- 157 Posts
- 132 Comments
मेरा रँग दे बसन्ती चोला लखनऊ जेल में काकोरी षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे। केस चल रहा था इसी दौरान बसन्त पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन हम सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे। उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ से कहा- “पण्डित जी! कल के लिये कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।” अगले दिन कविता तैयार थी[2]; मेरा रँग दे बसन्ती चोला…. हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला…. इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला, यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला; नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला, किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला। मेरा रँग दे बसन्ती चोला…. हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला…. [संपादित करें]रँग दे बसन्ती में भगतसिंह का योगदान अमर शहीद भगत सिंह जिन दिनों लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इस गीत में ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं: इसी रंग में बिस्मिल जी ने “वन्दे-मातरम्” बोला, यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला; इसी रंग को हम मस्तों ने, हम मस्तों ने; दूर फिरंगी को करने को, को करने को; लहू में अपने घोला। मेरा रँग दे बसन्ती चोला…. हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला…. माय! रँग दे बसन्ती चोला…. हो माय! रँग दे बसन्ती चोला…. मेरा रँग दे बसन्ती चोला….
Read Comments