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स्त्री शिक्षा का वर्तमान परिदृश्य

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शिक्षा किसी भी समाज के सर्वांगीण विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपागम होती है। वस्तुतः किसी भी वर्ग, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र के विकास की सबसे पहली सीढ़ी शिक्षा ही होती है। प्रत्येक समाज की संरचना स्त्री तथा पुरूषों के सामूहिक दायित्वों पर आधारित होती है, किन्तु जब हम शिक्षा एवं स्त्री के अन्तर्सम्बन्धों पर दृष्टिपात करते हैं, तो सामूहिक दायित्व के समान अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में स्त्री सबसे निचले पायदान पर खड़ी दिखाई देती है। यदि आज महिलाएँ, दमित, शोषित एवं वंचित दिखाई देती हैं, तो इसका सबसे बड़ा कारण स्त्रियों की शिक्षा के प्रति समाज की उदासीनता है। यद्यपि सन 1950 में भारत में स्त्री साक्षरता की दर मात्र 18.33 प्रतिशत थी, जो सन 2011 में बढ़कर 50 फीसदी से अधिक हो गई है लेकिन यह आंकड़ा भी हमें उत्साहित नहीं करता क्योंकि अभी भी यह दर पुरूषों की तुलना में काफी कम है।
सरकार ने स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक कार्यक्रम तथा योजनाएँ चलाई हैं, परन्तु फिर भी अपेक्षित विकास एवं सफलता हासिल नहीं हो सकी है। आज भी देश की अनेक बालिकाएँ ऐसी हैं, जो अपने पूरे जीवनकाल में स्कूल का मुँह नहीं देख पातीं। जो बालिकाएँ किसी तरह स्कूल तक पहुँच भी जाती हैं, वे आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पातीं और बहुत कम महिलाएँ काॅलेज या विश्वविद्यालय तक पहुँच पाती हैं। इसका मुख्य कारण भारतीय समाज की महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे की मानसिकता में छिपा है क्योंकि भारतीय समाज आज भी कन्या को पराया धन मानता है और उसे बोझ समझते हुए उसके प्रति विवाह तक ही अपनी जिम्मेदारी समझता है। इसके अतिरिक्त बालिकाओं को घर के कामकाज में भी हाथ बटाना पड़ता है, जबकि बालकों पर ऐसा कोई बोझ नहीं डाला जाता।
यदि बालिका शिक्षा के प्रति उनके माता-पिता जागरूक नहीं हैं, तो फिर महिला विकास एवं स्त्री शिक्ष की बात करने का कोई औचित्य नहीं है। यह दुखद सत्य है कि महिलाएँ ही अपने परिवारों की बालिकाओं की शिक्षा-दीक्षा में सबसे बड़ी रोड़ा बनती हैं। वे परिवार के पुरूषों से अक्सर यह कहती मिल जाएंगी कि लड़की को ज़्यादा पढ़ा लिखाकर करना क्या है? आखिर इसे जाना तो पराए घर ही है। इसलिए इसे घर का कामकाज सीखना चाहिए। यह मानसिकता ही स्त्री शिक्षा की दिशा में सबसे बड़ा अवरोधक है। किसी भी देश का सर्वागीण विकास तभी सम्भव है, जब उस देश की पूरी आबादी शिक्षित, जागरूक एवं सचेत हो। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हम अपने देश की आधी आबादी को अशिक्षित एवं बेकार बनाए रखकर कभी भी देश का सर्वागीण विकास नहीं कर सकते।
सबसे पहला सवाल यह है कि स्त्रियों के लिए किस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की जाए! स्त्रियों को जागरूक बनाने हेतु आवश्यक है कि स्त्री शिक्षा को दो भागों में वर्गीकृत किया जाए- प्रारम्भिक साक्षरता और कार्यात्मक साक्षरता। प्रारम्भिक साक्षरता कक्षा 10 तक है, जिसे सभी स्त्री, पुरूषों के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए।इसके बाद कार्यात्मक अथवा प्रयोजनमूलक शिक्षा आती है, जिसके लिए सरकारी प्रोत्साहन एवं मुफत शिक्षण जैसे कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं। तभी महिलाएँ आत्मनिर्भर बनकर राष्ट्र के समग्र विकास में अपना योगदान दे सकती हैं तथा एक आदर्श नागरिक के रूप में देश की उन्नति का संवाहक बन सकती हैं।

शिक्षा किसी भी समाज के सर्वांगीण विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपागम होती है। वस्तुतः किसी भी वर्ग, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र के विकास की सबसे पहली सीढ़ी शिक्षा ही होती है। प्रत्येक समाज की संरचना स्त्री तथा पुरूषों के सामूहिक दायित्वों पर आधारित होती है, किन्तु जब हम शिक्षा एवं स्त्री के अन्तर्सम्बन्धों पर दृष्टिपात करते हैं, तो सामूहिक दायित्व के समान अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में स्त्री सबसे निचले पायदान पर खड़ी दिखाई देती है। यदि आज महिलाएँ, दमित, शोषित एवं वंचित दिखाई देती हैं, तो इसका सबसे बड़ा कारण स्त्रियों की शिक्षा के प्रति समाज की उदासीनता है। यद्यपि सन 1950 में भारत में स्त्री साक्षरता की दर मात्र 18.33 प्रतिशत थी, जो सन 2011 में बढ़कर 50 फीसदी से अधिक हो गई है लेकिन यह आंकड़ा भी हमें उत्साहित नहीं करता क्योंकि अभी भी यह दर पुरूषों की तुलना में काफी कम है।

सरकार ने स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक कार्यक्रम तथा योजनाएँ चलाई हैं, परन्तु फिर भी अपेक्षित विकास एवं सफलता हासिल नहीं हो सकी है। आज भी देश की अनेक बालिकाएँ ऐसी हैं, जो अपने पूरे जीवनकाल में स्कूल का मुँह नहीं देख पातीं। जो बालिकाएँ किसी तरह स्कूल तक पहुँच भी जाती हैं, वे आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पातीं और बहुत कम महिलाएँ काॅलेज या विश्वविद्यालय तक पहुँच पाती हैं। इसका मुख्य कारण भारतीय समाज की महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे की मानसिकता में छिपा है क्योंकि भारतीय समाज आज भी कन्या को पराया धन मानता है और उसे बोझ समझते हुए उसके प्रति विवाह तक ही अपनी जिम्मेदारी समझता है। इसके अतिरिक्त बालिकाओं को घर के कामकाज में भी हाथ बटाना पड़ता है, जबकि बालकों पर ऐसा कोई बोझ नहीं डाला जाता।

यदि बालिका शिक्षा के प्रति उनके माता-पिता जागरूक नहीं हैं, तो फिर महिला विकास एवं स्त्री शिक्ष की बात करने का कोई औचित्य नहीं है। यह दुखद सत्य है कि महिलाएँ ही अपने परिवारों की बालिकाओं की शिक्षा-दीक्षा में सबसे बड़ी रोड़ा बनती हैं। वे परिवार के पुरूषों से अक्सर यह कहती मिल जाएंगी कि लड़की को ज़्यादा पढ़ा लिखाकर करना क्या है? आखिर इसे जाना तो पराए घर ही है। इसलिए इसे घर का कामकाज सीखना चाहिए। यह मानसिकता ही स्त्री शिक्षा की दिशा में सबसे बड़ा अवरोधक है। किसी भी देश का सर्वागीण विकास तभी सम्भव है, जब उस देश की पूरी आबादी शिक्षित, जागरूक एवं सचेत हो। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हम अपने देश की आधी आबादी को अशिक्षित एवं बेकार बनाए रखकर कभी भी देश का सर्वागीण विकास नहीं कर सकते।

सबसे पहला सवाल यह है कि स्त्रियों के लिए किस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की जाए! स्त्रियों को जागरूक बनाने हेतु आवश्यक है कि स्त्री शिक्षा को दो भागों में वर्गीकृत किया जाए- प्रारम्भिक साक्षरता और कार्यात्मक साक्षरता। प्रारम्भिक साक्षरता कक्षा 10 तक है, जिसे सभी स्त्री, पुरूषों के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए।इसके बाद कार्यात्मक अथवा प्रयोजनमूलक शिक्षा आती है, जिसके लिए सरकारी प्रोत्साहन एवं मुफत शिक्षण जैसे कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं। तभी महिलाएँ आत्मनिर्भर बनकर राष्ट्र के समग्र विकास में अपना योगदान दे सकती हैं तथा एक आदर्श नागरिक के रूप में देश की उन्नति का संवाहक बन सकती हैं।

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