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गू हो जाने के परिणामस्वरूप भारतीय समाजार्थिक ढाँचे में अभूतपूर्व परिवर्तन देखे गए। इस दौर में स्त्री के प्रति पुरुष वर्ग के रूढि़वादी दृष्टिकोण में अभूतपूर्व परिवर्तन देखा गया। इसी दौरान पंचायतराज अधिनियम के अस्तित्व में आने से स्त्रियों को भी राजनीति में अपनी भूमिका निभाने का अवसर प्राप्त हुआ। वर्ष 2001में नई सहस्राब्दि को महिला सशक्तीकरण वर्ष से प्रारम्भ करने के संकल्प के साथ हमने यह दिखाने का प्रयास किया कि अगली सहस्राब्दि स्त्रियों के पुनरुत्थान की नई इबारत लिखने जा रही है।
वस्तुतः आज की स्त्री घर की संकुचित चहारदीवारों में कैद होकर रसोई के धुँए में अपने जीवन को धुँआ-धुँआ करने को अभिशप्त नहीं है, वरन् वह समाज की प्रगति में समान रूप से अपनी जि़म्मेदारियों का निर्वहन कर रही है। आज भारत के राष्ट्रपति, लोकसभा स्पीकर, नेता विरोधी दल, यू.पी.ए. के अध्यक्ष पद तथा अनेक प्रांतों के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री पदों, समेत विभिन्न औद्योगिक घरानों के प्रमुखों एवं अनेकानेक अन्य महत्त्वपूर्ण पदों पर महिलाएँ सुशोभित हैं और अत्यंत कुशलतापूर्वक अपने दायित्वों का निर्वहन कर रही हैं। विगत दिनों अंग्रेज़ी समाचारपत्र टाइम्स आफ़ इण्डिया में एक सर्वेक्षण प्र्रकाशित हुआ था, जिसमें अधिकांश पुरुष कर्मचारियों ने महिला बास को पुरुष बास से बेहतर बताया था।
उपर्युक्त समस्त कारणों ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से स्त्री विमर्श को साहित्य के केन्द्र में लाने में सहायता की है। तसलीमा नसरीन और शीबा असलम फहमी ने मुस्लिम समाज में स्त्रियों के साथ हो रहे भेदभाव को अवाज़ दी, तो प्रभा खेतान, आशारानी व्होरा आदि ने हिन्दू महिलाओं के साथ किए जा रहे शोषण को अपनी लेखनी का माध्यम बनाया। यदि कविता के परिदृश्य पर नज़र घुमाएँ, तो हमें कवयित्रियों की एक भारी भरकम फौज दिखाई देती है, जो इक्कीसवीं शती की स्त्री का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। कात्यायनी, अपर्णा मनोज, कविता वाचकनवी, बाबूषा कोहली, मनीषा कुलश्रेष्ठ, पूनम सिंह, आदि महिलाएँ स्त्री की गरिमा एवं अर्थवत्ता को नूतन सिरे से परिभाषित कर रही हैं।
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