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इतना सन्नाटा क्यों है भाई!

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अवतार कृष्ण हंगल उर्फ ए. के. हंगल का जन्म 1 फरवरी 1917 को अविभाजित पंजाब के सियालकोट में हुआ था। इनके पूर्वज कश्मीर के रहने वाले कश्मीरी पण्डित थे। हंगल का कश्मीरी में अर्थ होता है.- हिरन। अपने उपनाम के अनुरूप वे वाकई आजन्म हिरन की भाँति सक्रिय और गतिशील रहे। इनके पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य अंग्रेज राज में बड़े ओहदों पर रहे थे। कुछ समय बाद इनके पिता के रिटायर होने पर इनका परिवार कराची ंआ गया। कराची में उन्हांेने परिवार वालों की मर्जी के खिलाफ जाते हुए एस राम टेलरिंग कम्पनी में चीफ कटर की नौकरी ज्वाइन कर ली। दूरदर्शन के लिए विश्वमोहन वडोला को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि वे अपने समय के भारत में सर्वाधिक वेतन पाने वाले कटर थे। वहीं रहकर हंगल साहब ने श्री संगीत प्रिय मण्डल की सदस्यता ग्रहण की और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगे। कराची में रहकर उन्होंने अनेक नाटकों में अभिनय किया तथा पश्चिमोत्तर प्रान्त में जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के खिलाफ हुए आन्दोलन में भाग लिया। आज़ादी मिलने पर उन्होंने कराची छोड़कर भारत आने से मना कर दिया। उन्होंने तत्कालीन पाकिस्तानी अफसरों से कहा कि मैं अपना घर द्वार छोड़कर भला कैसे परदेस जा सकता हूँ। इस पर रूष्ट होकर पाकिस्तानी अफसरों ने उन्हें जेल में डाल दिया। सन 1949 में भारत और पाकिस्तान सरकार के बीच एक समझौता हुआ जिसमें हिन्दुओं एवं मुसलमानों को स्वेच्छा से भारत या पाकिस्तान में जाकर रहने का विकल्प दिया गया था। तीन साल तक पाकिस्तानी कैद में रहने के बाद सन 1949 में उन्हें पानी के जहाज से बंबई लाकर छोड़ दिया गया। बंबई में भी उन्होंने एक टेलर की दुकान पर चीफ कटर की नौकरी करनी शुरू कर दी और कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। बलराज साहनी और कैफी आजमी के साथ हंगल साहब ने इप्टा की भी सदस्यता ले ली और इनके कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी।

हंगल साहब ने अपने फिल्मी कॅरियर की शुरूआत 50 साल की उम्र में सन 1966 में बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम से की। शागिर्द, नमक हराम, शोले, शौकीन, आइना, अवतार, अर्जुन, तपस्या, आँधी, चितचोर, कोरा कागज, बावर्ची, बालिका वधू, चितचोर, मंजिल, गुड्डी, नरम गरम, छुपा रूस्तम, पहेली आदि फिल्मों के उनके चरित्रों को लोग आज भी याद करते हैं। शोले के इमाम साहब, मंजिल के अनोखेलाल, आइना के रामशास्त्री जैसे चरित्रों को निभाकर वे अमर हो गए। सातवें और आठवें दशक में वे अनेक फिल्मों में पिता या चाचा की भूमिकाओं में नजर आए। उनकी अन्तिम फिल्म कृष्णा और कंस नामक एक एनीमेशन फिल्म थी, जो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर 03 अगस्त, 2012 को रिलीज हुई थी। इस फिल्म में उन्होंने कंस के पिता उग्रसेन को अपनी आवाज़ दी थी। चंद्रकांता, जीवन रेखा, बांबे ब्लू, जबान संभाल के और मधुबाला एक इश्क एक जुनून आदि टी.वी. सीरियलों में भी उन्होंने अभिनय किया। हिन्दी सिनेमा में उनके अमूल्य योगदान के लिए सन 2006 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मनित किया गया था। 8 फरवरी सन 2011 को उन्होंने फैशन डिजाइनर रियाज गंजी के परिधानों के लिए व्हील चेयर पर बैठकर रैम्पवाॅक भी किया था। 26 अगस्त 2012 को उन्होंने अन्तिम साँस ली। इस महान कलाकार के निधन पर मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

अवतार कृष्ण हंगल उर्फ ए. के. हंगल का जन्म 1 फरवरी 1917 को अविभाजित पंजाब के सियालकोट में हुआ था। इनके पूर्वज कश्मीर के रहने वाले कश्मीरी पण्डित थे। हंगल का कश्मीरी में अर्थ होता है.- हिरन। अपने उपनाम के अनुरूप वे वाकई आजन्म हिरन की भाँति सक्रिय और गतिशील रहे। इनके पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य अंग्रेज राज में बड़े ओहदों पर रहे थे। कुछ समय बाद इनके पिता के रिटायर होने पर इनका परिवार कराची ंआ गया। कराची में उन्हांेने परिवार वालों की मर्जी के खिलाफ जाते हुए एस राम टेलरिंग कम्पनी में चीफ कटर की नौकरी ज्वाइन कर ली। दूरदर्शन के लिए विश्वमोहन वडोला को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि वे अपने समय के भारत में सर्वाधिक वेतन पाने वाले कटर थे। वहीं रहकर हंगल साहब ने श्री संगीत प्रिय मण्डल की सदस्यता ग्रहण की और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगे। कराची में रहकर उन्होंने अनेक नाटकों में अभिनय किया तथा पश्चिमोत्तर प्रान्त में जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के खिलाफ हुए आन्दोलन में भाग लिया। आज़ादी मिलने पर उन्होंने कराची छोड़कर भारत आने से मना कर दिया। उन्होंने तत्कालीन पाकिस्तानी अफसरों से कहा कि मैं अपना घर द्वार छोड़कर भला कैसे परदेस जा सकता हूँ। इस पर रूष्ट होकर पाकिस्तानी अफसरों ने उन्हें जेल में डाल दिया। सन 1949 में भारत और पाकिस्तान सरकार के बीच एक समझौता हुआ जिसमें हिन्दुओं एवं मुसलमानों को स्वेच्छा से भारत या पाकिस्तान में जाकर रहने का विकल्प दिया गया था। तीन साल तक पाकिस्तानी कैद में रहने के बाद सन 1949 में उन्हें पानी के जहाज से बंबई लाकर छोड़ दिया गया। बंबई में भी उन्होंने एक टेलर की दुकान पर चीफ कटर की नौकरी करनी शुरू कर दी और कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। बलराज साहनी और कैफी आजमी के साथ हंगल साहब ने इप्टा की भी सदस्यता ले ली और इनके कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी।
हंगल साहब ने अपने फिल्मी कॅरियर की शुरूआत 50 साल की उम्र में सन 1966 में बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम से की। शागिर्द, नमक हराम, शोले, शौकीन, आइना, अवतार, अर्जुन, तपस्या, आँधी, चितचोर, कोरा कागज, बावर्ची, बालिका वधू, चितचोर, मंजिल, गुड्डी, नरम गरम, छुपा रूस्तम, पहेली आदि फिल्मों के उनके चरित्रों को लोग आज भी याद करते हैं। शोले के इमाम साहब, मंजिल के अनोखेलाल, आइना के रामशास्त्री जैसे चरित्रों को निभाकर वे अमर हो गए। सातवें और आठवें दशक में वे अनेक फिल्मों में पिता या चाचा की भूमिकाओं में नजर आए। उनकी अन्तिम फिल्म कृष्णा और कंस नामक एक एनीमेशन फिल्म थी, जो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर 03 अगस्त, 2012 को रिलीज हुई थी। इस फिल्म में उन्होंने कंस के पिता उग्रसेन को अपनी आवाज़ दी थी। चंद्रकांता, जीवन रेखा, बांबे ब्लू, जबान संभाल के और मधुबाला एक इश्क एक जुनून आदि टी.वी. सीरियलों में भी उन्होंने अभिनय किया। हिन्दी सिनेमा में उनके अमूल्य योगदान के लिए सन 2006 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मनित किया गया था। 8 फरवरी सन 2011 को उन्होंने फैशन डिजाइनर रियाज गंजी के परिधानों के लिए व्हील चेयर पर बैठकर रैम्पवाॅक भी किया था। 26 अगस्त 2012 को उन्होंने अन्तिम साँस ली। इस महान कलाकार के निधन पर मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

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