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गैंग ऑफ़ वासेपुर २ को देखना एक नए किस्म का अनुभव था. इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी इसका खांटी देसीपन है,जो आप कदम कदम पर देख सकते हैं. पहले भाग की तरह यहाँ प्रेम नदारद नहीं है बल्कि बड़े ही रोचक ढंग से पेश हुआ है. ऐसा लगता है जैसे हमारे मोहल्ले का कोई नौसिखिया आशिक इश्क करने का प्रयास कर रहा हो. फैज़ल के इश्क का भोलापन ही उसका सबसे बड़ा हथियार बन जाता है जब उसकी बचकानी हरकतों से नायिका पट जाती है. कुछ सीन अनुराग ऐसे डाल देते हैं जिनसे फिल्म का प्रभाव बढ़ जाता है. जैसे दानिश के मरने पर बजने वाला गीत हो या इंस्पेक्टर द्वारा नाकारे सिपाही को डांटकर भगाते समय लिखी हुई दीवार की पंक्तियाँ या फिर फैज़ल के सेक्स के दौरान सरदार के साथी का विचलित होना. इसके अलावा जब आखिरी दृश्य में फैज़ल रामाधीर सिंह को गोलियां मारता है तो उसके चेहरे पर जैसे भाव आते हैं, वे भाव नवाज़ुद्दीन की अभिनयशीलता की उंचाई को दर्शाते हैं. लोकगीतों तथा नौटंकी की धुन पर बने गीत इस फिल्म के खालिस देसीपन को बढ़ाने का काम करते हैं. क्लाइमैक्स में जब इखलाक को मारने के बाद डेफिनिट अपने भाई को गोली मारता है तब उस थप्पड़ की गूंज सुनाई देने लगती है जो फैज़ल ने कभी उसे मारा था. इसके साथ ही दुर्गा का बदला भी पूरा हो जाता है. डेफिनिट और पर्पेनडीकूलर के करेक्टर को और अधिक विस्तार दिया जा सकता था. इसके अतिरिक्त नायिका की भूमिका भी बेहद सीमित रही है. फिर भी इस फिल्म को देखना एक बेहतरीन अनुभव से गुज़रना है. Puneet Bisaria
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