मान को वर्णित करने वाला एक श्लोक दृष्ट्रव्य है-
अनुव्रतः पितुः पुत्रो माता भवतु सम्मनाः।
जाया परये मतुमतीं वाचं यददु शान्तिवाम्।।1
वैदिक काल में ‘परिवार’ नामक संस्था अत्यधिक विकसित एवं पल्लवित थी। इस काल में आर्यजन परिवार के रूप में एक इकाई बनकर रहा करते थे । उस समय सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा थी। ऋग्वेद में विवाह के दौरान पुरोहित वर-वधू को यह आशीर्वाद दिया करते थे कि तुम लोग यहीं निवास करो, वियुक्त मत होओ, अपने घर में पुत्रों तथा पौत्रों के साथ खेलते तथा आनन्द मनाते सम्पूर्ण आयु का उपभोग करो।2
विदा होते समय पुरोहित वधू को यह आशीष दिया करते थे कि तू सास- श्वसुर, ननद-देवर पर शासन करने वाली रानी3 बन। इन श्लोकों से यह सि( हो जाता है कि वैदिक काल में परिवार नामक संस्था अत्यन्त सुदृढ़तापूर्वक विद्यमान थी तथा उसमें वधू का अत्यन्त उच्च एवं प्रतिष्ठित स्थान हुआ करता था। घर की बड़ी स्त्री अपने पति के अधीन रहती हुई भी समस्त गृह प्रबन्ध में
प्रधान संचालिका हुआ करती थी। घर के समस्त कार्य तथा दायित्व उसके संरक्षण में तथा उसी की इच्छानुसार सम्पादित किए जाते थे। उत्सव, यज्ञ, हवन आदि के लिए उसकी सहमति आवश्यक थी। उसका सभी परिवारीजन आदर करते थे तथा उसकी आज्ञा पालन को सदैव तत्पर रहते थे। इतना ही नहीं, विवाह होने पर पति गृह में आते ही वधू को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हो जाता था तथा घर के सभी कनिष्ठ सदस्य उसे सम्मान की दृष्टि से देखते थे एवं पति गृह में आते ही वधू सास, श्वसुर आदि की दृष्टि में साम्राज्ञी बन जाती थी।4 सम्पन्न एवं कुलीन घरों की महिलाएं परिचारकों तथा परिचारिकाओं का भी कर्त्तव्य निर्देशन किया करती थीं। पुरुषों का इसमें अनावश्यक दखल नहीं था। वे अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में पूर्ण प्रफुल्लित रहती थीं।
वैदिक काल में महिलाओं के रहने हेतु पृथक् स्थल हुआ करते थे, जिन्हें ‘पत्नीनां सदनं’ कहा जाता था, जहाँ स्त्रियाँ पुरुषों की दृष्टि से अलग स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण करती थीं। एक कक्ष से दूसरे कक्ष तक वे स्वतंत्रतापूर्वक आया-जाया करती थीं, परन्तु बाहर जाते समय वे एक चादर से अपना शरीर ढँक लिया करती थीं।5
परिवार में तत्समय अनेक व्यक्ति मिल-जुलकर रहते थे। अथर्ववेद के स्वापन सूक्त6 में परिवार के अनेक व्यक्तियों को सुलाने के मंत्र हैं तथा सामनस्य सूक्त7 में कुटुम्ब के सभी व्यक्तियों के एक साथ एक जगह प्रेमपूर्वक निवास करने की प्रेरणा है। एक साथ भोजन-भजन करने, एक साथ दायित्वों का निर्वहन करने तथा मिल-जुलकर व्यवसाय में प्रवृत्त होने की भी प्रेरणा यत्र-तत्र विद्यमान है। उस काल में शत्रुओं से रक्षा करने हेतु भी संयुक्त परिवार होने आवश्यक थे, जिनमें परिवार के पंच आधारों मातृ स्नेह, पितृ स्नेह, दाम्पत्य आसक्ति, अपत्य प्रीति और सहधर्मिता की अनिवार्यता प्रतीत होती थी। ऋग्वेद8, यजुर्वेद9 और अथर्ववेद10 में पितरों की तथा अग्नि की पूजा के अनेक मंत्र हैं।
स्त्री शिक्षा:
वेद काल में स्त्री शिक्षा का पर्याप्त प्रचार था। गार्गी, मैत्रेयी आदि स्त्रियों ने शास्त्रार्थ में पुरुषों को पराजित किया था, इससे सुस्पष्ट है कि तत्समय महिलाओं को विद्याध्ययन हेतु उदारतापूर्वक प्रोत्साहित किया जाता था। कहीं-कहीं तो सहशिक्षा भी थी, परन्तु यह सर्वत्र नहीं थी। अध्ययन कार्य में महिलाएँ पुरुषों के समान ही दक्षता प्राप्त करती थीं। काव्य, संगीत, नृत्य तथा अभिनय आदि ललित कलाओं में वे बढ़-चढ़कर ज्ञानार्जन करती थीं।
हारीत संहिता के अनुसार महिलाएँ दो प्रकार की होती थीं, जिन्हें ब्रह्मवादिनी और सद्योवाह कहा जाता था। ब्रह्मवादिनी यज्ञाग्नि प्रज्वलित करने, वेदाध्ययन करने तथा अपने ही घरों से भिक्षा माँगने की अधिकारिणी थीं। माधवाचार्य के मतानुसार स्त्रियों का विवाह उपनयन के पश्चात ही होता था।11उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों में से कुछ आजन्म ब्रह्मचारिणी रहकर आध्यात्मिक उन्नति में लगीं लगी रहती थीं, इन्हें ब्रह्मवादिनी कहा जाता था। अन्य स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन का संचालन करती थीं, किन्तु गृहस्थाश्रम में प्रवेश लेने से पूर्व वे ब्रह्मचारिणी रहकर अध्ययन कर चुकी होती थीं।12 ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ वेदाध्ययन करतीं, काव्य रचना करतीं तथा त्याग, तपस्या के द्वारा ऋषिभाव प्राप्त करके मंत्रों का साक्षात्कार भी कर लेती थीं। ऋग्वेद के अनेक सूक्त महिलाओं ने साक्षात्कृत किए हैं। उदाहरणार्थ – ऋग्वेद दशम मण्डल के 39, 40 वें सूक्त तपस्विनी ब्रह्मवादिनी घोषा के हैं और ऋग्वेद के 1.27.7 वे मंत्र की ऋषि रोमशा, 1.5.29 वें मंत्र की विश्वारा, 1.10.45 वें मंत्र की दृष्टा इन्द्राणी, 1.10.159 वें मंत्र की ऋषि अपाला थीं। अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा ने पति के साथ ही सूक्त का दर्शन किया था। सूर्या भी एक ऋषिका थीं।
सैन्य शिक्षाः
तत्समय महिलाएँ पति के साथ युद्ध में भी जाती थीं तथा उनके रथों का संचालन करती थीं। विश्चला पति के साथ युद्ध में गयी थी, जहाँ युद्ध भूमि में उसकी टांग टूट गयी थी, जिसे अश्विनी कुमारों ने ठीक किया था। वृत्रासुर के साथ उसकी माता हनु भी युद्ध में इन्द्र के द्वारा मारी गयी थी। नमुचि के पास तो महिलाओं की एक पूरी सेना ही थी। मुद्गल पत्नी इन्द्रसेना ने सूक्ष्म रथ संचालन और अस्त्र संचालन करके वीरतापूर्वक इन्द्र के शत्रुओं का नाश किया था। उसने शत्रुओं के छक्के छुड़ाकर उनसे अपहृत गाएँ छुड़ा ली थीं।13 देवताओ के साथ मिलकर दानवों के विरुद्ध युद्ध में कैकेयी द्वारा दशरथ के रथ का संचालन करना विश्व विश्रुत है।
दौत्य कर्म:
तत्समय महिलाएँ दौत्य कर्म में भी निपुण हुआ करती थीं। सरमा इन्द्र की ओर से दूत बनकर पाणि नामक असुर के पास गयी थीं। सरमा-पाणि संवाद तत्कालीन महिलाओं की प्रखर बुद्धि का विस्मयकर उदाहरण है।
उपनयन संस्कार:
प्रारम्भिक काल में महिलाएँ यज्ञोपवीत धारण करके वेद पढ़ती थीं तथा सन्ध्या-वन्दनादिक कर्म करती थीं, परन्तु बाद में स्मृति काल में उनके लिए इनका निषेध कर दिया गया।14
वैदिक देवियाँ:
वेद काल में अदिति, उषा, इन्द्राणी, इला, सिनीवाली, प्रश्नि आदि सुप्रसिद्ध देवियाँ थीं। इनमें देवी अदिति का उल्लेख सर्वाधिक हुआ है। ये सभी सर्वशक्तिमती, विश्वहितैषिणी तथा मंगलकारी देवियाँ मानी गयी हैं। इनके अतिरिक्त दिति, सीता, सूर्या, वाक्, सरस्वती आदि का भी स्तवन हुआ है। देवियों की इस स्तुति से स्पष्ट है कि आर्यजन महिलाओं का कितना सम्मान किया करते थे। वस्तुतः पुरुष की नारी विषयक श्रद्धा का उदात्त रूप देवी स्तवन से स्पष्ट होता है। उस समाज में नारियों का महत्वपूर्ण स्थान था। जैसा कि ‘पत्नी’ शब्द की व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि वह यज्ञ में यजमान की सहधर्मचारिणी होती थीं। पत्नी के बिना पति को यज्ञ करने का अधिकार कदापि नहीं था क्योंकि ‘पत्नी अपना ही आधा भाग है’ तथा ‘जाया ही घर है’ यह वेदकाल में एक सर्वमान्य भावना थी। दुहिता, पत्नी और माता तीनों ही रूप में नारी सम्माननीया थी। गायों के दुहने का कार्य दुहिता के जिम्मे होने के कारण ही उसे दुहिता की संज्ञा दी जाती थी। परिवार का यह आवश्यक कार्य करने के कारण वह माता-पिता की लाड़ली होती थी। कन्या पवित्रता की प्रतीक तथा वात्सल्य का आधार थी। माता अथवा जाया से तो पुरुष ही पुनः उत्पन्न होता है।15 इससे वही शोभा है, वही ऐश्वर्य है16, जाया कल्याणी और सुषमामयी है।17 जाया ही घर है और विश्राम स्थल है।18 माता तो सर्वाधिक आदरणीय है।19 माता इसलिए आदरणीया है क्योंकि वही तो निर्मात्री जननी है।20 ऋग्वेद में माता शब्द अंतरिक्ष, नदी, जल तथा पृथ्वी के अर्थ में भी आया है, जिससे माता के महत्त्व का द्योतन होता है।
ऋग्वेद के अनुसार माता सर्वाधिक घनिष्ट और प्रिय सम्बन्धी है।21 भक्त परमात्मा को पिता की अपेक्षा माँ कहकर अधिक सन्तुष्ट होता है।22 यही कारण है कि प्रारम्भिकतम काल में ईश्वर के रूप में सर्वप्रथम मातृदेवी की अवधारणा की गयी होगी तथा उन्हें सम्मान प्रदान करते हुए प्रथम पूज्य ईश्वर के रूप में माना गया होगा। अनेक ग्रंथों में सृष्टि की सर्जक के रूप में आदि शक्ति का प्रत्याख्यान आता है, जिससे सुस्पष्ट है कि सर्वप्रथम ईश्वर के रूप में महिला का ही अंकन कल्पित किया गया होगा। माता-पिता के समास में ऋग्वेद माता को उच्च स्थान देता है।23 वेद ने माता को गुरु की संज्ञा दी है और कहा है कि शिशु की प्रथम गुरु माँ ही होती है, जो सर्वप्रथम उसे दुग्धपान की शिक्षा देती है।24
अथर्ववेद में आदेश है कि माता के अनुकूल मन वाले बनो।25 शांख्यायन धर्म सूत्र के अनुसार उपनयन संस्कार के समय ब्रह्मचारी को सर्वप्रथम अपनी माता से भिक्षा मांगने का विधान है, इससे माता का पिता से अधिक अधिकार एवं उत्कर्ष सिद्ध होता है।26 वैदिक युग में माताएँ ही कन्याओं को सुसज्जित किया करती थीं।27 कन्याओं के विवाह में माताओं के अधिकार अधिक होते थे। दार्म की कन्या के साथ श्यावाश्व का विवाह तभी हो सका, जब कन्या की माता ने स्वीकृति दे दी।28 वीरिणी या वीर जननी होने के कारण माता की प्रतिष्ठा पिता से अधिक थी।29
वेदों में गृहिणी:
वैदिक युग में पत्नी को बहुत आदर प्राप्त था। आर्य पत्नी को ही घर मानते थे – ‘पत्नी ही घर है’।30 उनका मत था कि पत्नी घर पर रानी की भाँति रहे।31 उनके गृहस्थ धर्म का आशय था- नारी के साथ रहकर धर्म अनुष्ठान और यज्ञ सम्पादन करना। बिना नारी के गृह का अस्तित्व कहाँ है और गृह के अभाव में गृहस्थ धर्म का सम्पादन हो तो भला कैसे? इस विचारधारा में गृहिणी गृहस्थ धर्म की प्रतिष्ठा का एकमात्र सहायक आधार थी। पति-पत्नी दोनों मिलकर यज्ञ करते थे।32 यही नहीं स्त्रियाँ स्वतंत्र रूप से भी यज्ञ करती थीं।33
शस्य वृद्धि हेतु सीता स्वतंत्र रूप से यज्ञ करती थीं। यज्ञ वेदी के निर्माण में और स्थालीपाक में दानों के छिलके अलग करने तथा अन्य अनेक याज्ञिक कार्यो में वे पति की सहायता करती थीं। पूर्व मीमांसा34 के अनुसार पति-पत्नी दोनों सम्पत्ति के स्वामी होते थे। अतः पत्नी को यज्ञ का
अधिकार नहीं था, परन्तु कालान्तर में स्त्रियों के मासिक धर्म, उपनयन संस्कार के अभाव, अन्तर्जातीय विवाह और कर्मकाण्ड की जटिलता के कारण उनका यज्ञ में भाग लेना कम होता गया।
पशु रक्षिणी तथा वीर प्रसविनी नारी का उस समय बड़ा आदर था। ऐसा इसलिए था क्योंकि आर्य जन शत्रुओें से रक्षा करने के लिए वीर सन्तान की इच्छा करते थे और पशु धन उनकी समृद्धि के द्योतक थे। ऐसी पत्नी की प्राप्ति के लिए लोग देवताओं की प्रार्थनाएँ तथा उपासनाएँ भी करते थे।¬35 ऋग्वेेद से ज्ञात होता है कि लोग स्त्री की प्राण रक्षा तथा मर्यादा रक्षा के लिए सहर्ष आत्म बलिदान तक कर देते थे।36 समाज में उन्हें बहुत ही आदर और दुलार के साथ रखा जाता था। सूर्या द्वारा आविष्कृत मंत्रों से स्पष्ट है कि यद्यपि स्त्री पति के अधीन थी, तथापि घर पर उसी का आधिपत्य था।
गृहिणी के नामों में जाया, जनी और पत्नी प्रचलित थे । पति का प्यार पाने वाली ‘जाया’ सन्तान की माता ‘जनी’ और पति की सहकर्मिणी ‘पत्नी’ ये तीनों एक ही भार्या की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के नाम थे । इन नामों से तथा विवाह की पद्धति से स्पष्ट है कि उस समय पत्नी के हाथों में घर के समस्त अधिकार दे दिए गए थे। वही सबकी भौतिक आवश्यकताओं एवं सुख-समृद्धि का प्रबन्ध करती थी। पत्नी सम्मान तथा सहानुभूति की पात्र थी, यहां तक कि जुआरी भी अपनी पत्नी की दुर्दशा पर दुखी होता था।37 ऋग्वेेद के कुछ मंत्रों से सती प्रथा38 का प्रचलन भी प्रकट होता है, जिसमें मृत पति के साथ पत्नी के भी गाडे़ जाने का उल्लेख है, किन्तु ये सन्दर्भ अत्यल्प हैं।
पत्नी के प्रति पति के कर्तव्य:
पत्नी पुरूष का आधा स्वरूप है।39 इसीलिए पत्नी के बिना पति अपूर्ण है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पत्नी के बिना पति स्वर्ग नहींे जा सकता । पत्नी के बिना वह किसी यज्ञ का अधिकारी भी नहीं हो सकता।40 यही कारण था कि राम को यज्ञ के समय सीता की मूर्ति रखनी पड़ी थी। इसी कारण याज्ञवल्क्य ने यह विधान किया कि एक पत्नी के मरने के बाद यज्ञ कार्य के लिए तुरन्त पति दूसरा विवाह करंे।41 वेदों के अनुसार पति को पत्नी का समादर करना चाहिए। वह लक्ष्मी का स्वरूप है।42 पत्नी की यह पूजा पति को संसार मे फँसा देने के लिए नहीं होती वरन् पत्नी की कर्त्तव्यपरायणता के कारण होती है।43 स्त्रियों का नाम ‘मेना’ है क्योंकि वे पुरुष की सम्माननीया हैं।44 पत्नी का नाम जाया है क्योंकि उसमें पति गर्भ रूप से उत्पन्न होता है।45 नारी सखा है।46 पति-पत्नी का सम्बन्ध सरस और प्रेममय होता है।47 इस मार्ग से अपकार नहीं वरन् प्रशंसा और धन लाभ होता है तथा दम्पति सहयोगपूर्वक अपने जीवन को सफलता से पार कर लेते हैं।48 दोनों का सामूहिक नाम ही ‘दम्पति’ है इसका अर्थ है- घर का स्वामी, अर्थात् दोनों मिलकर ही घर के स्वामी होते थेे। पति-पत्नी परस्पर समान ही नहीं थे, वरन् एक ही सत्य के दो अंग थे । ऋग्वेेद में पत्नी को पति का नेम अर्थात् आधा अंग कहा गया है।49 शतपथ ब्राह्मण में इसकी व्याख्या करते हुए पति-पत्नी को दाल के दोनों दलों की भाँति कहा गया है।50 वृहदारण्यक उपनिषद में भी यही शब्द है। इस प्रकार वे दोनों मिलकर एक मन होकर सब कार्य करते थे। यथा सोमरस निकालते, यज्ञ करते तथा काम सुखोपभोग करते थे।51
सन्दर्भ संकेत:
1. अथर्ववेद 3.30.11
2. इहैव वस्त मा वियौष्ठं, विश्वमामुर्ण्यश्नुतम्। क्रीडन्तो पुत्रेर्नप्तृभि मोर्दमानौ स्वे गृहे।। ऋग्वेद 10.85.42
3. ऋग्वेद 10.85.46 तथा अथर्ववेद 14.1.22
4. यथा सिन्धुर्नदीनां साम्राज्यं सुषुवे वृक्षा।
5. गुहा चरन्ती योषा यजुर्वेद 1.167.3
6. प्रोष्ठेश्या प्ल्मेशया नारीर्या बह्यशीवरी। स्त्रियो याः पुण्यगंध्यस्ता सर्वाः स्वापयामसि।। अथर्ववेद 4.5.3
7. सहृदयं साम्मनस्य मविद्वेषं कृणोमि वः। अन्यो अन्यंभिर्ह्यत वत्सं जातमिवध्न्या।। अथर्ववेद 4.5.7
8. यजुर्वेद 6.52.4
9. अथर्ववेद 10.15.9
10. ऋग्वेद 7.1.2 तथा 7.1.1
11. द्विविधाः स्त्रियो ब्रह्मवादिन्य सधोवाहश्व।तत्र ब्रह्मवादिनी नामन्नीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे च भैक्षचर्येति।- हारीत कृत वीरमित्रोदय, संस्कार प्रकाश
12. ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्। अथर्ववेद 1.15.18
13. ऋग्वेद 10.102.2-11
14. मनुस्मृति 4.205
15. तज्जाया जाया भवति यादस्यां जायते पुनः। ऐतरेय ब्राह्मण
16. आभूरेषाभूति ऐतरेय ब्राह्मण
17. कल्याणी जाया सुरणं गृहे ते। अथर्ववेद 3.52.6
18. जायेदस्तं मधवन् सेदुयोनिः । अथर्ववेद 3.53.4
19. मान् $ तृ = मातृ अर्थात् आदरणीया।
20. यास्क – मातृ = निर्मातृ – निर्माण करने वाली।
21. ऋग्वेद 1.24.1
22. त्वं हि नः पितावसो त्वं माता शत्कृतो बभूविथ। ऋग्वेद 9.98.11
23. ऋग्वेद 4.6.7
24. मातमान पितृमान आचार्यमान् पुरुषो ऋग्वेद।
25. मातृ भवतु सम्मनः । अथर्ववेद 3.30.2
26. शांख्यायन धर्म सूत्र 2.6.5
27. ऋग्वेद 10.18.11
28. वृहद्देवता 5.41
29. यजुर्वेद 4.23 तथा शतपथ ब्राह्मण 3 .3.1.12
30. ऋग्वेेद 3.53.4
31. ऋग्वेेद 10.85.46
32. शतपथ ब्राह्मण 10.2.3, 10.2.3.3, 1.9.2.1, 1.9.2.5., 21-25
33. आश्व श्रौ सू 1.11.1
34. पूर्व मीमांसा 6.1.17.21
35. ऋग्वेद 10.85.44
36. ऋग्वेद 10.39.40
37. ऋग्वेद 10.34.11
38. ऋग्वेद 10.18.07 तथा ऋग्वेद 10.10.13
39. ऋग्वेद 10.18.07 तथा एतरेय ब्राह्मण 3.3.65
40. शतपथ ब्राह्मण 2.2.6
41. याज्ञवल्क्य स्मृति 1.8.9
42. शतपथ ब्राह्मण 13.2.6-7
43. शतपथ ब्राह्मण 1.9.2-3
44. निरूक्त 3.21
45. शतपथ ब्राह्मण 7.1.3
46. शतपथ ब्राह्मण 8.3.13 तथा 3.3.1
47. अथर्ववेद 14.2.8
48. अथर्ववेद 14.2.11
49. ऋग्वेद 5.61.8
50. शतपथ ब्राह्मण 14.4.2.4-5
51. ऋग्वेद 8.31.5-9

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