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गाँधी जी का हिन्दुत्व और अस्पृश्यता

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गांधी जी ‘हिन्दुत्व’ के बहुत बड़े आग्रही थे। हिन्दुत्व के प्रति उनकी श्रद्धा इतनी गहरी थी कि वे इसे अपने जीवन की अत्यंत अमूल्य निधि मानते थे। उनका मानना था –

‘‘मुझे अपने सनातनी हिन्दू होने पर गर्व है। यद्यपि मैं हिन्दू धर्मग्रन्थों का आचार्य नहीं हँू, मैं संस्कृत का विद्वान भी नहीं हूँ, लेकिन मैंने वेदों और उपनिषदों के अनुवाद पढ़े है। स्पष्ट है कि मैंने इनका गहन तथा विस्तृत अध्ययन नहीं किया है, लेकिन फिर भी मेरी हिन्दुत्व के प्रति दृढ़ आस्था है।’’1

गांधी जी इस बात से अत्यंत व्यथित थे कि हिन्दू धर्म में अनेक अच्छे विचार होने के बावजूद अस्पृश्यता की विषबेल इस विराट वृक्ष की जड़ों को लगातार खोखला कर रही है। उनका मत था कि यदि हम इस शाप को अपने चिन्तन से नहीं मिटाएंगे तो यह हिन्दुत्व को विनाश के पथ पर ले जा सकता है। वे अस्पृश्यता को हिन्दुत्व के माथे पर बहुत बड़ा कलंक मानते थे। इस सन्दर्भ में उनके बाल्यकाल का एक प्रसंग उद्धृत है –

गांधी जी जब बारह वर्ष के थे, तब उनके जीवन में एक घटना घटी। अक्का नामक एक अस्पृश्य उनके घर शौचालय साफ करने आया करता था। घर के लोग उनसे उस अस्पृश्य को न छूने की बात किया करते थे। कई बार उन्होंने अपनी मां से इसका कारण पूछा कि क्यों सभी लोग मुझे अक्का को छूने से मना करते है, किन्तु उन्हें इसका संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। एक बार धोखे से उन्होंने अक्का का स्पर्श कर लिया, तब उनकी शुद्धि हेतु अनेक कर्मकाण्ड तथा संस्कार घर में आयोजित किये गये, जिनका उन्होंने आज्ञाकारी बालक होने के कारण बड़ी अनिच्छापूर्ण ढंग से पालन तो किया, परन्तु उन्होंने अपनी मां को साफ-साफ बता दिया कि अक्का को स्पर्श करने को पाप समझना बहुत गलत बात है तथा वे अपने इस दृष्टिकोण में सर्वथा गलत हैं।2

इस कथन से स्पष्ट है कि अस्पृश्यता का विरोध करने की स्पृहा गांधी जी में बचपन से ही विद्यमान थी। एक अन्य संस्मरण देखें –

मैं स्कूल में जान-बूझकर  अस्पृश्य बालकों का स्पर्श कर लिया करता था। मेरी मां मुझे बार-बार समझाती थीं कि अस्पृश्यों के स्पर्श कर लेने का निवारण इसमें है कि बदले में किसी मुसलमान का स्पर्श कर लिया जाये और मैं ऐसा कर भी लिया करता था। मैं ऐसा इसलिए करता था क्योंकि मेरे मन में मां के प्रति अत्यंत सम्मान की भावना थी। मैं इस बात के स्वीकार के लिए कोई बहाना नहीं बनाना चाहता कि बारह वर्ष की उस अवस्था में इस बात पर मुझे पाप बोध होता था, लेकिन मैं यह भी विश्वासपूर्वक कहना चाहता हँू कि मैं उस समय भी अस्पृश्यता को एक पाप ही मानता था।3

गांधी जी ने हिन्दुत्व में निहित अस्पृश्यता का निवारण करने के उद्देश्य से अपने समय  के अनेक विद्वानों से इस सम्बन्ध में बात भी की थी। सभी ने उन्हें बताया था कि शास्त्रों में कहीं भी उस अस्पृश्यता का कोई उल्लेख नहीं है, जिसे आज हम व्यवहार में ला रहे हैंे। उनका यह निष्कर्ष था कि सम्पूर्णता में शास्त्रों का अध्ययन करने पर अस्पृश्यता का कहीं कोई समर्थन नहीं मिलता है। सन्दर्भ से रहित कुछ उद्धरणों में अवश्य ऐसी बातें हैं, जिन्हें प्रक्षिप्त माना जाना चाहिए। यही बातंे अस्पृश्यता के समर्थन में कुछ लोगों द्वारा बार-बार उद्धृत की  जाती हैं।

गांधी जी धर्म के नाम पर इस प्रथा के चलते रहने को लेकर बहुत दुःखी थे। उनका तो यहां तक कहना था कि जब तक हिन्दुत्व का शुद्धिकरण नहीं किया जाता, तब तक स्वराज की बात सोचना भी व्यर्थ है –

‘‘अस्पृश्यता का प्रचलन मेरे लिए असहनीय है। मैं इसे कतई पसन्द नहीं करता। हिन्दुओं को हिन्दुत्व की शुद्धता के लिए दृढ़ प्रयास करने चाहिए और अस्पृश्यता की प्रथा को जड़ से खत्म कर देना चाहिए।’’4

कुछ समय तक गांधी जी का रुझान ईसाई धर्म की ओर हुआ था, लेकिन शीघ्र ही वे इससे उबर गये और हिन्दू धर्म तथा हिन्दुत्व में उनकी आस्था और भी अधिक दृढ़ हो गयी-

‘‘एक समय मैं हिन्दू धर्म तथा ईसाई धर्म के बीच झूल रहा था, लेकिन जब मेरा मन स्थिर हुआ तो मुझे महसूस हुआ कि हिन्दू धर्म तथा हिन्दुत्व के प्रति गहन विश्वास से ही मेरी मुक्ति सम्भव है और तब हिन्दुत्व में मेरा विश्वास तथा आस्था और अधिक बढ़ गयी, लेकिन इसके बाद भी मेरा मानना है कि हिन्दुत्व में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं है और अगर हिन्दुत्व में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान है भी तो वह हिन्दुत्व मेरे लिए नहीं है।’’5

गांधी जी अस्पृश्यता को ईश्वर तथा मानवता के प्रति पाप की संज्ञा देते थे। वे इसके दुर्गुणों  से समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभावों से जागरूक थे और तभी वे भारत से इसके शीघ्रातिशीघ्र दूर हो जाने की कामना करते थे-

‘‘यहां प्रचलित अस्पृश्यता ईश्वर तथा मानवता के प्रति पाप है। यह ऐसा ज़हर है जो हिन्दुत्व के अंगों को धीरे-धीरे खा रहा है। हिन्दू धर्म के शास्त्रों में कहीं भी इसे स्वीकृति नहीं दी गयी है। मेरे लिए अपने मत के समर्थन में भागवत या मनुस्मृति से कोई उद्धरण देना मुश्किल है, लेकिन मैं यह दावा कर सकता हँू  कि मैंने हिन्दुत्व की आत्मा को जान लिया है और अस्पृश्यता को प्रश्रय देने वाले लोग पाप के भागी बन रहे हैं। जितनी जल्दी हम इस पाप से छुटकारा नहीं पा लेते, उतना ही हम हिन्दुत्व को विनाश की ओर ले जाएंगे। इसलिए अस्पृश्यता के विनाश में ही हिन्दुत्व का भला है, भारत का भला है और मानवता का भला है। ’’6

इसके लिए उन्होंने प्रत्येक हिन्दू का आह्नान किया था कि वह हिन्दुत्व में अस्पृश्यता के उन्मूलन को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानकर इसके विनाश हेतु आगे बढ़े –

‘‘इसलिए प्रत्येक हिन्दू का यह सुनिश्चित कत्र्तव्य है कि वह अपनी जिम्मेदारी

को समझकर जाग जाये और अस्पृश्यता के उन्मूलन हेतु सन्नद्ध हो जाये। अगर सवर्ण हिन्दू एक स्वर में अपनी इस इच्छा को व्यक्त करेंगे तो निश्चय ही अस्पृश्यता का राक्षस मर जायेगा।’’7

गांधी जी तो अस्पृश्य लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाने के प्रति इतने आग्रही थे कि वे इन्हें प्रभु का जन (हरिजन) कहकर इउनके गौरव को बढ़ाने हेतु प्रयासरत् थे। वे तो यहां तक कहते थे कि यदि सभी हिन्दू स्वयं को शूद्र कहने लगें तो यह सच्चा ब्राह्मणवाद होगा-

‘‘आज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तो मुखौटे मात्र हैं। मेरी तो इच्छा है कि सभी हिन्दू स्वयं को शूद्र कहकर पुकारें। ब्राह्मणवाद के सत्य को उजागर करने का यही एक मात्र रास्ता है।’’8

जनता को अस्पृश्यता के प्रति सचेत करने के उद्देश्य से गांधी जी ने घोषित किया था कि जब तक हिन्दुत्व से अस्पृश्यता का खात्मा नहीं किया जाता, तब तक वे ‘महात्मा’ की उपाधि स्वीकार नहीं करेंगे।9 गांधी जी अस्पृश्यता के हिन्दू धर्म में प्रवेश से इतने अधिक क्षुब्ध थे कि उन्हांेने यहां तक कह दिया था कि यदि मुझे इस जन्म में मोक्ष न मिले तो मेरा अगला जन्म भंगी जाति में हो।

गांधी जी ने बार-बार इस तथ्य को स्पष्ट किया था कि यदि हिन्दुत्व अस्पृश्यता के कलंक को दूर नहीं करता तो उन्हें स्वयं हिन्दुत्व का त्याग करने में भी कोई हिचक नहीं होगी क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि कोई भी धर्म नैतिकता और सदाचार के मूलभूत सत्यों की अवहेलना करके आगे नहीं बढ़ सकता।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि गांधी जी के हिन्दुत्च  में हिन्दू धर्म की विकृतियों को दूर करन का सद्प्रयास परिलक्षित होता है।  वे अस्पृश्य माने जाने वाले हिन्दुओं को हिन्दू धर्म के अन्दर ही उनका अधिकार एवं सम्मान दिलाने हेतु प्रयत्नशील थे। उनका मानना था कि यदि हिन्दू धर्म  अस्पृश्य  एवं सामाजिक कुरीतियों का खात्मा कर दे, तो यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ  धर्म सिद्ध हो सकता है। यदि एक समाज सुधारक तथा हिन्दू धर्म के सच्चे शुभचिन्तक के रूप में गांधी जी के विचारों का ध्यानपूर्वक विश्लेषण किया जाए तो उनके हिन्दुत्व सम्बन्धी विचारों की प्रासंगिकता, सार्थकता एवं उपादेयता स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है।

गांधी जी ‘हिन्दुत्व’ के बहुत बड़े आग्रही थे। हिन्दुत्व के प्रति उनकी श्रद्धा इतनी गहरी थी कि वे इसे अपने जीवन की अत्यंत अमूल्य निधि मानते थे। उनका मानना था –
‘‘मुझे अपने सनातनी हिन्दू होने पर गर्व है। यद्यपि मैं हिन्दू धर्मग्रन्थों का आचार्य नहीं हँू, मैं संस्कृत का विद्वान भी नहीं हूँ, लेकिन मैंने वेदों और उपनिषदों के अनुवाद पढ़े है। स्पष्ट है कि मैंने इनका गहन तथा विस्तृत अध्ययन नहीं किया है, लेकिन फिर भी मेरी हिन्दुत्व के प्रति दृढ़ आस्था है।’’1
गांधी जी इस बात से अत्यंत व्यथित थे कि हिन्दू धर्म में अनेक अच्छे विचार होने के बावजूद अस्पृश्यता की विषबेल इस विराट वृक्ष की जड़ों को लगातार खोखला कर रही है। उनका मत था कि यदि हम इस शाप को अपने चिन्तन से नहीं मिटाएंगे तो यह हिन्दुत्व को विनाश के पथ पर ले जा सकता है। वे अस्पृश्यता को हिन्दुत्व के माथे पर बहुत बड़ा कलंक मानते थे। इस सन्दर्भ में उनके बाल्यकाल का एक प्रसंग उद्धृत है –
गांधी जी जब बारह वर्ष के थे, तब उनके जीवन में एक घटना घटी। अक्का नामक एक अस्पृश्य उनके घर शौचालय साफ करने आया करता था। घर के लोग उनसे उस अस्पृश्य को न छूने की बात किया करते थे। कई बार उन्होंने अपनी मां से इसका कारण पूछा कि क्यों सभी लोग मुझे अक्का को छूने से मना करते है, किन्तु उन्हें इसका संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। एक बार धोखे से उन्होंने अक्का का स्पर्श कर लिया, तब उनकी शुद्धि हेतु अनेक कर्मकाण्ड तथा संस्कार घर में आयोजित किये गये, जिनका उन्होंने आज्ञाकारी बालक होने के कारण बड़ी अनिच्छापूर्ण ढंग से पालन तो किया, परन्तु उन्होंने अपनी मां को साफ-साफ बता दिया कि अक्का को स्पर्श करने को पाप समझना बहुत गलत बात है तथा वे अपने इस दृष्टिकोण में सर्वथा गलत हैं।2
इस कथन से स्पष्ट है कि अस्पृश्यता का विरोध करने की स्पृहा गांधी जी में बचपन से ही विद्यमान थी। एक अन्य संस्मरण देखें –
मैं स्कूल में जान-बूझकर  अस्पृश्य बालकों का स्पर्श कर लिया करता था। मेरी मां मुझे बार-बार समझाती थीं कि अस्पृश्यों के स्पर्श कर लेने का निवारण इसमें है कि बदले में किसी मुसलमान का स्पर्श कर लिया जाये और मैं ऐसा कर भी लिया करता था। मैं ऐसा इसलिए करता था क्योंकि मेरे मन में मां के प्रति अत्यंत सम्मान की भावना थी। मैं इस बात के स्वीकार के लिए कोई बहाना नहीं बनाना चाहता कि बारह वर्ष की उस अवस्था में इस बात पर मुझे पाप बोध होता था, लेकिन मैं यह भी विश्वासपूर्वक कहना चाहता हँू कि मैं उस समय भी अस्पृश्यता को एक पाप ही मानता था।3
गांधी जी ने हिन्दुत्व में निहित अस्पृश्यता का निवारण करने के उद्देश्य से अपने समय  के अनेक विद्वानों से इस सम्बन्ध में बात भी की थी। सभी ने उन्हें बताया था कि शास्त्रों में कहीं भी उस अस्पृश्यता का कोई उल्लेख नहीं है, जिसे आज हम व्यवहार में ला रहे हैंे। उनका यह निष्कर्ष था कि सम्पूर्णता में शास्त्रों का अध्ययन करने पर अस्पृश्यता का कहीं कोई समर्थन नहीं मिलता है। सन्दर्भ से रहित कुछ उद्धरणों में अवश्य ऐसी बातें हैं, जिन्हें प्रक्षिप्त माना जाना चाहिए। यही बातंे अस्पृश्यता के समर्थन में कुछ लोगों द्वारा बार-बार उद्धृत की  जाती हैं।
गांधी जी धर्म के नाम पर इस प्रथा के चलते रहने को लेकर बहुत दुःखी थे। उनका तो यहां तक कहना था कि जब तक हिन्दुत्व का शुद्धिकरण नहीं किया जाता, तब तक स्वराज की बात सोचना भी व्यर्थ है –
‘‘अस्पृश्यता का प्रचलन मेरे लिए असहनीय है। मैं इसे कतई पसन्द नहीं करता। हिन्दुओं को हिन्दुत्व की शुद्धता के लिए दृढ़ प्रयास करने चाहिए और अस्पृश्यता की प्रथा को जड़ से खत्म कर देना चाहिए।’’4
कुछ समय तक गांधी जी का रुझान ईसाई धर्म की ओर हुआ था, लेकिन शीघ्र ही वे इससे उबर गये और हिन्दू धर्म तथा हिन्दुत्व में उनकी आस्था और भी अधिक दृढ़ हो गयी-
‘‘एक समय मैं हिन्दू धर्म तथा ईसाई धर्म के बीच झूल रहा था, लेकिन जब मेरा मन स्थिर हुआ तो मुझे महसूस हुआ कि हिन्दू धर्म तथा हिन्दुत्व के प्रति गहन विश्वास से ही मेरी मुक्ति सम्भव है और तब हिन्दुत्व में मेरा विश्वास तथा आस्था और अधिक बढ़ गयी, लेकिन इसके बाद भी मेरा मानना है कि हिन्दुत्व में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं है और अगर हिन्दुत्व में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान है भी तो वह हिन्दुत्व मेरे लिए नहीं है।’’5
गांधी जी अस्पृश्यता को ईश्वर तथा मानवता के प्रति पाप की संज्ञा देते थे। वे इसके दुर्गुणों  से समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभावों से जागरूक थे और तभी वे भारत से इसके शीघ्रातिशीघ्र दूर हो जाने की कामना करते थे-
‘‘यहां प्रचलित अस्पृश्यता ईश्वर तथा मानवता के प्रति पाप है। यह ऐसा ज़हर है जो हिन्दुत्व के अंगों को धीरे-धीरे खा रहा है। हिन्दू धर्म के शास्त्रों में कहीं भी इसे स्वीकृति नहीं दी गयी है। मेरे लिए अपने मत के समर्थन में भागवत या मनुस्मृति से कोई उद्धरण देना मुश्किल है, लेकिन मैं यह दावा कर सकता हँू  कि मैंने हिन्दुत्व की आत्मा को जान लिया है और अस्पृश्यता को प्रश्रय देने वाले लोग पाप के भागी बन रहे हैं। जितनी जल्दी हम इस पाप से छुटकारा नहीं पा लेते, उतना ही हम हिन्दुत्व को विनाश की ओर ले जाएंगे। इसलिए अस्पृश्यता के विनाश में ही हिन्दुत्व का भला है, भारत का भला है और मानवता का भला है। ’’6
इसके लिए उन्होंने प्रत्येक हिन्दू का आह्नान किया था कि वह हिन्दुत्व में अस्पृश्यता के उन्मूलन को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानकर इसके विनाश हेतु आगे बढ़े –
‘‘इसलिए प्रत्येक हिन्दू का यह सुनिश्चित कत्र्तव्य है कि वह अपनी जिम्मेदारी
को समझकर जाग जाये और अस्पृश्यता के उन्मूलन हेतु सन्नद्ध हो जाये। अगर सवर्ण हिन्दू एक स्वर में अपनी इस इच्छा को व्यक्त करेंगे तो निश्चय ही अस्पृश्यता का राक्षस मर जायेगा।’’7
गांधी जी तो अस्पृश्य लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाने के प्रति इतने आग्रही थे कि वे इन्हें प्रभु का जन (हरिजन) कहकर इउनके गौरव को बढ़ाने हेतु प्रयासरत् थे। वे तो यहां तक कहते थे कि यदि सभी हिन्दू स्वयं को शूद्र कहने लगें तो यह सच्चा ब्राह्मणवाद होगा-
‘‘आज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तो मुखौटे मात्र हैं। मेरी तो इच्छा है कि सभी हिन्दू स्वयं को शूद्र कहकर पुकारें। ब्राह्मणवाद के सत्य को उजागर करने का यही एक मात्र रास्ता है।’’8
जनता को अस्पृश्यता के प्रति सचेत करने के उद्देश्य से गांधी जी ने घोषित किया था कि जब तक हिन्दुत्व से अस्पृश्यता का खात्मा नहीं किया जाता, तब तक वे ‘महात्मा’ की उपाधि स्वीकार नहीं करेंगे।9 गांधी जी अस्पृश्यता के हिन्दू धर्म में प्रवेश से इतने अधिक क्षुब्ध थे कि उन्हांेने यहां तक कह दिया था कि यदि मुझे इस जन्म में मोक्ष न मिले तो मेरा अगला जन्म भंगी जाति में हो।
गांधी जी ने बार-बार इस तथ्य को स्पष्ट किया था कि यदि हिन्दुत्व अस्पृश्यता के कलंक को दूर नहीं करता तो उन्हें स्वयं हिन्दुत्व का त्याग करने में भी कोई हिचक नहीं होगी क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि कोई भी धर्म नैतिकता और सदाचार के मूलभूत सत्यों की अवहेलना करके आगे नहीं बढ़ सकता।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि गांधी जी के हिन्दुत्च  में हिन्दू धर्म की विकृतियों को दूर करन का सद्प्रयास परिलक्षित होता है।  वे अस्पृश्य माने जाने वाले हिन्दुओं को हिन्दू धर्म के अन्दर ही उनका अधिकार एवं सम्मान दिलाने हेतु प्रयत्नशील थे। उनका मानना था कि यदि हिन्दू धर्म  अस्पृश्य  एवं सामाजिक कुरीतियों का खात्मा कर दे, तो यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ  धर्म सिद्ध हो सकता है। यदि एक समाज सुधारक तथा हिन्दू धर्म के सच्चे शुभचिन्तक के रूप में गांधी जी के विचारों का ध्यानपूर्वक विश्लेषण किया जाए तो उनके हिन्दुत्व सम्बन्धी विचारों की प्रासंगिकता, सार्थकता एवं उपादेयता स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है।

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