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भारतीय फिल्मों के सौ साल

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मानव सभ्यता के प्रारम्भ से लेकर आज तक कहानियों में मनुष्य की गहरी अभिरुचि रही है। बचपन में वह अपनी दादी-नानी की गोद में बैठकर कहानियाँ सुनता रहा है, युवावस्था में वह पहले नाटकों, लोकलाओं (नौटंकी, तमाशा, आल्हा, कठपुतली आदि) से अपना मनोरंजन करता रहा है, तो वृद्धावस्था में वह धर्मग्रंथों की कहानियों से मनोरंजन के साथ-साथ धर्मलाभ भी करता रहा है। समय बीतने के साथ विशेषकर बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुए प्रौद्योगिकीय विकास के परिणामस्वरूप अभिरुचि में परिवर्तन तो नहीं हुआ, किन्तु अभिरुचि के óोतों में परिवर्तन अवश्य परिलक्षित होने लगा। अब धीरे-धीरे दादी-नानी द्वारा सुनाई जाने वाली गुड्डे-गुड्यिों, राजा-रानी एवं परियों की कहानियों में से दादी-नानी गायब होने लगीं और उनका स्थान बुद्धू बक्से ने लेना शुरू कर दिया। इसी प्रकार युवाओं तथा प्रौढ़ों ने फि़ल्मों और टी.वी. में मनोरंजन ढूँढना प्रारम्भ कर दिया। हालांकि बाद में ये सभी माध्यम मात्र मनोरंजनप्रदाता न रहकर ज्ञान एवं सूचना के महत्त्वपूर्ण óोत के तौर पर भी उभरकर हमारे सामने आए। इन सभी माध्यमों ने अपने-क्षेत्रों का विस्तार किया और ये सभी आयु वर्ग के लिए अपनी उपयोगिता साबित करने लगे। दादा साहब फाल्के ने ”राजा हरिश्चन्द्र“ नाम से भारत की पहली फिल्म बनाई थी। यह फिल्म 21 अप्रैल सन् 1913 ई. को मंुबई के ओलंपिया सिनेमा में प्रदर्शित हुई। इसके साथ ही भारत में फिल्मों का चलन शुरू हुआ। 21 अप्रैल 2012 को भारतीय सिनेमा के सौवीं वर्षगाँठ है और इस दिन से भारतीय सिनेमा का शताब्दी वर्ष शुरू हो रहा है, जिसके उपलक्ष्य में पूरे साल फिल्मों पर चर्चा की जाएगी। आइए देखते हैं कि   इन सौ सालों में भारतीय सिनेमा की विकास यात्रा कैसी रही।

भारतीय सिनेमा ने अपनी शुरूआत धार्मिक फि़ल्मों से की। प्रायः सभी भाषाओं की प्रारम्भिक दौर की फि़ल्मों में हम धार्मिकता को प्रधान प्रवृत्ति के तौर पर देख सकते हैं। यह दौर लगभग एक से डेढ़ दशक तक कमोबेश सभी महत्त्वपूर्ण भारतीय भाषाओं में जारी रहा और इसके बाद सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों एवं स्वाधीनता संग्राम पर आधारित फि़ल्में बननी शुरू हुईं। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि इस दौर के फि़ल्मकारों ने अंग्रेज़ी हुकूमत की परवाह किए बगैर निर्भीक होकर आज़ादी की प्रेरणा देने वाली फि़ल्में बनाईं। उस दौर की अनेक फि़ल्मों के गीतों ने देश को आज़ादी दिलाने में प्रेरक तत्व का कार्य किया।

पाँचवाँ और छठवाँ दशक आज़ादी प्राप्त होने की मस्ती से सराबोर था, जिसमें प्रेम, रोमांस और जुदाई का दर्द प्रधान थे। यह प्रवृत्ति प्रायः सर्वत्र परिलक्षित होती है। इस दौर को ‘भारतीय सिनेमा का स्वर्णयुग’ कह सकते हैं। यहाँ एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस दौर में भारतीय विशेषकर हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद, अकवितावाद आदि धुर कलावादी अशालीन प्रवृत्तियाँ हावी हो रही थीं, तो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भारतीय सिनेजगत विशेषकर हिन्दी सिनेमा ने एक से बढ़कर एक सदाबहार गीत जनता को तोहफे में दिए। यही वह समय था, जब भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्वीकृति मिलनी शुरू हुई और राजकपूर तथा सत्यजीत राॅय का जादू समूचे विश्व पर सिर चढ़कर बोलने लगा।

सातवें दशक से भारतीय सिनेमा ने रोमांस के मृदुल धरातल को छोड़कर यथार्थ के खुरदुरे एवं कठोर धरातल पर कदम रखने शुरू कर दिए। हालांकि इसकी शुरूआत मदर इण्डिया से हो चुकी थी, लेकिन इसे भारतीय सिनेमा की प्रधान प्रवृत्ति बनाया प्रकाश मेहरा की अमिताभ बच्चन अभिनीत फि़ल्म ‘ज़ंजीर’ ने। इसके बाद के दो दशक मार-धाड़ और खूनखराबे से भरपूर रहे। कहा जाता है कि इन दो दशकों के दौरान केवल हिन्दी सिनेमा में मारधाड़ के दृश्यों के फि़ल्मांकन के लिए जितना बारूद इस्तेमाल किया गया, उतने बारूद का इस्तेमाल तो द्वितीय विश्वयुद्ध में भी नहीं हुआ था। ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘शान’, ‘क्रांति’, ‘वीरपांडियकट्टबोम्मन’, ‘मीनव नंबन’, ‘मुरट्टु कालै’, ‘अल्लूरि सीतारामराजु’, ‘जस्टिस चैधरी’, ‘बोब्बिलि पुलि’, ‘अग्निपर्वतं’ आदि इसी प्रकृति की फि़ल्में थीं। हिन्दी सिनेमा में यह दौर प्रायः ‘प्रतिघात’ फि़ल्म के बाद सिमटता दिखाई देता है।

नवें दशक की शुरूआत हिन्दी सिनेमा में ष्मैंने प्यार कियाष् से हुई और इस फि़ल्म ने ष्बाॅबीष् के निश्छल और सरल रोमांस को पुनर्जीवित तो किया ही, सिनेजगत में हिंसा के स्थान पर रोमांस को प्रतिस्थापित करने का कार्य भी किया। इसके पश्चात बीसवीं शती का अन्तिम दशक काॅलेज रोमांस, सेक्स और थ्रिल के आसपास घूमता रहा।

इन सबके समानांतर न्यू वेव सिनेमा अथवा सार्थक सिनेमा की एक धारा भी सातवें आठवें दशक में प्रवाहमान हुई, जिसका óोत नवें दशक तक आते-आते सूख गया। लेकिन यह धारा कहीं न कहीं छिपी अवश्य थी, जो इक्कीसवीं शती में आकर चालू सिनेमा से एकाकार होकर नए स्वरूप में सामने आई।

इक्कीसवीं शताब्दी के आने तक भारतीय दर्शक के टेस्ट में भारी बदलाव आ चुका था और वह आठवें-नवें दशक की फ़ाॅर्मूला फि़ल्मों को देखने का तैयार नहीं था। अब उसे सिनेमा में कथ्यात्मक नवीनता तो चाहिए ही थी, तेज़ और इंस्टैंट मूवमेंट भी चाहिए थे। इसीलिए इस दौर में पुराने निर्देशक कहीं खो से गए और नए तथा ऊर्जावान निर्देशकों की फौज ने उनका स्थान ले लिया। इस फौज की ‘तारे जमीं पर’, ‘रंग दे बसंती’, ‘मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस.’, ‘ब्लैक’, ‘पा’, देवदास, देव डी, पेज थ्री, सत्या, लगान, इकबाल, चक दे इण्डिया, ए वेडनेसडे, ‘कहो न प्यार है’, ‘धूम’, ‘थ्री ईडियट्स’, ‘पीपली लाइव’, ‘दबंग’, ‘अन्नियन, वेइल’, ‘सेतु’, ‘दशावतारम’, ‘रोबोट’, ‘द्वीप’, ‘हसीना’, ‘गम्यम्’, ‘गुलाबी टाकीज’़, ‘प्रयाणम्’ आदि फि़ल्मों ने सिनेजगत को नए कथ्य, तथ्य तथा नए विचार दिए हैं।

इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में मोबाइल तथा इण्टरनेट की बढ़ती लोकप्रियता ने दुनिया को बहुत छोटा एवं निकट कर दिया है। आज कोई भी व्यक्ति मात्र पाँच रुपये देकर साइबर कैफे में एक घण्टे बैठकर पूरी दुनिया से सम्पर्क स्थापित कर सकता है। इसका फि़ल्मों पर भी प्रभाव पड़ा है। आज फि़ल्मों को ओवरसीज़ के नाम पर एक भारी भरकम बाज़ार मिल गया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि बहुत से फि़ल्मकार विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर फि़ल्में बनाने लगे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, कनाडा, रूस, स्पेन, थाईलैण्ड, सिंगापुर आदि देशों की परंपराओं एवं संस्कृतियों को भारतीय पात्रों के साथ जोड़कर दिखाने की इस नई प्रवृत्ति के मूल में इन देशों के नागरिकों तथा इन देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों को आकर्षित करना है। दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे, काइट्स, मर्डर, सिंह इज़ किंग, पटियाला हाउस, चाँदनी चैक टू चाइना, न्यूयाॅर्क, जि़न्दगी न मिलेगी दोबारा, स्पीडी सिंह, आदि फि़ल्मों के निर्माण में यही मानसिकता काम कर रही थी। हिन्दी सिनेमा तथा हिन्दी भाषा को इसका लाभ भी मिला है। इससे हिन्दी सिनेमा को विदेशों में एक बड़ा बाज़ार मिला है, तो हिन्दी को विश्व भाषा की ओर अग्रसर होने में सहायता मिली है। आप्रवासी भारतीय इसके पीछे मुख्य प्रेरक तत्व रहे हैं। आइफ़ा अवार्ड समारोह को विश्व के भिन्न-भिन्न देशों में प्रति वर्ष आयोजित करने से भी हिन्दी सिनेमा को फायदा हुआ है।

इधर भारतीय सिनेमा में एक नई प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। वह यह कि विदेशी कलाकारों विशेषकर अभिनेत्रियों को भारतीय फि़ल्मों में महत्त्वपूर्ण भूमिका में दिखाना। इसके दोहरे फायदे हैं। एक तो विदेशी अभिनेत्रियों से अंग प्रदर्शन कराने में गोरी चमड़ी के ग्लैमर का लाभ मिल जाता है, दूसरे इनके माध्यम से विदेशों में फि़ल्म के प्रचार के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। अब तो हाॅलीवुड के अनेक कलाकार भी हिन्दी फि़ल्मों में मोटी कमाई के लालच में बाॅलीवुड का रुख करने लगे हैं। लेडी गागा, पीटर रसेल, पेरिस हिल्टन, किम कार्देशियन आदि विदेशी कलाकार बाॅलीवुड में काम करने को लाइन लगाकर खड़े हैं। लेकिन इससे फि़ल्मों में भारतीयता एवं भारतीय संस्कारों की उपेक्षा हो रही है।

भारतीय सिनेमा विशेषकर हिन्दी सिनेमा ने अब एक नया प्रयोग प्रारम्भ किया है, जो अत्यंत सफल रहा है, वह यह कि विदेशी फि़ल्मों की भोंडी नकल करने की बजाय क्षेत्रीय भाषाओं की सफल फि़ल्मों को अपनी भाषा में रूपान्तरित करना। तेलुगु की ‘शिवा’ फि़ल्म से शुरू हुई यह परंपरा आज अनेक हिन्दी फि़ल्मों में अपनाई जा रही है। गत वर्ष आई रावण फि़ल्म ने एक नए ट्रेंड को जन्म दिया। वह यह कि एक ही सेट और लोकेशन पर एक से अधिक भाषाओं की फि़ल्मों को एक ही समय में एक साथ शूट करना। यह एक अच्छा चलन है, जिसे प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इससे समय और धन की बचत तो होती ही है, साथ ही एक ही यूनिट के कलाकारों से काम कराकर एक समय में दो फि़ल्में तैयार कर प्रदर्शित की जा सकती हैं।

हिन्दी सिनेमा के कुछ और नए रुझानों का यहाँ उल्लेख किया जाना आवश्यक है। पहला पुरानी तथा कालजयी श्वेत-श्याम फि़ल्मों को रंगीन करके डिजिटल स्वरूप में पुनः प्रदर्शित करना। ‘मुग़ले आज़म’ को इस माध्यम से सफलतापूर्वक पुनप्र्रदर्शित किया जा चुका है और ‘हम दोनों’ तथा कई अन्य हिन्दी फि़ल्मों को नया कलेवर देकर पुनप्र्रदर्शित करने की तैयारी की जा रही है। पुरानी फि़ल्मों को आज के डिजिटल भारतीयों से हूबहू उसके रंगीन स्वरूप में परिचित कराने की यह परंपरा सराहनीय है।

आज हिन्दी सिनेमा में रीमेक कल्चर बढ़ रहा है। यद्यपि पहले भी ‘देवदास’, ‘चित्रलेखा’ आदि फि़ल्मों के रीमेक बनते रहे हैं, लेकिन हाल में इस चलन ने ज़ोर पकड़ा ह्रै। ‘डाॅन’, ‘अग्निपथ’, ‘साहब बीबी और गुलाम’, ‘शोले’, ‘मैंने प्यार किया’, ‘फूल और कांटे’, आदि फि़ल्मों के रीमेक ज़ल्द ही बड़े पर्दे पर अवतरित होने वाले हैं। लेकिन इसे एक अच्छा ट्रेंड नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह मौलिकता से पलायनवादिता का परिचायक है और हिन्दी फि़ल्मकारों की बौद्धिक दरिद्रता को प्रदर्शित करता है।

आजकल फि़ल्मों में आइटम गीतों की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। विशेषकर लोक संस्कृति के सुन्दर एवं सुमधुर गीतों का फूहड़ अंग प्रदर्शन के साथ प्रस्तुतीकरण भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा पर आघात कर रहा है। ‘सरकाइ ल्यौ खटिया’ से शुरू हुई यह परंपरा आज ‘टिंकू जिया’ तक आ पहुँची है। यद्यपि महँगाई ‘डायन खाए जात है’ और ‘ससुराल गेंदा फूल’ जैसे लोकगीतों का स्वस्थ एवं सार्थक चित्रांकन करके सिनेमा ने वाहवाही भी बटोरी है, लेकिन ऐसे दृष्टांत कम ही हैं।

भारतीय फि़ल्मों में प्रारंभ से ही महिलाओं को सशक्त भूमिका न देने की परंपरा रही है। भारतीय फि़ल्मों की महिलाएँ सा तो सती-सावित्री होती हैं या ग्लैमर डाॅल के रूप में चित्रित की जाती हैं। इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीत जाने के बावजूद इसमें कोई बदलाव नहीं दिखाई देता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी कल्कि कोचलीन जैसी नवोदित अभिनेत्री को यह कहने को बाध्य होना पड़ता है कि ‘जि़न्दगी न मिलेगी दोबारा’ फि़ल्म में उनका इस्तेमाल ‘आई कैण्डी’ के रूप में किया गया है। कहानी की डिमाण्ड के नाम पर फि़ल्मकारों द्वारा अंग प्रदर्शन को जायज ठहराना और अभिनेत्रियों का अंग प्रदर्शन करने हेतु खुशी-खुशी तैयार रहना शायद भारतीय सिनेमा की एक बड़ी विकृति का संकेत करता है। कुछ साल पहले अभिनेत्री महिमा चैधरी ने निर्देशक सुभाष घई पर यह आरोप लगाया था कि ‘परदेस’ फि़ल्म में घई ने उन्हें नाॅन ग्लैमरस रोल देकर उनका कॅरियर खराब कर दिया।

‘नयापन’ वर्तमान दौर में भारतीय सिनेमा की एक नई चाहत के रूप में उभरकर आया है। मोटे तौर पर तो यह चाहत अच्छी दिखाई देती है, लेकिन जब यह नयापन कुछ सीमाओं को भी पार करने लगता है तो यह विकृत स्वरूप में हमारे सामने आ जाता है। दादा कोंडके ने कुछ समय पहले मराठी सिनेमा में द्विअर्थी संवादों से युक्त फि़ल्मों के निर्माण की शुरूआत की थी, जिनका हिन्दी समेत अनेक भाषाओं में डबिंग के साथ प्रदर्शन किया गया था। अँधेरी रात में दिया तेरे हाथ में, खोल दे मेरी……..जुबान आदि इसी कोटि की फि़ल्में थीं। लेकिन कुछ ही दिनों में दर्शक इससे ऊब गए और यह चलन खत्म हो गया। इधर हिन्दी में हिन्दी सिनेमा के अग्रणी फि़ल्मकार आमिर खान ने अपने भांजे इमरान खान के डूबते कॅरियर को पटरी पर लाने के लिए ‘डेल्ही बेली’ जैसी बकवास फि़ल्म लेकर आए हैं, जिसमें अशालीन भाषा एवं भद्दी गालियों की भरमार है। ‘रागिनी एम.एम.एस.’, ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’, ‘इश्किया’, ‘इश्किया-2’, ‘द डर्टी पिक्चर’ आदि इसी परंपरा का अंधा अनुगमन कर रही हैं। जब ‘आपकी अदालत’ नामक कार्यक्रम में आमिर खान से पूछा गया कि ‘तारे ज़मीं’ पर और ‘रंग दे बसंती’ जैसी सार्थक फि़ल्में बनाने वाले निर्देशक को ‘डेल्ही बेली’ जैसी फि़ल्म बनाने की क्या ज़रूरत पड़ गई तो उनका कहना था कि मैं इण्टरटेनर हूँ, मेरा काम जनता का मनोरंजन करना है और यह फि़ल्म नयी काॅन्सेप्ट थी, इसलिए मैंने इसका निर्माण किया। यह तर्क भारतीय सिनेमा को उसके पथ से भटकाने वाला प्रतीत होता है।

भारतीय सिनेमा में आज कहीं न कहीं अच्छी कहानियों एवं गीतों का भी सख्त अभाव दिखाई देता है। स्वयं अमिताभ बच्चन और स्व. मजरूह सुल्तानपुरी भी इस ओर संकेत कर चुके हैं। इसका मुख्य कारण फि़ल्म पटकथा लेखकों एवं गीतकारों को उचित सम्मान एवं पारिश्रमिक न दिया जाना है। आज फि़ल्म निर्देशकों, संगीतकारों तथा नृत्य निर्देशकों को जितना सम्मान एवं धन दिया जाता है, उतना सम्मान एवं धन पटकथा लेखकों एवं गीतकारों को नहीें मिलता। शायद यही कारण है कि हम पटकथा के लिए या तो विदेशी फि़ल्मों की भोंडी नकल करते हैं या रीमेक की ओर भागते हैं और गीतों को या तो विदेशी धुनें चुराकर तैयार करवाते हैं या भारतीय लोकगीतों को भोंडे तरीके से पेश करते हैं।

इधर एक नई प्रवृत्ति भी देखी जा रही है। आज एक फि़ल्म के हिट हो जाने पर उसका दूसरा और तीसरा पार्ट बनाने की होड़ चल पड़ी है। ‘नगीना’ और ‘निगाहें’ की सफलता से शुरू हुआ यह रुझान रामगोपाल वर्मा की ‘डरना’ सीरीज़ से होता हुआ ‘मुन्ना भाई’ सीरीज़ का पड़ाव तय करते हुए आज ‘धूम’, ‘भेजा फ्राई’, ‘धमाल’, ‘हेराफेरी’, ‘मर्डर’, ‘दबंग’ आदि तक पहुँच गया है। रामगोपाल वर्मा ने तो इससे भी दो कदम आगे बढ़़ते हुए एक बार में ही ‘रक्तचरित्र-1’ और ‘रक्तचरित्र-2’ बना ली थीं और दो माह के अन्तर से दोनों फि़ल्मों को प्रदर्शित कर दिया था। हालांकि इसके दुष्परिणाम भी देखे जा सकते हैं। पार्ट-2 बनाने के फेर में निर्देशक प्रायः फि़ल्मों के अंत का कबाड़ा कर रहे हैं। इससे सिनेमा हाॅल से निकलने वाला दर्शक मनमाफिक एवं सार्थक अंत न होने पर ठगा सा महसूस करता है।

रेट्रो के हाॅलीवुड पैटर्न को भी भारतीय दर्शकों पर कसने की कोशिश की गयी है। आज की फि़ल्मों में सातवें दशक का वातावरण सुजित करने की यह कोशिश ‘ओम शांति ओम’ में तो कुछ हद तक सफल रही लेकिन बाद की ‘एक्शन रीप्ले’, ‘तीसमारखाँ’, ‘1920’, ‘हाॅन्टेड’ आदि फि़ल्मों में दर्शकों ने इसे अस्वीकार कर दिया।

इधर कुछ स्वस्थ रुझान भारतीय फि़ल्मों को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर गर्व से खड़े होने के अवसर दे रहे हैं। बच्चों पर केन्द्रित कुछ सार्थक फि़ल्मों जैसे- ‘तारे ज़मीं पर’, ‘इकबाल’, ‘स्लमडाॅग मिलिनेयर’, ‘चिल्लर पार्टी’, ‘भूतनाथ’, ‘हनुमान’, ‘स्टैनली का डब्बा’ आदि ने इस उपेक्षित क्षेत्र को भी फलने-फूलने का अवसर दिया है। भारत में खेलों पर बहुत कम फि़ल्में बनती थीं, लेकिन हाल में कई फि़ल्मों में खेलों को महत्त्व दिया गया है। ‘लगान’, ‘चक दे इण्डिया’, ‘इकबाल’, ‘पटियाला हाउस’, ‘स्पीडी सिंह’ आदि फि़ल्मों ने इन खेलों की ओर भी जनता का ध्यान आकृट किया है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों पर भी कुछ अच्छी एवं सार्थक फि़ल्में बनी हैं। ‘आनंद’, ‘अखियों के झरोखों से’ तथा ‘दर्द का रिश्ता’ से शुरू हुई यह परंपरा आज ‘तारे ज़मीं पर’, ‘ब्लैक’, ‘पा’, ‘सेत’ु (‘तेरे नाम’) और ‘गुजारिश’ तक आ पहुँची है। इनके अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं (‘स्लमडाॅग मिलिनेयर’, ‘रोक’, ‘डोर’, ‘गंगाजल’, ‘इश्किया’, ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘खाप’, ‘न्यूयाॅर्क’, ‘कुर्बान’, ‘ए वेडनेसडे’, ‘वेइल’, ‘कल्लरली हूवागी’)  शिक्षण व्यवस्था, (‘थ्री ईडियट्स’, ‘तारे जमीं पर’), राजनीति (‘सरकार’, ‘सरकार राज’, ‘राजनीति’, ‘नायकम्’), फैशन कल्चर (‘फैशन’, ‘काॅरपोरेट’, ‘पेज थ्री’), इतिहास (‘जोधा अकबर’, ‘भगत सिंह’, ‘बोस दि फाॅरगाॅटेन हीरो’, ‘सरदार’, ‘गाँधी माई फ़ादर’)  ग्राम्य समाज ( ‘पीपली लाइव’, ‘वेलकम टू सज्जनपुर’, ‘मालामाल वीकली’, ‘स्वदेश’, ‘रेड अलर्टः द वार विदइन’, ‘प्रयाणम्’), पान सिंह तोमर, विषयों पर भी इधर भारतीय फि़ल्मकारों ने कुछ अच्छी फि़ल्में दी हैं।

साहित्य के सिनेमा के साथ सम्बन्धों की ओर यदि दृष्टि डालें, तो स्थिति निराशाजनक दिखाई देती है। साहित्य ने कभी भी सिनेमा को अच्छी नज़रों से नहीं देखा। चंद साहित्यकारों को छोड़ दें तो प्रायः अधिकांश साहित्यकारों ने फि़ल्म जगत से दूरी बनाकर रखी। सिनेमा ने भी उन्हें यह कहते हुए कम गले लगाया कि साहित्य एक दृश्य माध्यम है, जबकि सिनेमा दृश्य-श्रव्य माध्यम है। इसलिए साहित्यकार को यदि सिनेमा से जुड़ना है तो उसे सिनेमा की आवश्यकता के अनुरूप लेखन करना होगा। सिनेमा से प्रेमचंद और अश्क समेत कई साहित्यकारों के मोह भंग का यह एक बड़ा कारण था। हालांकि इसके बावजूद उर्दू, कन्नड़, बंगाली और गुजराती सिनेमा ने साहित्यिक कृतियों पर आधारित अनेक उत्कृष्ट फि़ल्मों का निर्माण किया। हिन्दी सिनेमा ने भी शरत, प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, आर. के. नारायण, मिर्जा हादी रुसवाँ, महाश्वेता देवी, चेतन भगत आदि की अनेक साहित्यिक कृतियों पर फि़ल्में बनाईं। लेकिन यदि इक्का-दुक्का फि़ल्मों को छोड़ दें, तो इन फि़ल्मों को बाॅक्स आॅफि़स पर सीमित सफलता ही मिली क्योंकि सिने निर्देशक इन कृतियों का सिनेमाई रूपान्तरण करते समय अति नाटकीयता के मोह में पड़कर इनके साथ न्याय नहीं कर सके और इन कृतियों की आत्मा को मार बैठे।

भारतीय फि़ल्म इण्डस्ट्री में ऐसे अनेक कलाकार मौजूद रहे हैं, जिन्होंने साहित्य और सिनेमा दोनों ही क्षेत्रों में अपना परचम लहराया है। गोपाल दास नीरज, नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, गुरूदत्त, डाॅ. राजकुमार, मज़रूह सुल्तानपुरी, हरिवंश राय बच्चन, डाॅ. राही मासूम रज़ा, कैफी आजमी, मीना कुमारी, गिरीश कर्नाड, गुलज़ार, मनोहर श्याम जोशी, सुरेन्द्र वर्मा,, जावेद अख्तर आदि नाम इस श्रेणी में आते हैं। लेकिन वर्तमान समय में इनकी संख्या कम होती जा रही है, जो सिनेमा की सेहत के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

भारतीय सिनेमा और एकेडमिक्स के बीच भी सम्बन्ध भारत में नहीं पनप सके हैं। इसका एक बड़ा कारण सिनेजगत का इस दिशा में उदासीन रहना है। सिने जगत की उदासीनता के कारण ही हिन्दी की पहली सवाक फि़ल्म आलमआरा का एकमात्र प्रिंट पुणे में जलकर नष्ट हो गया। फि़ल्म उद्योग को इम्पा जैसी एक स्वतंत्र संस्था बनाकर भारतीय फि़ल्मों के संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इस संस्था के माध्यम से भारतीय सिनेमा का एक संग्रहालय पुणे, चेन्नई, गोवा या जम्मू में स्थापित किया जा सकता है, जिसमें पुरानी कलात्मक फि़ल्मों के विभिन्न भारतीय भाषाओं में शो आयोजित किए जाने चाहिए। यह संग्रहालय सभी भारतीय फि़ल्मों के डिजिटलाइजेशन का वृहद् कार्य भी अपने हाथों में ले सकता है। इसके अतिरिक्त मैडम टुसाड के म्यूजि़यम की तर्ज पर इस संग्रहालय में भारत के कालजयी फि़ल्मकारों की मोम की मूर्तियाँ भी स्थापित की जा सकती हैं। इस संग्रहालय के माध्यम से भारतीय सिनेमा पर शोध कार्य को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है।

यद्यपि फि़ल्म इंसटीट्यूट, पुणे और एन.एस.डी. जैसी सरकारी संस्थाएँ अस्तित्व में काफी समय से हैं, लेकिन फि़ल्म शोध एवं समीक्षा की एक स्वस्थ परम्परा अभी भारत में विकसित होनी है। कुछ समाचार पत्रों में फि़ल्मों की अधकचरी आलोचना छाप कर उसे ही हम फि़ल्म समीक्षा मान बैठते हैं। भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर आज आवश्यकता है कि दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श के पैटर्न पर सिनेमा विमर्श की गम्भीर शुरूआत की जाए और श्रेष्ठ फि़ल्मों के समालोचन हेतु पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचारपत्र आगे आएँ, तभी हम भारतीय सिनेमा को सही दिशा में आगे ले जाने हेतु प्रेरित कर सकेंगे।

मानव सभ्यता के प्रारम्भ से लेकर आज तक कहानियों में मनुष्य की गहरी अभिरुचि रही है। बचपन में वह अपनी दादी-नानी की गोद में बैठकर कहानियाँ सुनता रहा है, युवावस्था में वह पहले नाटकों, लोकलाओं (नौटंकी, तमाशा, आल्हा, कठपुतली आदि) से अपना मनोरंजन करता रहा है, तो वृद्धावस्था में वह धर्मग्रंथों की कहानियों से मनोरंजन के साथ-साथ धर्मलाभ भी करता रहा है। समय बीतने के साथ विशेषकर बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुए प्रौद्योगिकीय विकास के परिणामस्वरूप अभिरुचि में परिवर्तन तो नहीं हुआ, किन्तु अभिरुचि के óोतों में परिवर्तन अवश्य परिलक्षित होने लगा। अब धीरे-धीरे दादी-नानी द्वारा सुनाई जाने वाली गुड्डे-गुड्यिों, राजा-रानी एवं परियों की कहानियों में से दादी-नानी गायब होने लगीं और उनका स्थान बुद्धू बक्से ने लेना शुरू कर दिया। इसी प्रकार युवाओं तथा प्रौढ़ों ने फि़ल्मों और टी.वी. में मनोरंजन ढूँढना प्रारम्भ कर दिया। हालांकि बाद में ये सभी माध्यम मात्र मनोरंजनप्रदाता न रहकर ज्ञान एवं सूचना के महत्त्वपूर्ण óोत के तौर पर भी उभरकर हमारे सामने आए। इन सभी माध्यमों ने अपने-क्षेत्रों का विस्तार किया और ये सभी आयु वर्ग के लिए अपनी उपयोगिता साबित करने लगे। दादा साहब फाल्के ने ”राजा हरिश्चन्द्र“ नाम से भारत की पहली फिल्म बनाई थी। यह फिल्म 21 अप्रैल सन् 1913 ई. को मंुबई के ओलंपिया सिनेमा में प्रदर्शित हुई। इसके साथ ही भारत में फिल्मों का चलन शुरू हुआ। 21 अप्रैल 2012 को भारतीय सिनेमा के सौवीं वर्षगाँठ है और इस दिन से भारतीय सिनेमा का शताब्दी वर्ष शुरू हो रहा है, जिसके उपलक्ष्य में पूरे साल फिल्मों पर चर्चा की जाएगी। आइए देखते हैं कि   इन सौ सालों में भारतीय सिनेमा की विकास यात्रा कैसी रही।
भारतीय सिनेमा ने अपनी शुरूआत धार्मिक फि़ल्मों से की। प्रायः सभी भाषाओं की प्रारम्भिक दौर की फि़ल्मों में हम धार्मिकता को प्रधान प्रवृत्ति के तौर पर देख सकते हैं। यह दौर लगभग एक से डेढ़ दशक तक कमोबेश सभी महत्त्वपूर्ण भारतीय भाषाओं में जारी रहा और इसके बाद सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों एवं स्वाधीनता संग्राम पर आधारित फि़ल्में बननी शुरू हुईं। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि इस दौर के फि़ल्मकारों ने अंग्रेज़ी हुकूमत की परवाह किए बगैर निर्भीक होकर आज़ादी की प्रेरणा देने वाली फि़ल्में बनाईं। उस दौर की अनेक फि़ल्मों के गीतों ने देश को आज़ादी दिलाने में प्रेरक तत्व का कार्य किया।
पाँचवाँ और छठवाँ दशक आज़ादी प्राप्त होने की मस्ती से सराबोर था, जिसमें प्रेम, रोमांस और जुदाई का दर्द प्रधान थे। यह प्रवृत्ति प्रायः सर्वत्र परिलक्षित होती है। इस दौर को ‘भारतीय सिनेमा का स्वर्णयुग’ कह सकते हैं। यहाँ एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस दौर में भारतीय विशेषकर हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद, अकवितावाद आदि धुर कलावादी अशालीन प्रवृत्तियाँ हावी हो रही थीं, तो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भारतीय सिनेजगत विशेषकर हिन्दी सिनेमा ने एक से बढ़कर एक सदाबहार गीत जनता को तोहफे में दिए। यही वह समय था, जब भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्वीकृति मिलनी शुरू हुई और राजकपूर तथा सत्यजीत राॅय का जादू समूचे विश्व पर सिर चढ़कर बोलने लगा।
सातवें दशक से भारतीय सिनेमा ने रोमांस के मृदुल धरातल को छोड़कर यथार्थ के खुरदुरे एवं कठोर धरातल पर कदम रखने शुरू कर दिए। हालांकि इसकी शुरूआत मदर इण्डिया से हो चुकी थी, लेकिन इसे भारतीय सिनेमा की प्रधान प्रवृत्ति बनाया प्रकाश मेहरा की अमिताभ बच्चन अभिनीत फि़ल्म ‘ज़ंजीर’ ने। इसके बाद के दो दशक मार-धाड़ और खूनखराबे से भरपूर रहे। कहा जाता है कि इन दो दशकों के दौरान केवल हिन्दी सिनेमा में मारधाड़ के दृश्यों के फि़ल्मांकन के लिए जितना बारूद इस्तेमाल किया गया, उतने बारूद का इस्तेमाल तो द्वितीय विश्वयुद्ध में भी नहीं हुआ था। ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘शान’, ‘क्रांति’, ‘वीरपांडियकट्टबोम्मन’, ‘मीनव नंबन’, ‘मुरट्टु कालै’, ‘अल्लूरि सीतारामराजु’, ‘जस्टिस चैधरी’, ‘बोब्बिलि पुलि’, ‘अग्निपर्वतं’ आदि इसी प्रकृति की फि़ल्में थीं। हिन्दी सिनेमा में यह दौर प्रायः ‘प्रतिघात’ फि़ल्म के बाद सिमटता दिखाई देता है।
नवें दशक की शुरूआत हिन्दी सिनेमा में ष्मैंने प्यार कियाष् से हुई और इस फि़ल्म ने ष्बाॅबीष् के निश्छल और सरल रोमांस को पुनर्जीवित तो किया ही, सिनेजगत में हिंसा के स्थान पर रोमांस को प्रतिस्थापित करने का कार्य भी किया। इसके पश्चात बीसवीं शती का अन्तिम दशक काॅलेज रोमांस, सेक्स और थ्रिल के आसपास घूमता रहा।
इन सबके समानांतर न्यू वेव सिनेमा अथवा सार्थक सिनेमा की एक धारा भी सातवें आठवें दशक में प्रवाहमान हुई, जिसका óोत नवें दशक तक आते-आते सूख गया। लेकिन यह धारा कहीं न कहीं छिपी अवश्य थी, जो इक्कीसवीं शती में आकर चालू सिनेमा से एकाकार होकर नए स्वरूप में सामने आई।
इक्कीसवीं शताब्दी के आने तक भारतीय दर्शक के टेस्ट में भारी बदलाव आ चुका था और वह आठवें-नवें दशक की फ़ाॅर्मूला फि़ल्मों को देखने का तैयार नहीं था। अब उसे सिनेमा में कथ्यात्मक नवीनता तो चाहिए ही थी, तेज़ और इंस्टैंट मूवमेंट भी चाहिए थे। इसीलिए इस दौर में पुराने निर्देशक कहीं खो से गए और नए तथा ऊर्जावान निर्देशकों की फौज ने उनका स्थान ले लिया। इस फौज की ‘तारे जमीं पर’, ‘रंग दे बसंती’, ‘मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस.’, ‘ब्लैक’, ‘पा’, देवदास, देव डी, पेज थ्री, सत्या, लगान, इकबाल, चक दे इण्डिया, ए वेडनेसडे, ‘कहो न प्यार है’, ‘धूम’, ‘थ्री ईडियट्स’, ‘पीपली लाइव’, ‘दबंग’, ‘अन्नियन, वेइल’, ‘सेतु’, ‘दशावतारम’, ‘रोबोट’, ‘द्वीप’, ‘हसीना’, ‘गम्यम्’, ‘गुलाबी टाकीज’़, ‘प्रयाणम्’ आदि फि़ल्मों ने सिनेजगत को नए कथ्य, तथ्य तथा नए विचार दिए हैं।
इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में मोबाइल तथा इण्टरनेट की बढ़ती लोकप्रियता ने दुनिया को बहुत छोटा एवं निकट कर दिया है। आज कोई भी व्यक्ति मात्र पाँच रुपये देकर साइबर कैफे में एक घण्टे बैठकर पूरी दुनिया से सम्पर्क स्थापित कर सकता है। इसका फि़ल्मों पर भी प्रभाव पड़ा है। आज फि़ल्मों को ओवरसीज़ के नाम पर एक भारी भरकम बाज़ार मिल गया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि बहुत से फि़ल्मकार विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर फि़ल्में बनाने लगे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, कनाडा, रूस, स्पेन, थाईलैण्ड, सिंगापुर आदि देशों की परंपराओं एवं संस्कृतियों को भारतीय पात्रों के साथ जोड़कर दिखाने की इस नई प्रवृत्ति के मूल में इन देशों के नागरिकों तथा इन देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों को आकर्षित करना है। दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे, काइट्स, मर्डर, सिंह इज़ किंग, पटियाला हाउस, चाँदनी चैक टू चाइना, न्यूयाॅर्क, जि़न्दगी न मिलेगी दोबारा, स्पीडी सिंह, आदि फि़ल्मों के निर्माण में यही मानसिकता काम कर रही थी। हिन्दी सिनेमा तथा हिन्दी भाषा को इसका लाभ भी मिला है। इससे हिन्दी सिनेमा को विदेशों में एक बड़ा बाज़ार मिला है, तो हिन्दी को विश्व भाषा की ओर अग्रसर होने में सहायता मिली है। आप्रवासी भारतीय इसके पीछे मुख्य प्रेरक तत्व रहे हैं। आइफ़ा अवार्ड समारोह को विश्व के भिन्न-भिन्न देशों में प्रति वर्ष आयोजित करने से भी हिन्दी सिनेमा को फायदा हुआ है।
इधर भारतीय सिनेमा में एक नई प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। वह यह कि विदेशी कलाकारों विशेषकर अभिनेत्रियों को भारतीय फि़ल्मों में महत्त्वपूर्ण भूमिका में दिखाना। इसके दोहरे फायदे हैं। एक तो विदेशी अभिनेत्रियों से अंग प्रदर्शन कराने में गोरी चमड़ी के ग्लैमर का लाभ मिल जाता है, दूसरे इनके माध्यम से विदेशों में फि़ल्म के प्रचार के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। अब तो हाॅलीवुड के अनेक कलाकार भी हिन्दी फि़ल्मों में मोटी कमाई के लालच में बाॅलीवुड का रुख करने लगे हैं। लेडी गागा, पीटर रसेल, पेरिस हिल्टन, किम कार्देशियन आदि विदेशी कलाकार बाॅलीवुड में काम करने को लाइन लगाकर खड़े हैं। लेकिन इससे फि़ल्मों में भारतीयता एवं भारतीय संस्कारों की उपेक्षा हो रही है।
भारतीय सिनेमा विशेषकर हिन्दी सिनेमा ने अब एक नया प्रयोग प्रारम्भ किया है, जो अत्यंत सफल रहा है, वह यह कि विदेशी फि़ल्मों की भोंडी नकल करने की बजाय क्षेत्रीय भाषाओं की सफल फि़ल्मों को अपनी भाषा में रूपान्तरित करना। तेलुगु की ‘शिवा’ फि़ल्म से शुरू हुई यह परंपरा आज अनेक हिन्दी फि़ल्मों में अपनाई जा रही है। गत वर्ष आई रावण फि़ल्म ने एक नए ट्रेंड को जन्म दिया। वह यह कि एक ही सेट और लोकेशन पर एक से अधिक भाषाओं की फि़ल्मों को एक ही समय में एक साथ शूट करना। यह एक अच्छा चलन है, जिसे प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इससे समय और धन की बचत तो होती ही है, साथ ही एक ही यूनिट के कलाकारों से काम कराकर एक समय में दो फि़ल्में तैयार कर प्रदर्शित की जा सकती हैं।
हिन्दी सिनेमा के कुछ और नए रुझानों का यहाँ उल्लेख किया जाना आवश्यक है। पहला पुरानी तथा कालजयी श्वेत-श्याम फि़ल्मों को रंगीन करके डिजिटल स्वरूप में पुनः प्रदर्शित करना। ‘मुग़ले आज़म’ को इस माध्यम से सफलतापूर्वक पुनप्र्रदर्शित किया जा चुका है और ‘हम दोनों’ तथा कई अन्य हिन्दी फि़ल्मों को नया कलेवर देकर पुनप्र्रदर्शित करने की तैयारी की जा रही है। पुरानी फि़ल्मों को आज के डिजिटल भारतीयों से हूबहू उसके रंगीन स्वरूप में परिचित कराने की यह परंपरा सराहनीय है।
आज हिन्दी सिनेमा में रीमेक कल्चर बढ़ रहा है। यद्यपि पहले भी ‘देवदास’, ‘चित्रलेखा’ आदि फि़ल्मों के रीमेक बनते रहे हैं, लेकिन हाल में इस चलन ने ज़ोर पकड़ा ह्रै। ‘डाॅन’, ‘अग्निपथ’, ‘साहब बीबी और गुलाम’, ‘शोले’, ‘मैंने प्यार किया’, ‘फूल और कांटे’, आदि फि़ल्मों के रीमेक ज़ल्द ही बड़े पर्दे पर अवतरित होने वाले हैं। लेकिन इसे एक अच्छा ट्रेंड नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह मौलिकता से पलायनवादिता का परिचायक है और हिन्दी फि़ल्मकारों की बौद्धिक दरिद्रता को प्रदर्शित करता है।
आजकल फि़ल्मों में आइटम गीतों की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। विशेषकर लोक संस्कृति के सुन्दर एवं सुमधुर गीतों का फूहड़ अंग प्रदर्शन के साथ प्रस्तुतीकरण भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा पर आघात कर रहा है। ‘सरकाइ ल्यौ खटिया’ से शुरू हुई यह परंपरा आज ‘टिंकू जिया’ तक आ पहुँची है। यद्यपि महँगाई ‘डायन खाए जात है’ और ‘ससुराल गेंदा फूल’ जैसे लोकगीतों का स्वस्थ एवं सार्थक चित्रांकन करके सिनेमा ने वाहवाही भी बटोरी है, लेकिन ऐसे दृष्टांत कम ही हैं।
भारतीय फि़ल्मों में प्रारंभ से ही महिलाओं को सशक्त भूमिका न देने की परंपरा रही है। भारतीय फि़ल्मों की महिलाएँ सा तो सती-सावित्री होती हैं या ग्लैमर डाॅल के रूप में चित्रित की जाती हैं। इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीत जाने के बावजूद इसमें कोई बदलाव नहीं दिखाई देता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी कल्कि कोचलीन जैसी नवोदित अभिनेत्री को यह कहने को बाध्य होना पड़ता है कि ‘जि़न्दगी न मिलेगी दोबारा’ फि़ल्म में उनका इस्तेमाल ‘आई कैण्डी’ के रूप में किया गया है। कहानी की डिमाण्ड के नाम पर फि़ल्मकारों द्वारा अंग प्रदर्शन को जायज ठहराना और अभिनेत्रियों का अंग प्रदर्शन करने हेतु खुशी-खुशी तैयार रहना शायद भारतीय सिनेमा की एक बड़ी विकृति का संकेत करता है। कुछ साल पहले अभिनेत्री महिमा चैधरी ने निर्देशक सुभाष घई पर यह आरोप लगाया था कि ‘परदेस’ फि़ल्म में घई ने उन्हें नाॅन ग्लैमरस रोल देकर उनका कॅरियर खराब कर दिया।
‘नयापन’ वर्तमान दौर में भारतीय सिनेमा की एक नई चाहत के रूप में उभरकर आया है। मोटे तौर पर तो यह चाहत अच्छी दिखाई देती है, लेकिन जब यह नयापन कुछ सीमाओं को भी पार करने लगता है तो यह विकृत स्वरूप में हमारे सामने आ जाता है। दादा कोंडके ने कुछ समय पहले मराठी सिनेमा में द्विअर्थी संवादों से युक्त फि़ल्मों के निर्माण की शुरूआत की थी, जिनका हिन्दी समेत अनेक भाषाओं में डबिंग के साथ प्रदर्शन किया गया था। अँधेरी रात में दिया तेरे हाथ में, खोल दे मेरी……..जुबान आदि इसी कोटि की फि़ल्में थीं। लेकिन कुछ ही दिनों में दर्शक इससे ऊब गए और यह चलन खत्म हो गया। इधर हिन्दी में हिन्दी सिनेमा के अग्रणी फि़ल्मकार आमिर खान ने अपने भांजे इमरान खान के डूबते कॅरियर को पटरी पर लाने के लिए ‘डेल्ही बेली’ जैसी बकवास फि़ल्म लेकर आए हैं, जिसमें अशालीन भाषा एवं भद्दी गालियों की भरमार है। ‘रागिनी एम.एम.एस.’, ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’, ‘इश्किया’, ‘इश्किया-2’, ‘द डर्टी पिक्चर’ आदि इसी परंपरा का अंधा अनुगमन कर रही हैं। जब ‘आपकी अदालत’ नामक कार्यक्रम में आमिर खान से पूछा गया कि ‘तारे ज़मीं’ पर और ‘रंग दे बसंती’ जैसी सार्थक फि़ल्में बनाने वाले निर्देशक को ‘डेल्ही बेली’ जैसी फि़ल्म बनाने की क्या ज़रूरत पड़ गई तो उनका कहना था कि मैं इण्टरटेनर हूँ, मेरा काम जनता का मनोरंजन करना है और यह फि़ल्म नयी काॅन्सेप्ट थी, इसलिए मैंने इसका निर्माण किया। यह तर्क भारतीय सिनेमा को उसके पथ से भटकाने वाला प्रतीत होता है।
भारतीय सिनेमा में आज कहीं न कहीं अच्छी कहानियों एवं गीतों का भी सख्त अभाव दिखाई देता है। स्वयं अमिताभ बच्चन और स्व. मजरूह सुल्तानपुरी भी इस ओर संकेत कर चुके हैं। इसका मुख्य कारण फि़ल्म पटकथा लेखकों एवं गीतकारों को उचित सम्मान एवं पारिश्रमिक न दिया जाना है। आज फि़ल्म निर्देशकों, संगीतकारों तथा नृत्य निर्देशकों को जितना सम्मान एवं धन दिया जाता है, उतना सम्मान एवं धन पटकथा लेखकों एवं गीतकारों को नहीें मिलता। शायद यही कारण है कि हम पटकथा के लिए या तो विदेशी फि़ल्मों की भोंडी नकल करते हैं या रीमेक की ओर भागते हैं और गीतों को या तो विदेशी धुनें चुराकर तैयार करवाते हैं या भारतीय लोकगीतों को भोंडे तरीके से पेश करते हैं।
इधर एक नई प्रवृत्ति भी देखी जा रही है। आज एक फि़ल्म के हिट हो जाने पर उसका दूसरा और तीसरा पार्ट बनाने की होड़ चल पड़ी है। ‘नगीना’ और ‘निगाहें’ की सफलता से शुरू हुआ यह रुझान रामगोपाल वर्मा की ‘डरना’ सीरीज़ से होता हुआ ‘मुन्ना भाई’ सीरीज़ का पड़ाव तय करते हुए आज ‘धूम’, ‘भेजा फ्राई’, ‘धमाल’, ‘हेराफेरी’, ‘मर्डर’, ‘दबंग’ आदि तक पहुँच गया है। रामगोपाल वर्मा ने तो इससे भी दो कदम आगे बढ़़ते हुए एक बार में ही ‘रक्तचरित्र-1’ और ‘रक्तचरित्र-2’ बना ली थीं और दो माह के अन्तर से दोनों फि़ल्मों को प्रदर्शित कर दिया था। हालांकि इसके दुष्परिणाम भी देखे जा सकते हैं। पार्ट-2 बनाने के फेर में निर्देशक प्रायः फि़ल्मों के अंत का कबाड़ा कर रहे हैं। इससे सिनेमा हाॅल से निकलने वाला दर्शक मनमाफिक एवं सार्थक अंत न होने पर ठगा सा महसूस करता है।
रेट्रो के हाॅलीवुड पैटर्न को भी भारतीय दर्शकों पर कसने की कोशिश की गयी है। आज की फि़ल्मों में सातवें दशक का वातावरण सुजित करने की यह कोशिश ‘ओम शांति ओम’ में तो कुछ हद तक सफल रही लेकिन बाद की ‘एक्शन रीप्ले’, ‘तीसमारखाँ’, ‘1920’, ‘हाॅन्टेड’ आदि फि़ल्मों में दर्शकों ने इसे अस्वीकार कर दिया।
इधर कुछ स्वस्थ रुझान भारतीय फि़ल्मों को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर गर्व से खड़े होने के अवसर दे रहे हैं। बच्चों पर केन्द्रित कुछ सार्थक फि़ल्मों जैसे- ‘तारे ज़मीं पर’, ‘इकबाल’, ‘स्लमडाॅग मिलिनेयर’, ‘चिल्लर पार्टी’, ‘भूतनाथ’, ‘हनुमान’, ‘स्टैनली का डब्बा’ आदि ने इस उपेक्षित क्षेत्र को भी फलने-फूलने का अवसर दिया है। भारत में खेलों पर बहुत कम फि़ल्में बनती थीं, लेकिन हाल में कई फि़ल्मों में खेलों को महत्त्व दिया गया है। ‘लगान’, ‘चक दे इण्डिया’, ‘इकबाल’, ‘पटियाला हाउस’, ‘स्पीडी सिंह’ आदि फि़ल्मों ने इन खेलों की ओर भी जनता का ध्यान आकृट किया है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों पर भी कुछ अच्छी एवं सार्थक फि़ल्में बनी हैं। ‘आनंद’, ‘अखियों के झरोखों से’ तथा ‘दर्द का रिश्ता’ से शुरू हुई यह परंपरा आज ‘तारे ज़मीं पर’, ‘ब्लैक’, ‘पा’, ‘सेत’ु (‘तेरे नाम’) और ‘गुजारिश’ तक आ पहुँची है। इनके अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं (‘स्लमडाॅग मिलिनेयर’, ‘रोक’, ‘डोर’, ‘गंगाजल’, ‘इश्किया’, ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘खाप’, ‘न्यूयाॅर्क’, ‘कुर्बान’, ‘ए वेडनेसडे’, ‘वेइल’, ‘कल्लरली हूवागी’)  शिक्षण व्यवस्था, (‘थ्री ईडियट्स’, ‘तारे जमीं पर’), राजनीति (‘सरकार’, ‘सरकार राज’, ‘राजनीति’, ‘नायकम्’), फैशन कल्चर (‘फैशन’, ‘काॅरपोरेट’, ‘पेज थ्री’), इतिहास (‘जोधा अकबर’, ‘भगत सिंह’, ‘बोस दि फाॅरगाॅटेन हीरो’, ‘सरदार’, ‘गाँधी माई फ़ादर’)  ग्राम्य समाज ( ‘पीपली लाइव’, ‘वेलकम टू सज्जनपुर’, ‘मालामाल वीकली’, ‘स्वदेश’, ‘रेड अलर्टः द वार विदइन’, ‘प्रयाणम्’), पान सिंह तोमर, विषयों पर भी इधर भारतीय फि़ल्मकारों ने कुछ अच्छी फि़ल्में दी हैं।
साहित्य के सिनेमा के साथ सम्बन्धों की ओर यदि दृष्टि डालें, तो स्थिति निराशाजनक दिखाई देती है। साहित्य ने कभी भी सिनेमा को अच्छी नज़रों से नहीं देखा। चंद साहित्यकारों को छोड़ दें तो प्रायः अधिकांश साहित्यकारों ने फि़ल्म जगत से दूरी बनाकर रखी। सिनेमा ने भी उन्हें यह कहते हुए कम गले लगाया कि साहित्य एक दृश्य माध्यम है, जबकि सिनेमा दृश्य-श्रव्य माध्यम है। इसलिए साहित्यकार को यदि सिनेमा से जुड़ना है तो उसे सिनेमा की आवश्यकता के अनुरूप लेखन करना होगा। सिनेमा से प्रेमचंद और अश्क समेत कई साहित्यकारों के मोह भंग का यह एक बड़ा कारण था। हालांकि इसके बावजूद उर्दू, कन्नड़, बंगाली और गुजराती सिनेमा ने साहित्यिक कृतियों पर आधारित अनेक उत्कृष्ट फि़ल्मों का निर्माण किया। हिन्दी सिनेमा ने भी शरत, प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, आर. के. नारायण, मिर्जा हादी रुसवाँ, महाश्वेता देवी, चेतन भगत आदि की अनेक साहित्यिक कृतियों पर फि़ल्में बनाईं। लेकिन यदि इक्का-दुक्का फि़ल्मों को छोड़ दें, तो इन फि़ल्मों को बाॅक्स आॅफि़स पर सीमित सफलता ही मिली क्योंकि सिने निर्देशक इन कृतियों का सिनेमाई रूपान्तरण करते समय अति नाटकीयता के मोह में पड़कर इनके साथ न्याय नहीं कर सके और इन कृतियों की आत्मा को मार बैठे।
भारतीय फि़ल्म इण्डस्ट्री में ऐसे अनेक कलाकार मौजूद रहे हैं, जिन्होंने साहित्य और सिनेमा दोनों ही क्षेत्रों में अपना परचम लहराया है। गोपाल दास नीरज, नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, गुरूदत्त, डाॅ. राजकुमार, मज़रूह सुल्तानपुरी, हरिवंश राय बच्चन, डाॅ. राही मासूम रज़ा, कैफी आजमी, मीना कुमारी, गिरीश कर्नाड, गुलज़ार, मनोहर श्याम जोशी, सुरेन्द्र वर्मा,, जावेद अख्तर आदि नाम इस श्रेणी में आते हैं। लेकिन वर्तमान समय में इनकी संख्या कम होती जा रही है, जो सिनेमा की सेहत के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
भारतीय सिनेमा और एकेडमिक्स के बीच भी सम्बन्ध भारत में नहीं पनप सके हैं। इसका एक बड़ा कारण सिनेजगत का इस दिशा में उदासीन रहना है। सिने जगत की उदासीनता के कारण ही हिन्दी की पहली सवाक फि़ल्म आलमआरा का एकमात्र प्रिंट पुणे में जलकर नष्ट हो गया। फि़ल्म उद्योग को इम्पा जैसी एक स्वतंत्र संस्था बनाकर भारतीय फि़ल्मों के संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इस संस्था के माध्यम से भारतीय सिनेमा का एक संग्रहालय पुणे, चेन्नई, गोवा या जम्मू में स्थापित किया जा सकता है, जिसमें पुरानी कलात्मक फि़ल्मों के विभिन्न भारतीय भाषाओं में शो आयोजित किए जाने चाहिए। यह संग्रहालय सभी भारतीय फि़ल्मों के डिजिटलाइजेशन का वृहद् कार्य भी अपने हाथों में ले सकता है। इसके अतिरिक्त मैडम टुसाड के म्यूजि़यम की तर्ज पर इस संग्रहालय में भारत के कालजयी फि़ल्मकारों की मोम की मूर्तियाँ भी स्थापित की जा सकती हैं। इस संग्रहालय के माध्यम से भारतीय सिनेमा पर शोध कार्य को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है।
यद्यपि फि़ल्म इंसटीट्यूट, पुणे और एन.एस.डी. जैसी सरकारी संस्थाएँ अस्तित्व में काफी समय से हैं, लेकिन फि़ल्म शोध एवं समीक्षा की एक स्वस्थ परम्परा अभी भारत में विकसित होनी है। कुछ समाचार पत्रों में फि़ल्मों की अधकचरी आलोचना छाप कर उसे ही हम फि़ल्म समीक्षा मान बैठते हैं। भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर आज आवश्यकता है कि दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श के पैटर्न पर सिनेमा विमर्श की गम्भीर शुरूआत की जाए और श्रेष्ठ फि़ल्मों के समालोचन हेतु पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचारपत्र आगे आएँ, तभी हम भारतीय सिनेमा को सही दिशा में आगे ले जाने हेतु प्रेरित कर सकेंगे।

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